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रस का स्वरूप

               सुख-दुखात्मक किसी भी प्रकार के दृश्यावलोकन, काव्य या साहित्य के पठन-श्रवण से द्रवीभूत होकर पाठक एवं श्रोता के मन में जो एक विशेष प्रकार की अनिर्वचनीयता, अदृश्य या अमूर्त अनुभूति-सी स्वतः प्रकाशित होती है उसी का नाम रस है। उसकी अनुभूति के क्षणों में व्यक्ति की मनोदशा और चेहरे के हाव-भाव में एक प्रकार की स्वाभाविकता आ जाती है। उस स्थिति में मुख से अनायास हाय!, ओह!, आह!, अरे! जैसे शब्द निकलते है, जो रस के स्वरूप को व्यंजित करते है। रस के स्वरूप के संदर्भ में भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों के मतों को निम्नानुसार देखा जा सकता है -
भारतीय दृष्टी
                भारतीय साहित्यशास्त्र के अंतर्गत काव्य की आत्मा की खोज में आचार्यों ने जिन सिद्धांतों की प्रतिस्थापना की है, उनमें रससिद्धांत आवश्यक माना जाता है। इसका सर्वप्रथम विवेचन भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में मिलता है। अतः रस सिद्धांत के प्रवर्तक के रूप में आचार्य भरतमुनि को देखा जा सकता है। भरतमुनि के द्वारा रस के स्वरूप को निर्धारित करनेवाला सूत्र है -
                                           ''विभावानुभावव्यभिचारीसंयोगाद्रसनिष्पति''
              अर्थात विभाव,अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पति होती है। इन तीनों भावों के कारण स्थायीभाव जाग्रत होता है, जो रसरूप में परिणत होता है। अतः रस की परिभाषा हुई - विभाव,अनुभाव व व्यभिचारी भावों के संयोग से जाग्रत स्थायीभाव रस या रसदशा कहलाता है।
         आचार्य भरत के परवर्ती आचार्यों ने रस के स्वरूप को लेकर अपने-अपने मत रखने की चेष्टा की है। आ.अभिनवगुप्त ने इस दिशा में विशेष प्रयत्न किया है। उनकी मान्यता है कि आनंद आत्मा का विषय है। विभावादि के माध्यम से वह काव्य या नाटक का विषय बनता है। काव्य नाट्यादि के परिशीलन से ह्रदय की संवेदना आत्मस्थित हो जाती है। आत्मा आनंद का अनुभव करती है।
           आ.विश्वनाथ रस को सत्वोंद्रेक  से अखंड स्वप्रकाश और चिन्मय आनंद स्वरूप मानते है। ब्रम्ह के अखंड रूप के समान रस का स्वरूप भी वे अखंड मानते हुए उसे स्वप्रकाशित तत्व कहते है।
           पंडित जगन्नाथ के अनुसार जब चेतना का आवरण भंग हो जाता है तब रति आदि स्थायीभाव रस कहलाते है। जगन्नाथ भी आनंद में चेतना की जाग्रती को रसरूप कहते है।
उपर्युक्त विवेचन के उपरांत रस के स्वरूप को निम्न रूप से समझा जा सकता है-
1.    रस सत्वोंद्रेक है -
       मनुष्य चित्त की तीन अवस्थाएं होती है। जो रजोगुण,तमोगुण व सतोगुण कहलाते है। मनुष्य चित्त की सबसे शुद्ध अवस्था सतगुण में होती है। यदि मनुष्य सांसारिक मोह, क्रोध,लोभ से उपर उठकर काव्य का आस्वादन करता है, त बवह रस की अनुभूति करता है। जिसमें सतगुण प्रमुख होता है। अर्थात रस का अविर्भाव सत्वोंद्रेक की स्थिति में होता है।
2.    रस की अखंडता -
      रस वह स्थायी भाव होता है, जिसका संयोग विभाव, अनुभाव, संचारी भावों के समन्वित रूप के साथ हो, न की इनमें से किसी एक या दूसरे के बिना रस पूर्ण होता है। इस स्थिति में इन भावों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। रस न अधिक हो सकता है,न कम। इसी कारण वह स्वयंपूर्ण है। जब भी पाठक या श्रोता रस का आस्वादन करते है, तो उसे प्राप्त होनेवाला रस अखंड होता है।
3.    रस स्वयंप्रकाशानंद -
       जिस प्रकार सूर्य दिखाने के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार रस भी स्वयंप्रकाशित है। जिस प्रकार ब्रम्ह स्वयंप्रकाशमान तत्व है। उसी प्रकार रस भी स्वयंप्रकाशानंद है। रस की व्युत्पत्ति अचानक नहीं होती। वह एक नित्य तत्व है। रसानुभूति आत्मचेतना से प्रकाशित होती है।
4.    रस आस्वाद रूप -
       जिस रूप में रस आस्वादित किया जाता है। उससे भिन्न वह किसी भी प्रकार की अनुभूति नहीं है। क्योंकि सहदय की स्वयं की अनुभूति ही रस के रूप में परिवर्तित होती है। एक सहदय की अनुभूति दूसरे की अनुभूति में न तो सहायक सिद्ध होती है, न उसे प्रभावित कर सकती है।
5.    रस चिन्मय स्वरूप -
      रस में चेतनता प्रधान होती है। रस शुद्धचेतन अर्थात आत्मा के समान सचेतन अथवा प्राणवान आनंद है। वह निद्रा, मद्यपान आदि से उत्पन्न लौकिक आनदं के समान जडआनंद नहीं है। रस का संबंध आत्मा की शुद्धता से है।
6.    रस ब्रम्हानंदसगोदर रूप -
      कुछ विद्वान रस को ब्रम्हस्वाद तो नहीं पर उसका सगोदर कहते है। ब्रम्हस्वाद में जिसप्रकार अलौकिक आनंद की अनुभूति हुआ करती है। कुछ उसी प्रकार रसानुभूति भी अलौकिक आनंद प्रदान करती है। अंतर यही है कि ब्रम्हस्वाद में लौकिक विषयों का तिरोभाव हो जाता है। पर रसास्वाद में ऐसा नहीं होता।
7.    रस लोकोत्तर चमत्कार प्राण -
       चित्त का विकासजन्य आनंद ही रस का प्राण है। किंतु लोकोत्तर रस कुछ ऐसा ही है। रस का आस्वाद लौकिक तो है फिर भी लौकिक आनंदों से वह सर्वोपरि है।
8.    ज्ञानरहित -
       रस के स्वरूप के बारे में कहा जाता है कि वह वेदोत्तर स्पर्शशून्य है। रस के आस्वाद के लिए किसी प्रकार के वेद या ज्ञान के स्पर्श की आवश्यकता नहीं है। रस प्राप्ति की स्थिति में इस प्रकार के सभी वस्तुओं का एवं उसके ज्ञान का विस्मरण हो जाता है। ओर इतनी तन्मयता आ जाती है कि सहदय की आत्म भी रस को प्रतित करती है।
9.    रस की अनिर्वचनीयता -
      रस से प्राप्त होनेवाला आनंद लौकिक या आध्यात्मिक आनंद से दूर होता है। सहजानुभूति का आनंद भी इसी कोटि में आता है। अतः कई बार रस से प्राप्त होनेवाला आनंद निर्वचनीय अर्थात शब्दों की सीमा से परे देखा जा सकता है।
             अतः कहा जा सकता है कि काव्य रस किसी फल का इंद्रियजन्य रस नहीं है। वस्तुतः यह उदात्त, स्पृहनीय, भावनिक , मानसिक आनंद है, जो दीर्घकालीन होता है और सह्रदयों को प्राप्त होता है।

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