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महानगर के दो रंग - चित्रा मुद्गल की कहानियों के संदर्भ में

      मनुष्य अपनी आदिम अवस्था से अब तक विकास के कई चरणों को लांघ चुका है। यह विकास मात्र भौतिक रूप में नहीं था, बल्कि उसके मनोभावों का भी था। मात्र जैसे हर शिखर का चढ़ाव होता है वैसे उसकी ढलान भी होती है। अत्याधुनिक संसाधनों से पूर्ण मनुष्य ने जीवन में जहां सुख-साधन बटोरे, वही धीरे-धीरे भावना के स्तर पर वह दरिद्र होने लगा। जिसका कुरुप चेहरा महानगरीय परिवेश के आधार पर देख सकते हैं। बाजारवाद, भूमंडलीकरण ने मनुष्य की असंवेदनशीलता को उभार कर उसके आत्मिक संबंधों को दरकिनार कर दिया। दुर्भाग्य की बात है कि परिवेश के इन बदलावों के साथ रिश्तां में आ रहे इन बदलावों को हमने सहज ही स्वीकार किया। पूर्वाश्रम की संयुक्त कुटुंब पद्धती में कलह, लालसा ने स्थान लेकर मनुष्य में आगे बढ़ने की दौड़, पैसे-करियर के लिए जीना, वैयक्तिकता को, अहम् भाव को संभालने के चलते पारिवारिक जीवन में आ रही टूटन और इन सबके बावजूद जीने की मजबूरी महानगर के प्रत्येक व्यक्ति के सम्मुख दैत्य के समान खड़ी है। आज वर्षों के संभाले रिश्ते टूट रहे हैं, मनुष्यता के प्रति आस्था खत्म हो रही है। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो मूल्यविघटन की स्थिति अपने चरम पर है। रिश्तों में आ रहा अजनबीपन, युवा पीढ़ी का मोह भंग और रिश्तों को लेकर मानसिक उलझन तथा संघर्ष से जूझते महानगरीय मनुष्य का दृश्य नया नहीं है।
    समकालीन महिला कथाकारों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हिंदी की प्रसिद्ध साहित्यकार चित्रा मुद्गल समकालीन यथार्थ को जिस अद्भुत भाषिक संवेदना के साथ अपनी कथा रचनाओं में परत दर परत अनेक अर्थ-छवियों में अन्वेषित करती है, वह अपूर्व एवं विस्मृत कर देने वाला है। उनका समस्त साहित्य समकालीन यथार्थ समस्याओं जैसे- उपभोक्तावादी संस्कृति में फंसे मनुष्य का नाना रुपों में होनेवाला शोषन, श्रमिक राजनीति के अंर्तविरोध, पूँजीपति वर्ग के शोषण, राजनीतिज्ञों के छल-छद्म, जातिवाद, दलित समस्याओं आदि पर केन्द्रित रहा है। चित्रा जी ने इन्हीं में से कुछ प्रश्नों को अपनी कहानियों में चित्रित किया है। चित्रा जी की दो कहानियों के माध्यम से महानगरीय जीवन के अजीबोगरीब उतार चढ़ाव को स्पष्ट करने की कोशिश प्रस्तुत आलेख द्वारा करने की कोशिश हुई है।
        नई पीढ़ी में आ रहा रिश्तों का अजनबीपन और पुरानी पीढी का रिश्तों को निभाने की, रिश्तों को भरपूर जीने की ललक का चित्रण ’गेंद’ कहानी में दिखाई देती है। आज की युवा पीढ़ी के लिए उन्हीं के जन्मदाता बोझ बन चुके हैं। महानगरों में करियर के पीछे भागने वाली युवा पीढ़ी अनजाने में ही ऐसे सवालों को पैदा कर चुकी है, जिसे सुलझाना भविष्य में शायद उन्हीं के लिए मुश्किल हो जाएगा। ’हम दो हमारा एक’ इस सोच में जीने वाली महानगरीय पीढ़ी ने अपनी जन्मदाताओं के बोझ को हटाने के लिए वृद्धाश्रम की संकल्पना को नवीन रूप दे दिया है। भारतीय संस्कृति की पहचान, उसका गौरव संयुक्त कुटुंब पद्धती थी। आज ग्रामीण भागों में, कुछ अपवाद की स्थिति छोड़ यह पद्धति आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। किंतु महानगरीय परिवेश में जमीन की तरह सोच भी छोटी होती जा रही है। जिसके चलते वृद्धों को उनके मन के विरुद्ध एकांत में जीने के लिए मजबूर किया जा रहा है। अपने नई पीढी के द्वारा अपने उत्तरदायित्व की इतिश्री पैसे के रूप में की जा रही है। मात्र पैसा प्रेम का स्थान नहीं ले सकता। प्रस्तुत कहानी ’गेंद’ में वृद्धाश्रम में रहने वाले सचदेवा जी का बेटा विनय लंदन में नौकरी करता है। विनय की पत्नी डॉक्टर है, किंतु मधुमेह से पीड़ित सचदेवा जी को श्रवण यंत्र के लिए पैसे मांगने बेटे को बार बार फोन करने पडते हैं। वही अपनी पोती से बात न कर पाने का मलाल उन्हें कौंचता है। उम्र के इस दौर में उनके साथी छूटते हैं, पत्नी की मृत्यु के पश्चात भरा-पूरा परिवार हो कर भी वह अकेले जिंदगी जीने के लिए मजबूर है। वहीं छोटे से बिल्लू को उसकी मां घर में बंद कर नर्सिंग होम जाती है। आधुनिकता की इस भाग-दौड़ में आपसी संबंधों में आने वाली टूटन मन को कचौटती है, जब एक बच्चा मां-बाप के एकत्र प्रेम से वंचित हो जाता है। बिल्लू की मां उसके पिता से अलग रहती है। बिल्लू को रिश्तों की परख नहीं है, इसीलिए गेंद के खो जाने के बाद दादा की उम्र के सचदेवा जी को वह ’अंकल’ कहकर पुकारता है। छोटे से बच्चे के मुंह से अपने आपको दादा की पुकार सुन सचदेवा जी का मन भर्रा उठता है। जिन्हें उनके अपने नहीं पुछते, उन्हें रोकने की मनुहार करते बिल्लू को देख उनकी आंखें नम हो उठती है। रिश्तों की आर्द्रता महानगर के किसी कोने में शेष है, यह देख मन कुछ क्षण सुखी होता है। मात्र स्वार्थ पूर्ण परिस्थिती की तपिश इस आर्द्रता को कब भाप बना कर उड़ा देती है पता ही नहीं चलता। युवा पीढी में माता-पिता के प्रति कर्तव्यों का विस्मरण हो रहा है। महंगाई और खर्चे का रोना लेकर बैठी यह पीढी बूढ़ों के प्रति जिम्मेदारियों से मुंह मोडती है। मात्र वृद्धाश्रम में रहकर भी संतान के प्रति प्रेम और चिंता में डूबे बुजुर्ग अपनी बची हुई संपत्ति, मकान औलाद के नाम करना नहीं भूलते। मात्र इसके बावजूद कहानी की सिद्धेश्वरी बहन के मृत्यु के बाद भी उसके क्रियाकर्म में उसके घरवाली नहीं आते। उसी आश्रम की चटर्जी मरते समय त्याग दिए बेटे का नाम बुदबुदाती है। जबकि वह पहले कहती थी कि - ’’दाहसंस्कार चाहे जिससे करवा लेना, नालायक बेटे को खबर न करना।’’वही उनका बेटा श्यामल अपनी मां की मृत्यु के समाचार को सुनकर भी अचल बना रहता है। तथा मां का अंतिम संस्कार घर की जगह आश्रम में ही करवाना तय करता है। क्या ये बुजूर्ग मरने के बाद भी अपने घर-आंगन से वंचित रहेंगे ? शहर नाम के सीमेंट के इस जंगल में मनुष्य की मनुष्यता खो रही है। जहां बच्चे ही अपने मां-बाप से विमुख होत है, वहां अन्य व्यक्तियों से कोई उम्मीद करना निरर्थक है। जो अपने हाथ में गिलास भी नहीं उठा सकते ऐसे वृद्धों की सेवा करने वाले, सेवा का मूल्य पाकर भी उन्हीं के प्रति उद्दंड हो जाते हैं। ऐसे माहौल में भी बिल्लू की खोई हुई गेंद को लेकर सचदेवा जी के मन में कई अरमान उभरते हैं और वे समशान जाती गाड़ी को रोक अट्टा मार्केट की ओर निकलते है, ताकि बिल्लू के लिए क्रिकेट किट ले उसे खुश कर पाए।
        चित्रा जी की दूसरी कहानी ’पाली का आदमी’ महानगरी जीवन के ऐसे रूप में उभरता है जो हमारे लिए अजनबी नहीं है। अर्थाजन के लिए काम करना मनुष्य की जरूरत बन गया है। इन्हीं कारखानों में अभिशप्त जीवन को जीता आदमी हम रवि के रुप में देख सकते है। पाली में काम करने वाला आदमी अपनी जिंदगी भी इसी पाली में काटता है। समय का विभाजन करते हुए वह अपनी जिंदगी का विभाजन करता चलता है। दिन-रात उसके लिए प्रकृतिगत नहीं, घड़ी के सिर्फ काटे हैं। मशीने आदमी को भी मशीन जैसा बना देती है। रवि की जिंदगी इसी पाली में बिखरी हुई है। पाली के कारण वह अपनी पत्नी नीरु और बेटी सोनू को समय नहीं दे पाता। सोनू के बालबोध को जानने-समझने का समय उसके पास नहीं है। उसकी पत्नी नीरू भी दफ्तर में काम करती है। पति और पत्नी काम को लेकर जितने जज्बाती होते हैं उतने संभवता रिश्तो को लेकर नहीं। इसीलिए रवि को यह सोच कर आश्चर्य होता है-’’नीरू को नौकरी का शौक है और सोनू को गृहस्थी का।’’
         निजी प्रगति के पीछे भागने वाला रवि अपने अतीत को खुद से काटना चाहता है, जिससे उसे जोड़ने वाले थे लल्ली के पत्र। लल्ली की मां के गांव में रहती थी,जो अपने आपको शापग्रस्त अहिल्या कहती थी। वह रवि की पहली पत्नी थी। पर पढ़ा-लिखा रवि ’’बुचकी-सी छिदी नाक में बुलाक झुलाती, तीसरी दर्जा फेल, बेशऊर, गोबर पाथती पत्ती स्त्री’’ को पत्नी नहीं कहना चाहता था। शहर में आकर रवि अपनी नींव से काटना चाहता था। उसके आत्मविश्वास पूर्ण सपने आसमान को छूनेवाले थे। जिसने उसके भीतर के इंसान को दबा कर उसे दौड़ का प्रतिभागी बना दिया था। इसी कारण वह अपनी बेटी को भी अनदेखा करता है। अपने अतीत को पत्नी नीरु के आगे खोलने का साहस उसमें नहीं है। जबकि पत्नी की उसके प्रति उपेक्षा को वह महसूस करता है। उसी की बेटी लल्ली का विवाह है, एक क्षण के लिए रवि के भीतर का पिता तिलमिला उठना है, अपने हठ की गलती को स्वीकारता है। पिता बन कर रवि लल्ली को आशीर्वाद प्लावित पत्र और पैसे का ड्राफ्ट भेजने की सोचता है। मात्र शहरों में बने रिश्तों का झूठा अस्तित्व उस पर पुनः हावी हो जाता है और नीरू के अस्तित्व के आगे उसका इंसान फिर से दब जाता है। वह आत्महंता द्वंद्व से गुजरता है, जो उसे अपराध बोध से भर देती है। कुछ पल सच्ची भावना में जीने वाला रवि फिर से अपने आपको महानगरों के बडप्पन में खो जाने के लिए मजबूर करता है। सपनों के पीछे दौड़ने वाला रवि स्वयं को श्रेष्ठतम बनाना चाहता था। उंचाई पर खडा हो दूसरों को रेंगने वाले कीड़ों के समान देख रहा था। उसका यह झूठा अहम भाव उसके भीतर की इंसानी भावनाओं को दबाता है। ’अर्थ’ से पूर्ण मात्र ’अर्थहीन’ जिंदगी के आगे वह दौड़ता रहता है।
     चित्रा जी की इन दोनों कहानियों का परिवेश महानगर से जुडा हुआ है। आधुनिक जीवन की यांत्रिकता, प्रतियोगिता, बौधिकता के अतिरेक से पनपी विडम्बना-विवशता-मूल्यहीनता जैसे मानवीय संकटों को कहानियों में उजागर किया है। महानगरीय परिवेश की पीडा, चुभन और मानवीय संबंधों में आने वाले उलझन भरी स्थितियों के वास्तविक मर्म इनमें देखा जा सकता है।

सारांश - 
       आधुनिक युग में हम जितने ज्यादा स्वयं को प्रगति की दौड़ में दौड़ने को मजबूर कर रहे हैं उतना ही ज्यादा हम अस्तित्व के खोखले आडंबरपूर्ण दुनिया में खो रहे हे। शहरों में रहने वाला व्यक्ति वहां के आकर्षण में इतना डूब चुका है कि वह स्वयं अपनी पहचान भूल रहा है। महानगरीकरण की इस आंधी में रिश्तों को नकारने की जैसी असंवेदनशीलता की अति देखी जा सकती है। इसी से जुडी समस्याओं का अंश चित्रा मुद्गल जी की इन दो कहानियों में देखा जा सकता है। ’गेंद’ कहानी हमारे भावी पीढ़ी के अस्तित्व तथा वृद्धों को दिए जा रहे रुखाई पूर्ण व्यवहार पर सवाल उठाती है, वहीं ’पाली का आदमी’ जिंदगी से कटने वाले आदमी की कहानी है, जो नगरीय चकाचौंध भरी जिंदगी में इतना उलझ चुका है कि चाह कर भी मनोवांछित कार्य नहीं कर सकता। क्योंकि वह नगरीय व्यवस्था का सम्माननीय व्यक्ति बन चुका है, झूठी शान के मुखौटे को चेहरे पर लगा कर वह आदर का पात्र बना रहना चाहता है। इन स्थितियों में हमें समझना पडेंगा की हम कहां जा रहे है ? विकास के फेरे में हम उन्हें अपनी जिंदगी से निकाल रहे है, जिनसे हमारी जिंदगी बनी है। बिल्लू को घर में बंद कर उसकी मां का नर्सिग में जाना, बूढे सचदेवा का परिवार के लिए तडपकर अकेला जीना या रवि का अपने अतीत से भागना; महानगरों की वह शापित देन है, जिसे टालना शायद अब हमारे हाथ में नहीं।
    चित्रा जी इन कहानियों के माध्यम से आज की अपसंस्कृति, व्यावसायिक उपभोक्तावादी संस्कृति, औद्योगिक अभिशाप और महानगरों के संघर्ष का प्रभावी चित्रण करती है। महानगरीय परिवेश की यथावत् अभिव्यक्ति तथा उसके पात्रों के अंर्तद्वंद्व को विश्लेषित करने में वह सफल होती है। महानगरीय जीवन एवं उनमें व्याप्त यांत्रिकता, संत्रास, भय, अपरिचितता बोध, असुरक्षा भाव की यथायोग्य अभिव्यक्ति चित्रा जी की कहानियों में प्राप्त होती है।

संदर्भ -
1.    गेंद - चित्रा मुद्गल
2.    पाली का आदमी - चित्रा मुद्गल
3.    चित्रा मुद्गल का कथा साहित्य -गीता एन.पी. अप्रकाशित अनुसंधान
4.    गगनांचल पत्रिका

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