यह चौथी शताब्दी की घटनाओं पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास है, जो निरंतर मनुष्य भाव संबंधी प्रश्नों को उठाता है।
साथ ही ऐसे हीन चरित्रों की
कहानी कहानी भी, जो समाज में लांछित
होकर भी शोभा-शालीनता से पूर्ण है, वे ऐसे ज्योतिपुंज
है, जो दूसरों के जीवन को आलोकित करें ।
पुनर्नवा- संक्षिप्त कथानक
हलद्विप
में बसे देवरात जैसे वैरागी, विषयासक्ति से दूर साधु पुरुष संस्कृत, प्राकृत के
अच्छे कवि,
कुशल वादक,
शील, सौजन्य औदार्य, मृदुता के आश्रयदाता थे। दीन-दुखियों की
सेवा, बालकों को पढ़ाने-खेलने में
व्यग्र देवरात पर च्यवनभूमि के चौधरी वृद्ध गोप की भक्ति थी।वृद्ध गोप के दो पुत्र थे- श्यामरूप जो स्नेहा से पालित ब्राह्मण कुमार, तो दूसरा आर्यक। वृद्धगोप आर्यक को वंशपरंपरानुसार मल्लविद्या की
शिक्षा देना चाहते थे, तो
श्यामरूप को पांडित्य की। मात्र देवरात की आलोचना में द्वेष भाव देखनेवाली नगरश्री मंजुला उनकी विरोधी थी। कालांतर से मंजुला भी समझ जाती है कि देवरात एकमात्र समझदार,सह्रदय है, जो
न उसके रूप से अभिभूत हुआ,
न उसे अंधश्रद्धा-लोलुप दृष्टि से देखा। वह
कला मर्मज्ञ है, चाटुकार नहीं। देवरात मंजुला के नृत्य में महाभाव चाहते थे और मंजुला देवरातपर विजय। एक दिन मंजुला इसमें सफल भी होती है, देवरात उस दिन जैसे अधीर और व्याकुल दिखाई दिए, तो राजा ने समझा कि
देवरात स्वयं को अपमानित अनुभव कर रहे हैं। एक दिन रूपगर्विता मंजुला सारे अभिमान छोड़ देवरातके आश्रम में सामान्य रूप में आती है। परिवर्तन पश्च्यात उसका अधिकांश समय पूजा पाठ में, महाभाव की साधना में जाता। ऐसे में राजसभा में पुकार पर भी बेसुध मंजुला अनुपस्थित रह राजकोप की भागी बन रक्षा की गुहार लगाती देवरातके पास जाती है। अपने कविता पाठ से आहत देवरातसे मंजुला इस अपराध के लिए क्षमा मांगती है। मंजुला के नृत्य में देवता की अभिव्यक्ति,उसमें देवता का निवास देखनेवाले देवरात को मंजुला का स्वयं को पापिनी, अपराधिनी कहना अनुचित लगता पाता है।
एकाएक नगर में फैली भयंकर महामारी के प्रकोप में देवरात सेवा कार्य में जुट जाते हैं। रोगग्रस्त मंजुला को पानी देने वाला भी
कोई न था। तब
देवरात आतिथ्य ग्रहण करने मंजुला के प्रसाद आते हैं। बीमार मंजुला दो-तीन वर्ष की बच्ची मृणालमंजीरी को देवरात को
सौंप निकल जाती है। वृद्ध गोप पत्नी बालिका को अपने साथ ले जाना चाहती थी, पर मंजुला की अंतिम इच्छा नुसार उसे देवरात अपने पास रख
फिर से गृहस्थ हो
जाते हैं। देवरात उसे नारी सुलभ कलाओं का ज्ञान, स्त्री धर्म की शिक्षा देते हैं।
श्यामरूप में धार्मिक ब्राह्मण की अपेक्षा के
मल्ल गुण थे। उसे लहुरी काशी,वैदिक पाठशाला भेजा जाता है। मल्ल प्रेमी श्यामरूप वहां से भाग देवरात के आश्रम आता। पर एक
दिन श्यामरूप लापता हो
जाता है। बड़े भाई को खोजने घर
से पहले भागे आर्यक पर वृद्ध गोप की कड़ी निगाहें थी। युवावस्था की ओर उन्मुख मृणाल को उसका गणिका मंजुला से
संबंध जान पडता है। सयानी हो चुकी मृणाल को लेकर चिंतित देवरात उसके लिए आर्यक को
योग्य मान वृद्ध गोप से मिलते हैं। मात्र गणिकापुत्री को बहु बनाने की बात सुन चौंके वृद्ध गोप स्पष्ट इंकार करते है।
कांतिपुर की ओर से
यज्ञ सेन जो भारशिव नागवंशी थे, हलद्वीप का
शासन करते थे। आभीर जो वासुदेव कृष्ण के उपासक थे, उनकी सहायता पाने राजा यज्ञसेन प्रयत्नशील थे। पर उनका पुत्र लंपट,दुर्वृत्त था, जिससे हलव्दीप की प्रजा त्रस्त थी। देवरातराजा को
नीति मार्ग पर लाने का प्रयास करते, तो स्त्रियों का अबलापन, अत्याचार से मृणाल व्याकुल होती। देवरात मृणाल को बताते हैं कि कांतिपुरी के
निकट विंध्याटवी में आए सिद्ध पुरुष देवी के सिंहवाहिनी, महिषमर्दिनी रूप की पूजा का
प्रचार कर रहे हैं। जिसे सुन उल्लासित मृणाल महिषमर्दिनी की
उपासिका बनने की आज्ञा मांगती है, ताकि वह
घृणित पापाचारियों को ध्वस्त करें। पर देवरात उसे सिंहवाहिनी की
उपासिका बनने कहते हैं,जो सिंहरूपी पुरुषों को
कर्तव्य पालन की प्रेरणा दें।
सुमेर काका से संवाद मिलता है कि
लहुरा वीर की उपासना करने वाले दल
का नेता गोपाल आर्यक बन गया है, जिसने सैकड़ों युवाओं की
छोटी सेना बना ली
है। श्रीकृष्ण के छोटे पुत्र सांब को
जोड वृष्णिवीरों ने उपासना प्रचलित की, यही सांब लहुरा वीर है, जो अत्याचार, अनाचार को
ध्वंस करने के प्रतीक बन गए। सुमेर काका भी मानता है- सज्जन है, चरण की
धूल लो, दुर्जन है नाक तोड़ दो। पर
राजा को समझाने का
यत्न करनेवाले देवरात का
राजसभा में अपमान कर
राजा न उनकी ओर
देखता है, न बैठने को
आसन देता है। इधर हलद्वीप राजकुमार सखा चंदनक मृणाल को
वेश्या संबोधित कर कुवाच्य श्लोक का भूर्जपत्र का टुकड़ा फेंकता है। मृणाल उसे ललकारकर डंडे से
चोट पहुंचाती है, किंतु भागते हुए भी चंदनक उसे धमकाता है। अतः मृणाल उसी भूर्जपत्र द्वारा आर्यक को रक्षा हेतु निमंत्रित करती है। इस घटना से
व्याकुल देवरात को आर्यक चंदनक के घर
छोड़ भागने की सूचना देता है। आर्यक मृणाल को रक्षा का वचन देता है। सारी स्थिति समझ कर वृद्ध गोप भी आर्यक- मृणाल का विवाह करते हैं।
वृद्ध गोप मंजुला की
धरोहर को देवरात को
सौंपता है, जिसे देवरात उपासना गृह में खोलता है। उसके भीतर दुर्लभ कर्पूर काष्ठ की चौकोर पेटी पर अंकित कल्पवल्ली में मंजुला की
नाना अपेक्षाओं की कल्पना वह करता है। उसी पेटी से
मंजुला का देवरात के
लिए लिखा पत्र मिलता है। अपने भीतर के देवता को पाने मंजिला देवरात को भाव मूर्ति बना चुकी थी।अतः मृणाल के
पिता को न जानकर भी वह उस
के चिन्मय रूप के
पिता देवरात को मानित। नृत्य, गीत को पूजा मान अनायास मिला धन मृणाल के लिए रखती है।
देवरात प्रख्यात यौधेय वंश के, कुलूत राज्य के, वृद्धातिवृद्ध प्रपितामह अग्निमित्र के प्रमुख सेनानियों में थे। देवरात का
विवाह औशीनर वंश की
रूपमती शर्मिष्ठा से हुआ। हूणों के आक्रमण समय योद्धेय सेनापति के रूप में वे गांधार की
ओर रवाना होते हैं। देवरात हूणवाहिनी को परास्त करते है, पर देवरात की विमाता शर्मिष्ठा को उसकी मृत्यु का
समाचार देती है। यह सुन शोकग्रस्त शर्मिष्ठा सती होती है और देवरात शांति खोजने में हलद्वीप आते है। मंजुला में उन्हें शर्मिष्ठा का
आभास होता। मृणाल को वे मंजुला-शर्मिष्ठा
की बेटी मानते। अतः मृणाल को वे नारी धर्म की शिक्षा देते हुए पवित्रता की मर्यादा,सतीत्व का ज्ञान देते है। देवरात के लिए मंजुला गणिका नहीं, नारायण की स्मृतिरेखा समान पवित्र-मनोहर थी। अपनी अकिंचनता
को जान देवरात मंजुला की धरोहर
के साथ शर्मिष्ठा, मंजुला का वर्षों पुराना चित्र मृणाल को सौंपता हैं।
श्यामरूप मथुरा की गलियों में घूमता हुआ पंचवृष्णिवीरा का मंदिर देख कौतूहल प्रकट करता है। जिसका शमन वृद्ध ब्राह्मण करता है। श्यामरूप मल्ल विद्या का सम्मान करने वाला का
आश्रय खोज रहा था। उस ब्राह्मण को श्यामरूप अपना नाम छबीला पंडित बताता है,जिसने मद्रदेश के महाबलशाली अज्जुक मल्ल को पछाड़ा था। पर विटों, विदूषक, बंधुलों से
भरे मथुरा में पहले गुणी का अपमान फिर सम्मान होता। अत: वृद्ध उसका नामकरण शार्विलक करता है।
माता-पिता के मृत्यु पश्चयात श्यामरूप को वृद्ध गोप पिता का वात्सल्य दे उसे पंडित के रूप में देखना चाहते थे। पर साहसी प्रवृत्ति के आकर्षण से नटों की यायावर मंडली के साथ वह भाग निकलता है। नटों का चौधरी जो स्वयं कुशल मल्ल था। वह श्यामरूप को मल्ल और नट विद्या की शिक्षा देता है।उसके ब्राह्मण संस्कार लुप्त होने के बाद भी वह यज्ञोपवीत नहीं छोड़ता।चौधरी ने उसे नाम दिया छबीला पंडित। चौधरी के
ही बताएं दांवपेच से
श्यामरूप अज्जूक मल्ल को पराजित करता है। उस रात श्यामरूप से
ठिठोली करती आनंदमत्त नट मंडली की युवतियां के बीच एक स्त्री 15-16 वर्ष की लड़की को घसीट कर लाती है। श्रावस्ती के निकट किसी गांव की उस अवमानिता लड़की के रोने से परेशान चौधरानी उसे गणिका के दलाल के हाथों बेचती है। उस लड़की का दुख दूर करने का
निश्चय कर श्याम रूप उसे खोजने के उद्देश्य से मथुरा आता है।
वृद्ध ब्राह्मण द्वारा ही
श्यामरूप को आर्यक के सेनापति बनने की गाथा
पता चलती है, जो अत्यंत सुंदर युवती के
लिए भागा जा रहा था, तब पचास
लिच्छवि से जूझने के बाद उसे बंदी बनाया जाता है। लिच्छवियों का गणमुख्य आर्यक को
बंधन मुक्त कर राजकीय सम्मान देता है। चंद्रगुप्त का बेटा समुद्रगुप्त गोपाल आर्यक की
वीरता से प्रभावित होता है। दोनों में मित्रता होने के
बाद समुद्रगुप्त आर्यक को पाटलिपुत्र ले जाता है और उसे छोटी सेना देकर हलद्वीप पर आक्रमण के लिए भेजता है। आर्यक के हलद्वीप जीतने पर समुद्रगुप्त उसे हलद्वीप का राजा घोषित करने के साथ ही समुद्रगुप्त के
सिंहासन पर बैठते ही
उसे महाबलाधिकृत पद पर अभिषिक्त करता है। मृणालमंजिरी जैसी सती, साध्वी, पतिव्रता पत्नी का किसी और की पत्नी के लिए अकारण
परित्याग पाप है, यह मान समुद्रगुप्त आर्यक पर नाराज होता है। समुद्रगुप्त के
दोष से बचने गोपाल फिर कहीं लोप हो जाता है। आर्यक
की कहानी से उल्लासित श्यामरूप उसकी चरित्रहीनता की कहानी से
मर्माहत
होता है।ब्राह्मणों के प्रयत्न से
राजा के पितृव्य चंदसेन का आश्रय श्यामरूप को मिलता है। चंदसेन द्वारा आमंत्रित मल्ल प्रतियोगिता में राजा के साले भानुदत्त के प्रसिद्ध मल्ल मागू को शार्विलक पराजीत कर मथुरा की जनता का ‘मल्लों का मौलमणि’ बनता हैं, पर सदा के
लिए भानुदत्त का द्वेष- भाजक बन जाता है।
मथुरा में सशस्त्र राजकीय दंडधर बना वीरक शार्विलक को पहचान आर्यक की कथा बताता है।
गांव की औरतें मृणालमंजरी को मैना मांजरदेई कह देवी मानती। मृणाल के रुप में वेश्या पुत्री को
घर लाने का जाति में विरोध होता है, पर
अपने स्वभाव से मृणाल सबका दिल जीतती है। विवाह पश्चात देवरात आश्रम छोड़ कहीं निकल जाते हैं, राजा निरंकुश हो
प्रजा को लूटने और
बहू बेटियों का शील नष्ट करने लगा। अतः प्रजा की
रक्षा का भार आर्यक स्वयं लेता है। आर्यक के आह्वान पर गांव भर
से
100 नौजवान खड़े होते हैं और वह बिना अभिषेक का राजा बनता है।
एक दिन आर्यकऔर वीरक हलद्वीप के बाजार से
लौट रहे थे, तब नगर सीमा के बाहर एक आम्र वाटिका में किसी स्त्री के रोने की
आवाज सुनाई देती है। आर्यक के ललकारने पर वह स्त्री,जो पडोसी गांव के
श्रीचंद्र की बहू चंद्रा थी, दौड़ती हुई आर्यक से लिपट जाती है। चंद्रा को
आर्यक घर पहुंचाने का
जिम्मा लेता है, जबकि इसी चंद्रा ने आर्यक पर डोरे डालने कई चिट्टियां लिखी थी, जिन्हें आर्यक मृणाल को देता। आर्यक के घर जाने के लिए हट
करने पर भी वीरक उसे उसके घर
पहुंचाता है, जहाँ चंद्रा का
पति उपर लांछन लगा उसे पीटता है। गालियां बकती हुई चंद्रा गांव से
बाहर आती है।
मथुरा में समाचार फैलता है
कि आर्यक के स्थान पर पाटलिपुत्र सम्राट ने राज परिवार सदस्य भटार्क को
सेनापति नियुक्त किया। मथुरा के राजपितृव्य चंडसेन मथुरा में रहकर ही शत्रु से
लोहा लेने का निश्चय करते हैं। पर
परिवार को श्यामरूप के
साथ चुपचाप उज्जयिनी भेजते हैं ।श्यामरूप मांदी के लिए चिंतित था, श्रावस्ती के पास किसी बस्ती से
थी,
बिना मां-बाप की उस
गरीब ब्राह्मण की बेटी को किसी कारणवश घरवाले निकाल देते हैं। नट मंडली की चौधरानी उसे अपने पास छुपा कर रखती है, ताकि नगर में किसी गणिका को बेच दे। अतःश्यामरूप मांदी पर नजर रखने लगता है ताकि अवसर मिलने पर
वह मांदी को लेकर दल छोड़ दें। पर चौधरानी से
मांदी के बारे में पूछने के परिणाम स्वरूप शामरूप के
ब्याह की चर्चा शुरू हो जाती है, तो मांदी को मथुरा के
दलालों को बेचा जाता है। व्याकुल हो
श्यामरूप मांदी की खोज शुरू करता है। वीरक से पता चलता है कि
मांदी उज्जयिनी की और
गई है।
विदिशा से उज्जयिनी जाने के मार्ग पर
माढव्य और चंद्रमौलि चले जा रहे थे। विदिशा के पास के ही ब्राह्मण कुल का माढव्य उज्जयिनी में विख्यात था, तो चंद्रमौली कवि प्रकृति का जान पड़ता था। दोनों महाकाल के दरबार में आवेदन करने जा रहे थे
कि विध्वंस का तांडव बंद कर शोभा-शालीनता की महिमा लोगों में प्रतिष्ठित हो। विजयी सेनापति आर्यक अचानक विरक्त होकर सेनापतित्व छोड़ विंध्याटवी में निरूद्देश्य भटक रहा था। आर्यक के
चरित्र की कमजोरी उसे भागने को बाध्य करती है। हलद्वीप के राजा के
विरुद्ध आर्यक सम्राट चंद्रगुप्त को उकसाता है।अतः हलद्वीप के राजा के मानमर्दन की
जिम्मेदारी आर्यक पर आते ही वह मृणाल के बारे में चिंतित होता है। भाग कर भी
आर्यक चंद्रा से पीछा नहीं छुड़ा पाया। उद्वेल प्रेम में उफनती चंद्रा आर्यक को कापुरुष कहकर भी उसकी सेवा में जुट जाती। आर्यक उसके प्रति कृतज्ञ था, क्योंकि उसीके कारण वह समुद्रगुप्त के निकट पहुंचा था।
समुद्रगुप्त उत्खान-प्रतिरोपण में विश्वास करता। जिस राजा को उखाड़ने, उसे ही
अपना अधीनस्थ बनाता।आर्यक के हलद्वीप का
राजा बनने पर यज्ञ-याग, उत्सव होते हैं। पर
अभिमानिनी मृणाल नहीं आती। आर्यक के स्वयं जाने पर है
कृश हो चुकी मृणाल उसे क्षमा करती है। दूसरे युद्ध क्षेत्र में जाने के लिए आर्यक मृणाल को जल्दी छोड़ना नहीं चाहता था। पर आर्यक के यश में रंचमात्र मलिनता मृणाल को स्वीकार नहीं थी। इतना ही नहीं वह
चाहती थी कि चंद्रा भी वहीं आकर उसके साथ रहे।
समुद्रगुप्त के बलाधिकृत के रूप में आर्यक मथुरा तक विजय पाता है।पर चंद्रा स्वयं सम्राट को बताती है कि वह
आर्यक की पत्नी नहीं। इस पाप से
प्रजा में असंतोष की
आशंका से सम्राट आर्यक को रोष भरा पत्र लिखते हैं। सैनिक आर्यक को
परस्त्री लंपट, अपावन कह उससे घृणा न करें इसलिए आर्यक केवल तलवार ले पश्चिम की ओर भाग आता है। केवल लोग क्या कहेंगे, यह सोच उसकी वीरता चकनाचूर हो जाती है। वह सिर्फ लोगों के बारे में सोचता है, साध्वी पत्नी मृणाल के
बारे में नहीं, यह सोच आर्यक स्वयं को
धिक्कारता है। क्लांत आर्यक के सपने में मृणाल उसे अभय देती है। तभी कोई उसे जगाकर छिपने के लिए सचेत करता हुआ आगे दौड़ता है। आर्यक श्यामरूप की
आवाज को पहचान लेता है। पर जब
तक आर्यक उठता श्यामरूप काफी आगे बढ़ चुका था। वही एक झाड़ी में विश्राम करते माढव्य और चंद्रमौली से
आर्यक की भेंट होती है।
मृणाल आर्यक के सेना छोड़ने पर चिंतित थी। पर उसे विश्वास था कि
आर्यक शत्रुभय से नहीं भागा। वह सुमेर काका को अपने उस स्वप्न के
बारे में बताती है
जिसके अनुसार आर्यक मृणाल से प्रकाश की
आशा करते हैं। देवरात और आर्यक का
पता जानने वह विंध्याचल आए सिद्ध से
भेंट की इच्छा भी
प्रकट करती है। चंद्रा मृणाल और शोभन के लिए आती है। वह सुमेर काका को बताती है कि उसका विवाह उसकी इच्छा विरुद्ध मनुष्य रूपी पशु से कराया गया, जो पुरुष है
ही नहीं। चंद्रा आर्यक को अपना पति मानती है। मृणाल का घर वह
अपना घर मानती है
और स्वयं को कुलवधू। शोभन को भी
वह अपना बेटा कह
गले लगाती है, तो मृणाल की दीदी बन
स्वजनों के बीच आने के एहसास करती है।
उज्जयिनी के महाकाल के
दरबार में पहुंच कर
भी देवरात शांति नहीं पा सके। मंदिर के पास चंद्रमौली के गायन से
उसकी और खींचे जाते हैं। चंद्रमौली के
द्वारा ही उन्हें गोपाल आर्यक की खबर मिलती है कि
वह पत्नी वियोग से
म्लान और लोकापवाद के
भय से कुंठित हो
कहीं भटक गए हैं। माढव्य समाचार लाते हैं कि भटार्क गोपाल आर्यक को सेनापति मानते हुए मथुरा भी जीत गया। घबराया उज्जयिनी नरेश पालक गोपाल को बंदी बनाने ढूंढ रहा था। नगर के जीर्ण उद्यान में गोपाल जैसा मनुष्य देखे जाने की
सूचना पर देवरात उसे खोजने निकलते हैं। उज्जयिनी में गोपाल आर्यक की वीरता की
चर्चा शुरू हो चुकी थी। उसका नाम भ्रष्ट हो कभी ग्वालारीक, मथुरा में ल्वारिक या लोरिक चल पड़ा। विदिशा गांव में तो उसकी कीर्ति कथा गायी जाने लगी, उसे महावराह का
अवतार माना जाने लगा।
उज्जयिनी
चारुदत्त जैसे साधु स्वभाव के सेठ राजा के
साले शकटार द्वारा त्रस्त हो रहे थे। वसंतसेना गणिका होकर भी पतिव्रता समान थी,
फिर भी शकटार उसके पीछे था। वसंतसेना के दुत्कार से
शकटार
उसे मरवाने के प्रयास करता है। यह
जानकर भी उज्जयिनी नरेश चुप थे। कला के लिए विशेष आदर के कारण वसंतसेना उज्जयिनी की सामान्य जनता के लिए नगर के तिलक समान पुण्य थी। नगर के एक ब्राह्मण श्रुतिधर जिनकी छोटी सी
पाठशाला थी,
देवरात का परिचय पाते ही
वे
उनके शिष्य श्यामरूप का स्मरण करवाते है, जो
शर्विलक
मल्ल के नाम से कीर्ति पा
रहा है। यह सुन देवरात को आनंद होता है,
पर वे श्यामरूप को ब्राह्मण के गौरव देने के पक्ष में थे। अतः उन्हे इस बात का दुख था कि – ब्राह्मण आचार में दीक्षित करने के
उद्देश्य से क्षिप्तेश्वर की पाठशाला में न भिजवाया होता,
तो न वह नटों की मंडली के साथ भागता, न दुख पाता।
उज्जयिनी
में पालक तो
मथुरा में उसी का
सौतेला भाई उप्यवदात राज्य करते थे। दोनों भाइयों में परस्पर विश्वास प्रेम था, पर साधारण जनता इन्हें म्लेछ समझ असंतुष्ट रहती। राजा और प्रजा के धार्मिक, सामाजिक आदर्शों में विरोध था। इनके सैनिक प्रजा के धार्मिक विश्वासों का तिरस्कार करते। केवल चंद्रसेन द्वारा प्रजा की भावनाओं का आदर करने के कारण उनके प्रति जनता में श्रद्धा थी। मथुरा के विप्लव को देख चंदसेन अपने परिवार को शार्विलक के साथ भेज उज्जयिनी के एक जीर्ण उद्यान में उनकी व्यवस्था करते है। बुद्ध उपासना पद्धति में दीक्षित चंद्रसेन की
पत्नी नित्य नियमानुसार श्रमण साधुओं को यथेष्ट दान न देने के कारण दुखी थी। अत: वह दान सामग्री को बौद्ध विहार पहुंचाने के लिए शार्विलक को देती है।
विहार से लौटने में शार्विलक को काफी देर होती है। तभी एक गली में वह किसी ब्राह्मण को दंडधरों से
पीटते देखता है। आर्य चारुदत्त दरिद्र हो चुके थे और दंडधर उनके घर में घुसकर किसी स्त्री को
जबरदस्ती उठाने की कोशिश कर रहे हैं। यह भूल कि वह
छिप कर उज्जयिनी में रह
रहा था आवेश में आकर शार्विलक अपना परिचय देता है और उसका नाम सुन दंडधर भाग जाते हैं। जिस स्त्री को दंडधर उठाने की कोशिश कर
रहे थे वह दासी मदनिका और कोई नहीं मांदी थी, जिसे वसंतसेना ने 500 स्वर्ण मुद्रा में खरीदा था। मांदी चारुदत्त के लिए वसंतसेना का कोई संदेश लेकर आई थी। मांदी को मुक्त करने
शार्विलक एक सप्ताह का समय मांग निकलता है। दंडधर उसे पकड़ने पीछे दौड़ते हैं, तो प्राण बचा मांदी को पाने हेतु शार्विलक केवल भागता रहता है। काफी भागने के बाद वह एक मंदिर के पास पहुंचता है,जहां मंदिर में रहने वाले वृद्ध के द्वारा शार्विलक को एक तलवार मिलती है।
हलद्वीप
में आर्यक राजपद पर तो लिच्छवि राजकुमार पुरंदर अमात्य पद पर। आर्यक के पश्चयात सब
संभाल रहे पुरंदर स्वयं को केवल व्यवस्थापक और मृणाल को
रानी का सम्मान देते। मात्र हलद्वीप के लोग चंद्रा को चरित्रहीन मानते। उसके पति श्रीचंद्र ने अवसर देख पुरंदर के दरबार में मुकदमा खड़ा किया ताकि चंद्रा को दंड मिले और आर्यक की
कुत्सा
हो। किंतु मृणाल इस
मामले में चौथे व्यक्ति या राज्य का हस्तक्षेप नहीं चाहती थी।
निष्पक्षता, धर्म प्रेम के लिए प्रसिद्ध कांति पुरी के धर्मशास्त्रज्ञ आचार्य पूरगोभिल को चंद्रा से जुड़े मुकदमे के
लिए पुरंदर बुलवाते हैं। तत्पूर्व सुमेर काका अपना अभियोग सुनाते हुए स्पष्ट कहते हैं कि श्रीचंद्र में पुरुषत्व नहीं और चंद्रा के
साथ उसका विवाह की
धर्मसम्मत नहीं। चंद्रा के
इच्छा के विरुद्ध करवाया गया यह विवाह सुमेर काका सामाजिक बलात्कार मानते हैं। न्याय, धर्म के लिए पूरगोभिल के विचार स्पष्ट थे
–‘धर्म के दृष्टि से
अनुचित कार्य करने वाला दंडनीय है, चाहे वह
राजा हो या सामान्य जन। धर्म की
दृष्टि में गोपाल आर्यक हो या चंद्रा हो भी अनुचित आचरण करता है तो
उसे दंड भोगना ही
पड़ेगा। धर्मत: राजा या महाराजाधिराज अकेले में बैठकर कोई निर्णय नहीं ले सकते। यदि सम्राट ने प्रांङ्गविवाक, मंत्री, पुरोहित और धर्मशास्त्रियों से परामर्श किए बिना कोई निर्णय लिया है,
तो उसका मूल्य नहीं है,
वह निरर्थक है।‘ पूरगोभिल अपना मत
रखते हुए सुझाव देते हैं कि चंद्रा के विवाह की
परिस्थितियां धर्म सम्मत है
या नहीं,
इसकी जांच करें तथा मथुरा-उज्जयिनी की विद्वान सभा के नए
निर्णय को प्राप्त करें। इस हेतु वे
सुमेर काका को उज्जयिनी जाने की राजआज्ञा देते हैं।
मैना के दुख के कारण चंद्रा में पहले कुंठा थी। पर मैना के
आर्यक को क्षमा करने पर चंद्रा की
कुंठा समाप्त हो वह आर्यक को पुनः मैना को सौंपने का संकल्प करती है। मैना के
लिए चंद्रा का प्रेम सती का प्रेम था। चंद्रा मैना को आर्यक के
प्रसंग बताती है जिसके अनुसार आर्यक ने मैना के लिए खुद के चरित्र को
अबाधित रखता था। चंद्रा की मां भी मृणाल की
मां की तरह महामारी में समाप्त हो
गई
थी। किन्तु उन्मार्गगामिनी माता के कारण चंद्रा का पालन वासना भरे वातावरण में हुआ था। पर आर्यक के प्रति प्रेम ने
उसके उन्माद को काबू में रखा। आर्यक को
पाने चंद्रा उसे कई
उद्दाम
वासना भरे पत्र लिखती है, जिनके बारे में जानकर, उन्हें पढ़कर भी मैना के ह्रदय में द्वेष न था, बावजूद वह
चंद्रा को घर में स्थान देती है। जब चंद्रा के
पत्र आर्यक को अनुताप से भरते। फिर भी
चंद्रा के प्रेम को
जानते हुए मैना उसे साथ रखने के लिए कहती। मैना आर्यक और चंद्रा के प्रेम में स्वयं को बाधक मानती।
अनेक मनुष्य को पढ़ चुकी चंद्रा के
अनुभव भी नाना थे। वह अनेक भंड, साधुओं से मिली जिन्हें घायल करने के
लिए कटक बाण की
भी आवश्यकता नहीं थी, स्त्री के शरीर की
गंध ही काफी थी।
सिद्ध बाबा का आश्रम ढूंढते विंध्याटवी के
गहन निर्जन प्रदेश में चंद्रा और सुमेर काका आते हैं। बाबा चंद्रा को
भुवनमोहिनी त्रिपुर सुंदरी के
नाम से पुकारते हैं और स्वयं को
उसका पुत्र। बाबा चंद्रा की स्थिति को
स्पष्ट करते हैं जिसके अनुसार उसका शरीर सौभाग्य की तो
मन वात्सल्य की खोज में है। बाबा मृणाल को ललितारूपा जगत सूत्रधारिणी कहता है। चंद्रा को
वह मोह छोड़ने कहता है। पाने की
लालसा त्यागने कहता है, क्योंकि उसके अनुसार अपने लिए बटोरने से
ही मनुष्य का जीवन स्मशान बनता है। चंद्रा संज्ञा शून्य हो बाबा के
चरणों पर लुढ़क गई। उसे प्रतीत होता है कि उसके सारे पाप जल
रहे हैं। वह श्लथ आर्यक को देखती है जो मृणाल को देखना चाहता है। पर चंद्रा दोनों के बीच अवरोध बनी है। वहां से जाते समय बाबा चंद्रा को कहते हैं कि वह पतिव्रताओ की मुकुट मणि बनेगी, मृणाल सतियों का
आदर्श।
उज्जयिनी में आर्यक की
कीर्ति-अपकीर्ति दोनों पहुंच चुकी थी। लोग उसके भव्य रूप को
देख उसे पहचान लेते। अतः आर्यक नगर के किसी उजाड़ बगीचे में छिपने का प्रयत्न करता है। महाकाल के
दर्शन के लिए जब
आर्यक मंदिर जाता है
उसे ऐसे जान पड़ता है मानो कोई उसे खींच रहा है। वह मंदिर के भीतर-बाहर आता है। अंत में संकल्प कर वह
मंदिर के बाहर तो
निकलता है पर उसकी संकल्प शक्ति की
दृढ़ता का अभिमान अधिक देर नहीं टिकता। मानों कोई उसे पुनः खींचता हो
और वह मंदिर द्वार पर आता है, जहां आर्यक की दृष्टि चबूतरे पर बैठी एक सन्यासिनी की
ओर जाती है। सन्यासिनी मानो आर्यक की
स्थिति समझ चुकी है। वह स्वयं पिछले पांच वर्षों से
वहां से जाना चाहती थी। पर महाकाल उसे रोके हुए थे। सन्यासिनी ने 20 वर्ष मथुरा में कृष्ण के दरबार में बिताए थे। उसके लिए कृष्ण प्रिया तो महादेव पिता थे। इतने वर्षों में वह अपना स्व - भाव जान न पाई महाभाव की
अभिलाषिनी वह संन्यासिनी वसंतसेना को महानुभवा कहती है। गणिका वसंतसेना कला मर्मज्ञ चारुदत्त जैसे सत्पुरुष को
पाने के लिए उन्मादिनी हो उठी। चारूदत्त के लिए धर्मसंकट था, क्योंकि उसकी पत्नी धूता सती-साध्वी स्त्री थी। उसे चारूदत्त दुखी नहीं करना चाहते थे। वह
संन्यासिनी आर्यक को चारुदत्त से मिलने का
आदेश देती है। संन्यासिनी महादेव की पुत्री मंजूलोमा की कहानी भी बताती है, जो मानव कन्या थी, पर पार्वती महादेव ने
उसे प्यार से पाला था। विवाह के
उपरांत विदाई के समय महादेव को व्यथा हुई। एक और
पति के घर जाने को व्याकुल थी
तो दूसरी और पिता की ममता भी
नहीं छोड़ पा रही थी। परिणामतः उसकी मृत्यु हो गई। पुत्री के वियोग से संतप्त महादेव ने मंदिर के
रक्षकों को पुत्री की
विदाई का नृत्य देखने की इच्छा प्रकट की। वसंतसेना जिसने अब तक स्वामिनी भाव से नृत्य किया, उसे पिता पुत्री भाव की पहचान न होने के
कारण उस संन्यासीनी द्वारा उसे सिखाया जाता है। वसंतसेना के
नृत्य ने उस दिन कमाल कर दिया। संन्यासिनी धूता में मातृत्व भाव देखती है, वसंतसेना में पुत्री भाव आ चुका था। वसंतसेना के
बारे में जानकर धूता ने अपने पति को प्रसन्न रखने के लिए वसंतसेना को बुलाया। उसे प्रेम से वश
किया। उस संन्यासिनी को
देख आर्यक के मन
में हलद्वीप की नगरश्री, अपनी सास मंजुला देवी का ख्याल आता है।
आर्यक के स्वागत के
लिए चारूदत्त पहले ही
तैयार था। पर राजा पालक ने चारुदत्त व आर्यक को
मार डालने का आदेश दिया था। जिस कारण वे सभी अज्ञात स्थान की
ओर निकलते हैं। राजभवन के सामने जब
उनकी गाड़ी जाती है
तब आर्यक के उत्तेजित स्वर को सुन दंडधर को संदेह होता है। जानकर भी कि गाड़ी में चारुदत्त की
पत्नी धूता है, एक सैनिक धृष्टता करते हुए गाड़ी का पर्दा हटाने की कोशिश करता है। चारूदत्त के परिवार की
प्रतिष्ठा और मर्यादा पर
आंच ना आने पावे, इसलिए दूसरा सैनिक उसे ऐसा करने से
मना करता हैं कि
पालक की सवारी आती है और वह
धुता को कारावास में डालने की आज्ञा देता है। तभी नंगी तलवार ले
गाड़ी से आर्यक निकलता है और वहां खड़े सैनिकों को
चीर वह पालक का
सिर धड़ से अलग करता है। सेना को ललकारना के
साथ उसके साथ रहने वाले सैनिकों को
पदम वृद्धि पुरस्कार की
घोषणा भी करता है।पालक की सेना जो
अधिकांश भाड़े पर संग्रह की गई थी, इस घोषणा को सुन आर्यक के साथ हो जाती है। बिना विलंब आर्यक का राजसिंहासननारोहण होता है। पर आर्यक स्पष्ट करता है
कि वह केवल व्यवस्था को संभालने के
लिए राजपद ग्रहण किए हैं, जब तक कि
पाटलिपुत्र सम्राट का कोई आदेश ना आ जाए। साथ ही वह
आदेश देता है कि
राजभवन के किसी भी
महिला का असम्मान ना
हो,
नगर के दुखी सताए लोगों को आर्यक अपनी रक्षा में लेता है, विश्वस्त सैनिकों की पद मर्यादा में वृद्धि होती है। किंतु धूता के अपमान संबंधी के अफवाह फैलती है, नगर में आग
लगाई जाती है। धूता को इस बात से कष्ट होता है कि उनका अतिथि आर्यक का
सत्कार भी ना हो
पाया उल्टा उसे संकट से जूझना पड़ा। जिम्मेदारी निभाते हुए धूता आर्यक के
खाने की व्यवस्था करती है। धूता में उसे माता का
वात्सल्य दिखाई देता है, साथ ही चंद्रा के
सहज मातृत्व का स्मरण होता है।
मांदी का उद्धार करने और उसे पत्नी रूप में वरण करने के उद्देश्य से श्यामरूप उज्जयिनी लौट पड़ता है। श्यामरूप के चित्त में विश्वास का
कल्पतरु निकलता है। उज्जयिनी के निकट आनेपर मथुरा पर गोपाल आर्यक की सेना के अधिकार की
उसे खबर मिलती है। उज्जयिनी की और
आते चंडसेन को राजा का साला भानुदत्त कैद कर लेता है, शार्विलक पर चोरी का आरोप लगाया जाता है, वसंतसेना की
हत्या की खबरें उड़ती है। शार्विलक किसी तरह वसंतसेना के
आवास आता है। उसका नाम सुनते ही
वहां के दंडधर पीछे हटते हैं। उस
आवास के एक कक्ष में वसंतसेना और
मांदी को खंभे से
कसकर बांधा गया था। संभवतः मांदी ने
काफी प्रतिरोध किया था। दुष्टों ने उसे मारा भी बहुत था। आचार्य श्रुतिधर इन दोनों की
चिकित्सा में लग जाते हैं। कुछ देर बाद आर्यक द्वारा पालक संहार व भानुदत्त को बंदी बनाने का समाचार आता है। राजभवन के
बाहर पालक के सैनिकों के प्रतिरोध को शार्विलक विफल कर
नगर में शांति स्थापित करने का दायित्व नागरिकों पर डालता है।
देवरात चंद्रमौली को आर्यक का गुरु बताते हैं, पर आवेग में जब अपने यौध्देय होने के
बाद करते हैं तब
चंद्रमौली भी रहस्य का
उद्घाटन करते हैं कि
वह शर्मिष्ठा की बहन सुनीता का बेटा है। परंपरा आबद्ध देवरात चंद्रमौली को
ब्राह्मण समझ चंद्रमौली के
उसके चरण पकड़ने को
इसलिए गलत मानता है
कि उनका शरीर क्षत्रिय का है और
ब्राह्मण कुमार के चरणों पर गिरने से
उन्हें नरक में भी
स्थान नहीं मिलेगा।- पृष्ठ 195 तभी कुछ सशस्त्र सैनिक उन तीनों को
दबोच कर किसी घर
में उन्हें बंदी अवस्था में ठूंस देते हैं। बड़े परिश्रम के बाद घर
के जलने से पहले सभी वहां से
बचकर निकलते हैं। देवरात लोगों को ललकारते हुए आग बुझाने सहायता करते है।
समुद्रगुप्त पदभ्रांत मित्रों को
प्रमादों से सावधान करना भी सम्राट का
कर्तव्य मानते हैं। चंद्रा का वास्तव जान आर्यक को वे बंधुभाव भरा पत्र लिखते हैं। समुद्रगुप्त भारत वर्ष को एक अखंड शासन सूत्र में बांध विदेशियों को
ध्वस्त करना चाहता था। समुद्रगुप्त वीरों का सम्मान करना जानता था। देश में दृढ चरित्र व्यक्तियों का प्राधान्य स्थापित करना चाहता था। अपने साथ वह
दूसरों से भी गृहस्थ जीवन जीने की
आशा रखते। आर्यक के
चरित्र में शैथिल्य देख वह क्षुब्ध होते हैं कि देश के मूर्धन्य लोक स्वैराचार में लिप्त हो तो साधारण प्रजा को कैसे ऐसे आचरण से
दूर रखा जाए।
मृणाल चंद्रा और सुमेर काका के साथ उज्जयिनी आ रही है यह जान सम्राट उनकी रक्षा हेतु छिपकर सेना भिजवाता है। विंध्याटवी से गुजरते हुए मृणाल बाबा के
दर्शन को व्याकुल हो
उठती है। नदी में बहती नाव के
मार्ग में रुकावट से
मृणाल वहां के पर्वतीय भूमि पर उतरती है,जहां उसे बाबा के दर्शन होते हैं, जो उन्हें मथुरा से आगे न बढ़ने के लिए कहते हैं। बाबा आर्यक के हाथ चंद्रा का हाथ, बाबा का
प्रसाद देने की जिम्मेदारी भी डालते हैं। बाबा की इस
बात पर चंद्रा और
मृणाल दोनों सोच में पड़ती है।
उज्जयिनी में शार्विलक की युद्ध स्फूर्ति देवरात स्वयं देखते हैं। अवसर पाकर भी वह
नर हत्या नहीं कर
रहा था। आर्यक का
पराक्रम देख देवरात तृप्त होते हैं। पर
आर्यक के लिए उनके मन में धिक्कार भाव जागृत होता है। उन्हें प्रतीत होता है कि
मंजुला उनके सामने प्रकट मथुरा चल महाभाव में रमन करने कहती है।
गांववालों के प्रतिरोध के
कारण उज्जयिनी के कुछ दूर पहले ही
भटार्क को रुकना पड़ता है। सम्राट का
आदेश था, चाहे कुछ भी
हो प्रजा का उत्पीड़न ना हो। भानुदत्त के सेवक भटार्क के द्वारा चंडसेन को बंदी बना पाटलिपुत्र भेजने का प्रचार करते हुए गांव जला, स्त्रियों बच्चों पर अत्याचार करते है। किंतु कर्तव्य परायण स्वामी भक्त सैनिक भटार्क जब
अपने सैनिकों का एवं प्रजा का प्रतिरोध पाता है तो
अभियान रोक ग्राम जनों के अभियोग सुनता है, उन्हें आश्वासन देता है कि उनकी जीवनचर्या में कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।
अपने अन्नदाता को सुरक्षित स्थान पर ले
जाना कर्तव्य मान शार्विलक भानुदत्त को पकड़ अर्धमृत चंडसेन का
पता लगाते हैं और
उन्हें मुक्त करते हैं। विशाल सेना को देख जब
प्रजा व्याकुल होती है, तो अपने अन्नदाता के
प्राण और व्याकुल लोगों को धाड़स बधाने का कर्तव्य शार्विलक पर आता है। अन्नदाता से अधिक जन महत्वपूर्ण मान वह प्रजा को
रक्षा का अहम मानता है। भटार्क की
सेना जान शार्विलक आश्वस्त हो जाते हैं। भानुदत्त को पकड़ चारुदत्त की देखरेख में छोड़ा जाता है। भटार्क अभियान में प्रभावशाली राज्य को जीतने विनीत भाषा पहला अस्त्र, दूसरा प्रलोभन, तीसरा कठोर दंड की धमकी का प्रयोग करता। भटार्क समुद्रगुप्त का लक्ष्य अधर्माचरण करने वाले का उच्छेद, धर्म के
अनुकूल आचरण करने वालों की मैत्री बताता है। उसके अनुसार सम्राट ने किसी राज्यवंश का उच्छेत नहीं किया, धर्म सम्मत आचरण की शर्त पर उनकी स्वाधीनता लौटाई है। इस
पर चंडसेन गोपाल आर्यक से मिलने को
तैयार होते हैं।
माढव्य
-चंद्रमौली देवरात का अनुसरण करने का असफल प्रयास करते हैं। चंद्रमौली के अचेतन हो जाने पर
भिल्ल जाति के गाय चराने वाले कुछ लड़के उनकी सहायता करते हैं। बालक पत्तों के दोने में दूध पानी ला चंद्रमौली को
देते हैं। यह देख चंद्रमौली द्रवित होते हैं। एक शिलाखंड के पास गाय एक-एक करती थनों से
दो-चार बूंद दूध गिराती। जिस पर आश्चर्य प्रकट करने पर
बालक बताते हैं कि
वही महाकाल का पुराना स्थान था, जहां से
उन्हें उज्जयिनी ले जाया गया। वह बालक बताते हैं कि
वास्तव में महाकाल उनके मूल देवता है। चंद्रमौली महाकाल से नारीघाती, शिशुघाती, बीभत्स व्यवस्था का ध्वंस और
भिरुता,
कायरता का नाश चाहता है,जिसने तनकर खड़ा होने की भावना ही समाप्त कर
दी।
आर्यक के कारण धूता के मन में वात्सल्य भाव जागृत हो चुका था। नगर में आग
लगने की खबर सुन वसंतसेना के प्रति वह चिंता व्यक्त करती है। देवरात आर्यक के गुरु है यह जान चारूदत्त उनकी खोज प्रारंभ करता है। आर्यक की अपकीर्ति पर कैसे प्रतिक्रिया देंगे, यह सोच आर्यक चिंतित हो जाता है। आर्यक के
मुख के विषाद को
देख धूता बुरी तरह डरती है। धूता के वात्सल्य,सहानुभूति को
देख आर्यक उसे सब
बताता है। धूना को
यह सब दिव्य ज्योति के रूप में आई मंजूलोमा बता चुकी थी। मंजूलोमा, जो केवल भावरूप है। कुछ वासनाएं शेष रहने के कारण वह
संपूर्ण रूप से मुक्त न हो पाई।
बटेश्वर महादेव के चरणों में व्यथा निवेदन करने मृणाल नाव रोकती है। मृणाल स्वयं को, अपनी प्रार्थी वस्तु को भूल समाधि में खो
गई। उसे देख शिव की करुणा का
आभास पा एक सुगठित दर्शनार्थी अभिभूत हो मृणाल को प्रणाम करता है। युवक द्वारा पूछने पर
सुमेर काका उसका परिचय देते हैं। काका चंद्रा को सामाजिक रूढ़ियों का शिकार मानते हुए प्रकट करते हैं कि
चंद्रा आर्यक को अपना पति मान चुकी थी और आर्यक की मौन स्वीकृति उसे प्राप्त हुई थी।
समुद्रगुप्त वेष बदल प्रजा से
बात करता। इसी अंतर्गत साधारण वेष ग्रहण कर वह चंद्रा, मृणाल, आर्यक के बारे में तथ्य ग्रहण करता। सत्य जानने पर
समुद्रगुप्त चंद्रा को निर्लज्ज कहता है। चंद्रा भी सम्राट को
उपेक्षा की दृष्टि से
देखती है। जिसका परिणाम प्रस्तुत था। समाधि में मृणाल शिव को समाधिस्थ देख आर्यक व देवरात के दो दिन में वापस आने की बात कहती हैं। समुद्रगुप्त का निर्णय 'बहुजन सुखाय, बहुजन हिताय' वाला था। मृणाल जैसी सती-साध्वी को अपने कारण दुखी पा
समुद्रगुप्त व्यथित होता है। क्योंकि उसे यह
विश्वास था कि किसी देश की सभ्यता और धर्माचार की
कसौटी उस देश की
स्त्रियों का सम्मान और
निश्चिंतता होता है। अतः उसकी प्रतिज्ञा थी
कि वह देश की
बहू बेटियों के मान-सम्मान की रक्षा करेगा।
मृणाल
को हो रहे कष्ट से समुद्रगुप्त का चित्त उत्शिप्त हो
रहा था। मृणाल सारे देश की शुचिता, पवित्रता का रूप बन गई। चंन्द्रा की सच्चाई, सरलता, तेजस्विता को निर्लज्जता मानने की गलती भी वह स्वीकार करता है। मृणाल की एक
झलक पाने सम्राट कई
दिनों से उसके नाव का पीछा कर
रहा था। चंद्रा अपने निश्चल भाव से कलुष
धो, सेवा का रूप धर प्रत्यक्ष उपस्थिति थी।आर्यक समुद्रगुप्त का केलि-सखा था।
अतः वे मित्रघात नहीं चाहते थे । भटार्क
के द्वारा समुद्रगुप्त को उज्जयिनी पर अधिकार का समाचार मिलता है। अतः सेनापति धनंजय को वह जिम्मेदारी सौंपता है कि सम्राट के
उज्जयिनी आने का समाचार सुन वहां से
भागने की कोशिश करने वाले आर्यक को
वह रोककर सम्राट की
अपने
सखा के लिए व्याकुलता स्पष्ट करें ।
बटेश्वर
तीर्थ के पास मृणाल के साथ वाली नाव का युवक संकट की
संभावना देख सुमेर काका को अपना परिचय देते हैं, साथ ही
चंद्रा का आर्यक के प्रति अनुराग भी स्पष्ट करते हैं। हलद्वीप में दुष्टों द्वारा आग लगाने पर आर्यक जब एक बच्चे और
उसकी मां को बचाने में रत था, तब
उस पर प्रहार होता है। आर्यक के सिर में चोट आती है, जलते घर का द्वार उस पर गिर पड़ता है। तब चंद्रा आंधी की तरह आती है और
जैसे माता किसी अबोध शिशु को उठाती है, वैसे ही आर्यक जैसे गबरु जवान को उठा आग से दूर ले जाती है। रक्त की धारा देख चंद्रा अपनी लगभग पूरी साड़ी ही फाड़ देती है। चंद्रा की सेवा और उसका उत्कट प्रेम देख उसे प्यार करने में भी आर्यक लजाता है। चंद्रा के साहस-सेवा की बात सुन मृणाल की आंखों में आंसू आते है। आर्यक के विजय का
समाचार सुन चंद्रा भी उन्मत होती है और इसे मैना के पातिव्रत धर्म की विषय मानती हैं। चन्द्रा को भाभी कहने वाला देवर मिलने से वह भी विगलित
होती है।
बहुत वर्षों बाद भेंट होने पर शार्विलक आर्यक को हलद्वीप पहुंचने का आदेश दे वहां से
निकलता है। चंद्रा के
आत्मीयता की अवहेलना से अपने आप को पाप का भागी मान आर्यक सत्य का सामना करने से डरता है। वहीं उज्जयिनी आ रहे सम्राट के सामने प्रस्तुत होने की उलझन आर्यक के
सामने थी। धूता भाभी उसे समझाती है
कि ‘दोष हो या गुण उसे छुपाओ मत। वे प्रिय कहे या
अप्रिय, वाणी का और शिष्टाचार का संयम न छोड़ना’। वह मृणाल को
भी सच्चाई, विश्वास, विनय,शील के साथ मिलने कहती है। धूता द्वारा समस्याओं का समाधान होने पर आर्यक को जीवन जीने योग्य जान पड़ता है। धूता को गुरु मान उसे समझ आता है कि अपने आप
को छुपाना सारे अनर्थों की जड़ है। बिना कुछ कहे एक-दूसरे से देर तक
लिपटने
के बाद समुद्रगुप्ता आर्यक को बटेश्वर तीर्थ जाने कहता है। चंद्रमौली आर्यक को आश्वासन देता है
कि वह आर्य देवरात के भ्रम को दूर करेगा। चंद्रमौली समुद्रगुप्त की आत्मीयता अनुभव को
देख अपना अतीत उनके सामने उजागर करता है।
आर्यक उज्जयिनी से मथुरा के लिए चल
पड़ा, यह
सुन
सभी बटेश्वर मंदिर में प्रतीक्षा करने रुकते हैं। इस समाचार से चंद्रा उदास तो मृणाल उत्फुल्ल होती है। चंद्रा को भय था कि
कहीं आर्यक उसे देख भाग न जाए। मां के रूप में वह बाबा को
पुकारती है,
मन में बाबा को
देखती है,
उससे बतयाती है। बाबा सेवा को भगवंत को
पाने का साधन मानते हैं। “
नारी माता होकर इस साधना का अनायास अवसर पाती है।“ वे चंद्रा को प्रेम को माध्यम बना विश्वात्मा को प्राप्त करने कहते हैं। इस हेतू इच्छाशक्ति क्रियाशक्ति का मेल बिठाने कहते हैं।
चन्द्रा
आर्यक-मृणाल का सुख चाहती थी। मृणाल का
आर्यक
को ‘आप’, ‘वे’, ‘उनसे’ कह
आदरार्थक
सर्वनाम लेना उसे बच्चों की तोतली बोली समान प्रिय लगता, मात्र इन शब्दों को वह निरर्थक,भांड मान स्वयं को चरणों में उड़ेलने में असमर्थ जानती है। बाबा उसे समझाते हैं कि चरणों में लौटना ही आत्मदान नहीं, इसका मतलब है
अपने आप को, अहंकार, अभिमान को
उलीच देना,
नीचे की ओर झुकना। बाबा अंगूठे से
चंद्रा की ग्रीवा दबाते हैं,
तो वेदना से चीखती चंद्रा बाद में शांति का
अनुभव कर प्रतीत करती है कि उसके ह्रदय द्वार की जटिल ग्रंथियां खुल रही है। चंद्रा वही बाबा के चरणों पर लुढ़क जाती है।
इधर मृणाल आर्यक के
शुभागमन की कल्पना करती है।पर चंद्रा का आर्यक पर प्रथम अधिकार मान, उसे आदरणीय
मान, उसकी उपेक्षा न हो इसलिए वह प्रार्थना करती है कि आर्यक प्रथम चंद्रा से मिले। किन्तु
चन्द्र को न पा मृणाल,काका,सोमेश्वर के साथी चन्द्रा की खोज
करते है। सोमेश्वर चन्द्रा को सघन कुंज में संज्ञाशून्य अवस्था में देख, सबको बुलाता है। इस भागमभाग में आर्यक भी वहां पहुंचता है। मृणाल चंद्रा को आर्यक की
गोद में डालती है। जब शोभन अपनी ‘बड़ी अम्मा’ को पुकारता है,
तो मंत्र प्रभाव-सी चंद्रा धड़पढ़ाकर उठ शोभन को गोद ले
चूमती
है। मृणाल उसके पैर दबा रही थी। आर्य को निकट पा वह उसके चरणों में गिर अपने अभिमान को त्यागती है। अंत में मृणाल के कंधे पर सिर रख आर्यक का हाथ पकड़ वे
पटवा में आते हैं।
धन्यवाद
जवाब देंहटाएं