जहीर कुरैशी की गज़ल 'आँखों से सिर्फ' कई मायनों में महत्वपूर्ण है। वर्तमान भाग-दौड़ वाली जिंदगी ने हमारे सामने जीवन लक्ष्यों का ऐसा ढाँचा खड़ा कर रखा है, जो एक दृष्टि से ही हर विषय-वस्तु को देखने के लिए अनजाने में ही हमें मजबूर किये है। दुर्भाग्य यह है कि सूचना तंत्रयुग का मनुष्य स्वयं भी मशीन बन चुका है, जिसकी भावनाएं महज़ आँखों देखी तक सीमित है। ऐसी स्थिति में सोच-विचार और दृष्टि को नयी राह दिखाने का काम यह कविता करती है। कविता का भावार्थ यहाँ दिया गया है, वह सर्वथा मेरे मानस बोध का निष्कर्ष है। कवि क्या कहना चाहता था की जगह मैं इसे जैसे समझा वैसे प्रस्तुत कर रही हूँ।
आँखों से सिर्फ सच नहीं, सपना भी देखिए।
कलियों का रूप—रंग महकना भी देखिए।।
सब लोग ही पराए हैं, ये बात सच नहीं।
दुनिया की भीड़ में कोई अपना भी देखिए।।
नदियों को सिर्फ पानी ही पानी न मानिए।
नदियों का गीत गाना थिरकना भी देखिए।।
बरखा की स्याह रात में उम्मीद की तरह।
निर्भीक जुगनुओं का चमकना भी देखिए।।
पत्थर का दिल पसीजते देखा न हो अगर।
तो बर्फ की शिलाओं का गलना भी देखिए।।
जो चुभ रहे हैं —शूल हैं,ये अर्द्ध—सत्य है।
प्रस्तुत गज़ल जहीर कुरैशी की 'भीड़ में सबसे अलग' संग्रह से ली गई है। इस गज़ल का नाम 'आंखों से सिर्फ' मनुष्य के उस स्वभाव की और निर्देश करता है, जिसके अनुसार हम मूल मानवी स्वभावानुसार दुनिया को मात्र एकांगी दृष्टि से देखते हैं। हमारी आंखें जो देखती है, हम उसे ही पूरा सच मानते गए। जबकि वास्तव इस सच से भी बड़ा होता, अलग होता है। आंखे सिर्फ वह देखती है, जो वह देखना चाहती है। जबकि सच्चाई इस आँखों देखी से कुछ अलग ही होती है। अतः मनुष्य के रूप में हमारा विकास संभवतः तभी हो पाएगा, जब हमारी दृष्टि केवल दृष्टा के रूप में सीमित न हो निरीक्षक शक्ति के साथ आएंगी।

मानवी जगत में अक्सर स्वार्थ पूर्ति के संबंधों पर अपने-पराए जैसे रिश्ते बनाए जाते हैं। जो-जो हमारे काम आए, वह हमें अपने लगते हैं और जिनसे काम न बन पाए, ऐसे बाकी के पराए। किंतु समय वह कसौटी है, जो अपने और पराए का भेद खोलती है। अक्सर जिन्हें हम अपना कहते है, मुश्किल समय में वे साथ नहीं देते। इसलिए गज़लकार कहता है कि दुनिया के सब लोग पराए हैं, यह बात सच नहीं है। न जाने कब, किस समय दुनिया की इस अंजान भीड़ में कोई ऐसा मिल जाए जो संकट काल में हमारा साथ दें और उस अंजान के रूप में हमें अपना मिल जाए, कहा नहीं जा सकता।
मनुष्य के जीवन में प्रकृति के बहुत से तत्व जुड़े होते हैं, जो हर स्थिति में उसे जीना सिखाते हैं। इन भौतिक वस्तुओं को कोरी निगाहों से अगर देखें तो हो सकता है यह निरर्थक लगेंगे। किंतु दृष्टिकोण का एक बदलाव आप को जीना सिखा देगा। अतः नदी को मात्र बहता हुआ पानी मानना, संभवतः हमारी दृष्टि की निर्जीवता होंगी। नदी के इस बहाव में उसका गीत गाना है, तरंगों के रूप में थिरकना है -यह जिस दिन हमारी आँखें देख पाएंगी, उसके बहाव में छिपी जीवंतता को जान सकेंगी उस दिन हम सही अर्थ में प्रकृति को हमारे ओर निकट पाएंगे।



इस कविता का एक और तथ्य हमें देखना होंगा कि जहीर कुरैशी गज़ल का प्रारम्भ कलि से करते है और समाप्ति फूल पर। अर्थात जीवन अपना पूर्ण चक्र लगाते हुई रूप-रंग, महक से काँटों और नरम पखुड़ियों तक सफर कर पूर्णता पाता है। इस चक्र में दृश्यता-अदृश्यता का गहरा संबध है। मानव विकास के सफर में भी हमें इसी चक्र को पूर्ण करना होता है। जिसमें आंंखों से जो देखा जा रहा है, वह किन अर्थों में ग्रहण किया जा रहा है, यह देखना आवश्यक है।
इस तरह से यह कविता 'आंखों' के माध्यम से जीवन को पूर्ण दृष्टि से देखने की और बल देती है।
Very effective 👍
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