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राजस्थानी लोकगीतों के रंग -यादवेंद्र शर्मा ’चंद्र’ के उपन्यासों के संदर्भ में

'लोक’ मनुष्य की सभ्यता के विकास के साथ उसकी वैज्ञानिक प्रगति का साक्षी रहा है। संस्कृत अवधारणा के अनुसार लोक की परिधि में समस्त जनसमुदाय आता है। पर ’लोक’ के आधिकारिक अध्येता डॉ.सत्येंद्र लोक को अभिजात्य संस्कारों से हीन मानते है। तो कई भारतीय विद्वान सभ्यता को लोक का आधार बनाते है। लोक की संज्ञा कभी सामाजिकता के साथ जुडती गई, तो कभी जातीयता से, कभी भौगोलिकता से। लोक हमारी इसी सुदीर्घ परंपरा को दर्शाता है। इसी आधार पर कलाएं फलती-फूलती है। इसी लोक को लोकगीत, लोककथा, लोकनाट्य,लोकनृत्य, उत्सव-पर्वों में देखा जा सकता है, जो विशिष्टजन का नहीं, सामान्य जनों का विशिष्ट साहित्य है।
परिवेश को अधिक सघन,उर्जस्वयी बनाने और स्थानीय रंग को अधिक निखारने में लोकगीत सहायक सिद्ध होते है। राजस्थान में लोकगीतों की प्रदीर्घ परंपरा रही है। यादवेंद्र शर्मा ’चंद्र’ हिंदी साहित्य जगत के प्रभावशाली रचनाकार रह चुके है। उनके साहित्य में राजस्थानी संस्कृति और परंपरा के विविध रंगों को देखा जा सकता है। उनके कई उपन्यासों में लोकगीतों की मनभावन छवि है।
विवाह संस्कार भारतीय समाजव्यवस्था का और लोकगीतों का महत्वपूर्ण अंग है। विवाह के अवसर पर ढोलिनों द्वारा गाया गया बधावा गीत उपन्यास के परिवेश को जीवित करता है -
''गढ़ रणथंबोर से पधारे विनायक जी 
आय विराजे सुजानगढ़ री छांव तले
कोई प्रोल बताए ठाकुरसावाली
पूछते-पूछते गाँव पधारे
ऊँची हवेली,चाँदी के किवाड़
जहाँ हर्ष उमड़ता ठाकुर के द्वार।’’ 
चंद्र जी के उपन्यास के छोटे बच्चे भी गुड्डे-गुड्डी के ब्याह में फेरों के गीत गाते है -
 ''पहलो तो फेरो ए लाड़ी बाबा सा री प्यारी,
दूजो तो फेरो ए लाड़ी दादा सा री प्यारी,
तीजो तो फेरो ए लाड़ी काकी सा री प्यारी,
चौथो तो फेरो ए लाड़ी बीरा जी री प्यारी,
पाँचवों तो फेरो ए लाड़ी मामा सा री प्यारी,
छठा तो फेरो ए लाड़ी मासा जी री प्यारी,
सातवाँ तो फेरो ए लाड़ी हुई छै पराई।’’ 
'मरुकेसरी‘ उपन्यास में विदाई का यह गीत -
 ''म्हैं थां नै पूछो म्हारी धीवड़ी / म्हैं थां नै पूछो म्हारी बालकी
इतरौ बाबै जी रो लाड़ /छोड़र बाई सिध चाल्या’’
’मैं रानी सुप्यारदे’ उपन्यास में वर्णित अन्य एक विदाई गीत -
''कोयल ऐ कोयल बैरन पिऊ-पिऊ बोल,चढ़ती बाई ने ये सबद सुणावजे,
डूंगर रे डूंगर राजा नीचो सो झुक जाय,जावती बाई री दीखे रंग री चूनड़ी’’ 
जब लड़की की डोली रवाना होती है,तब गाया जानेवाल लोकगीत -
''हो जी गोरी रा लश्करिया / घड़ी दोय लश्कर थामो जी ढोला
पलक दोय लश्कर थामो जी ढोला’’ 
लोककथा पर आधारित उपन्यास 'धरती की पीर’ में ढोलन द्वारा गाया गया विदाई गीत -
''सुण रे भायली,छोड़ रे म्हांने
चाली रे अकेली,चाली रे अकेली,सुण रे भायली
बालपणे री बात्या बिसारे रूपे जेड़ी तू रात्यां बिसारे गुड्डा-अर गुड्डी,
लुक-मिचणी हिवड़े सू तू कियाँ निसारे सुण रे भायली’’ 
इन उपन्यासों के कुछ गीत वहाँ के प्रदेशों की झाँकी दिखाते है -
''बोलो लागै जी म्हांनै/जोधाणै रो देस
ऊँचा-ऊँचा डुंगरा/हरिया भरिया खेत,/कित्ती चोखी सुहावणी
म्हारी सोनलिया री रेत/म्हांनै बालो लागै जी
बालो लागै जी म्हांने/जोधाणै रो देस’’ 
'मरुकेसरी’ उपन्यास में वीर दुर्गादास राठौड की प्रशंसा में चारणों द्वारा लिखित गीत उद्धृत किया है -
''मनहर पाँच हजार रो, आधो मरुधर देस,
म्हाराजा पदवी महर, देख सुवारथ दुरगेश।
धन बिन जीवन धूड़ है, प्रभूता बिन धन पांण,
झुगां-जुगां सू जोयले,धींगड़ है धनवान।’’ 
परदेस जा रहे पति से पत्नी ओढनी मंगवाती है। पर लोकलाज के चलते दोनों एक-दूसरे का नाम नहीं ले सकते। अतः संबोधन के लिए अन्य शब्दों का आधार ले उनके संवादों को प्रस्तुत किया गया है - 
''मिजाजी ढोला, जयपुर जाइज्यो जी/जयपुर से लाइज्यौ,रेशम री चूनडी 
जयपुर से लाइज्यौ,तारा री चूनडी/बाई-सा री भावज भॉंत बातइज्यौ री
किस्या रंग री तारा री चूनडी/बाई-सा रा बीरा, हरा हरा पल्ला जी
कसूंबल रंग री, रेशम की चूनडी’’ 
लोकगीत मौखिक परंपरा से चले आ रहे लोकभाषा में निर्मित गीत है, जिनमें जनसामान्य की भावना-संवेदना अभिव्यक्त हुई है, जो मनोरंजन, प्रभाव से पूर्ण और मार्मिक भी है। पति के अपने से दूर जाने पर विरह में नायिका की व्यथा और वेदना लोकगीतों के स्पर्श से जीवंत हो उठती है। मृत पति की याद में गानेवाली बीजकी,जब राजस्थानी माँड़ गाती है, तब उसके भाव अधिक मुखर होते है-
''केसरिया बालम आवोंनी,पधारो म्हारे देस,
आवण-जावण कै गए,करि गए कवल अनेक,
गिणता गिनत धिस गई,म्हांरे आंगल्या री रेख
बादीला बालम आवोंनी,पधारो म्हाण रे देस’’ 
कौआ कुरुप होते हुए भी विरहणियों के लिए प्रिय के आगमन का संदेश लाता है। नायक के कई दिनों बाद घर लौटने पर उस परिवार की सांसण बधाई देते हुए छमछम नाचकर गाने लगती है-
''उड उड रे म्हांरा काला कागला/ जद म्हांरो पीवजी घर आवै .... जद...
खीर खांड रो जिमण जिमावूं/ सोने में चोंच मढाउं कागा .... जद म्हांरो... ''
कौए की तरह पपैया भी इन विरहिणों की भावना को व्यक्त करता है - 
''भॅंवर म्हांरै बागां आवो जी/ बागां फिरुं अकेली, पपैयो बोल्यो जी ...
सुंदर गोरी किण विध आवां जी/ म्हांरी परणी करै लडाई, पपैया बोल्यो जी ’’ 
 कहीं पर नायिका की भावनाओं को भी काव्य के माध्यम से उभारा गया है -
''मधुबन रो अे आंबों मोरियो / ओ तो पसरयो अे सगली मारवाड़
सहेल्याँ अे आंबों मोरियो/ बहू महलां सू उतरी
आतो कर र सोला सिणागार/ सहेल्या अे आंबो मोरिया’’ 
लोकगीत न केवल संस्कार आदि को उजागर करते है,बल्कि प्रकृति से भी अपना संबंध ओर अधिक घनिष्ठ करते है। बेटी के लिए सूर्यदेव की आराधना संबंधी गीत -
''ताबड़ो धीमो पड़ जा रे/ बादली गैरी छुट जा रे
गोरी रो नाजुक जीव/ सूरज बादल में छुप जा रे
ताबड़ो धीमो पड़ जा रे।’’ 
’धरती की पीर’ में ईशवंदना संबंधी लोकगीत की कुछ पंक्तियाँ -
''पूरब दिशा में सूर्य देवजी समरत जी
हाँ जी देवा सहस किरण ले उगसी
मालिक तुम बिन और नहीं आसी
वेग पधारो गोराँ का गणपत जी।’’ 
राजस्थान में शादी-ब्याह और अन्य अवसरों पर ढोल बजाकर, नाच-गाकर आजीविका कमानेवाले जाति है-ढोली। इसमें अक्सर औरतें घर के लिए कमाती है। जिन्हें ढोलन कहां जाता है। ढोलनियों द्वारा 'सती-महासती’ में प्रस्तुत यह गीत-
''म्हारा रतन राणा,अेकर तो अमराणै घोड़ों फेर
अमराणै में बोलै सूवा-मोर/ होजर हो म्हारा रतन राणा
बागां में बोलै छै काली कोयल/ अेकर तो अमराणै घोड़ों फेर।’’ 
लोकगीत परंपरा के आवेष्टन में रसों के परिचायक है। ’ठकुरानी’ उपन्यास में श्रृंगार रस में डूबा लोकगीत देखा जा सकता है -
''म्हें रावल सूं नई बोलां/ नाँय बोलाँ,मुख नई बोलाँ
पखवाड़ा रो कोल कहयो छो/ छै मींना सूँ आया ढ़ोला
म्हें रावल सूँ नई बोलाँ/ जद रावल ये मेड्या आस्यो
लाल किवाड़ी जड़ लेस्याँ/ म्हें रावल सूं नई बोलाँ...’’ 
राजस्थानी प्रसिद्ध विरह गीत मूमल की पंक्तियों को भी चंदग जी ने उद्धृत करके महेंद्र-मूमल की प्रेमकथा को नए रंग में प्रस्तुत किया है -
''काली रे काजल काजलिए री रेख रे/ हां जी रे कालोड़ी कांठल में चिपकै बिजली,
जुग जिओ म्होरी मूमल हालोनी,/ लश्करिए ढोला रे देस
न्हायो मूमल माधो धोयो मेट सूं / हां जी रे कडिया तो रालय्या मूमल केसड़ा
म्हारी जुग मीठी मूमल हालोनी आलीजा रे देस/ सीसड़लो मूमल रो सरूप नाटेल यूं
म्हारी जुग बाली मूमल हालोनी अमराणै रै देस ’’ 
'धरती की पीर’ उपन्यास में ढोली चंपू का गीत भी हृदयस्पर्शी बना है -
 ''ओजी गोरी रा लश्करिया,
ओलूड़ी लगाय कठै चाल्याजी ढोला....
हो थारी रे ओलू अरे ढोला करों,हो म्होंरी करे नहीं कोयजी,रे ढोला...
हो इण ओलू रे ढोला कारणें,हो झुर-झुर पींजर होय जी रे ढोला.....’’ 
लोकगीतों की प्राणवत्ता और सार्थकता उत्सव, पर्वों में अधिक प्रखरता से जानी जा सकती है। राजस्थान उत्सवों की भूमि है। ये रंग लोकगीतों को भी रंगीन कर देते है। फागुन के उत्सव में गायी जानेवाली 'धमाल’ की पंक्तियाँ यहाँ देखी जा सकती है-
''फागण आयो / फागण आयो
मनै लेर क्यू न जाय बलमा
आप नहीं आवे ढोलों,ससुरा जी न भेजे
ससुरा जी की म्हांने लाज आवे
बालम फागुन आयो रे ।’’ 
राजस्थानी चौमासा की झलक भी चंद्र के उपन्यास में देखी जा सकती है -
''सागर पाणी लेणे जावूँ सा,निगर लग जाय,
म्हांरी सांसणी साड़ी रो ढोला रंग उड़ जाय।’’ 
इस तरह देखा जाए तो लोकगीत मनुष्य जीवन व संस्कृति के अध्ययन में सहायक है। लिखित साहित्य से मौखिक साहित्य कई ज्यादा समृद्ध रहा है।

सारांश -  
वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण के दौर में जहां परंपरा के प्रति मोह बढ रहा है, वहीं वर्तमान में लोकगीत लुप्त हो रहे है। व्यक्तिगत और सामूहिक सुख-दुःख को उजागर करनेवाले लोकगीत जहॉं प्राचीनता की धरोहर को सहेजते है, वहीं उसमें तत्कालीन प्रचलित शब्दों में समाज की सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक, आर्थिक झलक अभिव्यक्ति पाती है। चंद्र जी ने राजस्थानी लोकगीतों के द्वारा हिंदी उपन्यास में राजस्थानी संस्कृति को स्थान दिलाया है। संगीतात्मकता,संक्षिप्तता और भावोद्रेंक की निश्छलता से पूर्ण यह लोकगीत न केवल परंपरा की अभिव्यक्ति करते है, बल्कि जनमानस को भी उद्घोषित करते है।

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