आधुनिक दृश्य साहित्य के अंतर्गत एकांकी का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें एक
ही अंक या विधान किया जाता है। यह अंग्रेजी के One Act Play का पर्यायवाची है। इसमें नाटक के ही
तत्वों को स्वीकारा गया है। फिर भी यह नाटक से भिन्न है। इसमें एक ही अंक, एक ही
घटना, मूल भाव, एक ही दृश्य, जीवन का एक ही भाग, कार्य, उद्देश्य रहता है।
इसकी परिभाषा में डॉ.गोंविददास कहते
है - इसमें जीवन से संबंधित किसी एक ही मूल भाव या विचार की एकांत अभिव्यक्ति होती
है।
डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार - एकांकी में एक ऐसी घटना रहती है, जिसका जिज्ञासा पूर्ण और कौतूहलमय नाटकीय शैली में चरम विकास
होकर अंत होता है।
एकांकी में एक ही घटना या जीवन की एक ही संवेदना रहनी चाहिए। हर स्थिति में
अंत तक जिज्ञासा बनी रहे। कथा का विकास अत्यांधिक तीव्र हो। कथा में यथार्थ का सहज,
स्वाभाविक चित्रण हो। साथ ही वह जीवन के निकट प्रतीत हो।
एकांकी के तत्व
1. कथावस्तु या कथानक
एकांकी का कथानक व्यवहार जगत और जीवन, समाज के एक भाव-विचार, घटना पक्ष, समस्या
पर केंद्रित हो। सहायक, प्रासंगिक कथाओं को यहां
स्थान नहीं। इस कारण एकांकी में वैविध्य का अभाव पाया जाता है। एकांकी में दिखाए जानेवाले घटनाक्रम का उद्देश्य एक ही
होता है। एकांकी की कथा जीवन आदर्श, यथार्थ, समाज, घर-परिवार,
राजनीति, धर्म, इतिहास-पुराण आदि से भी ली जाती है। इसमें संभाव्यता भी अनिवार्य होती है।
एकांकी की कथावस्तु में स्थान, समय, कार्य की एकता का भी ध्यान रखना आवश्यक है। इसके कथा विकास की
पांच अवस्थाएं मानी गई है- प्रारंभ, नाटकीय स्थल, द्वंद्व, चरम सीमा,अंतिम परिणति आदि।
2. पात्र/ चरित्र चित्रण
एकांकी के पात्रों के चयन में सीमत्व एवं आवश्यकता का ध्यान रखना पडता है।
इसमें अनावश्यक भीड को टालना भी पडता है। विषयानुरूप एक केंद्रीय पात्र या नायक के
साथ थोडे-से सहायक पात्र रखे जाते है। पात्र जीवन के बाहर के न होकर यथार्थ के
अभिभावक और संभाव्य हो। साथ ही जनजीवन और भावनाओं का प्रतिनिधित्व भी वह करें।
पात्र का व्यक्तित्व-कृत्रित्व सजीव, जीवन व्यवहारों से संबद्ध हो। पात्रों के चरित्रांकन में
गतिशीलता होनी चाहिए।
3. द्वंद्व या संघर्ष
जीवन अनेक प्रकार के अंत-बाहय द्वंद्वों एवं संघर्षों से जुड़ा है। अतः एकांकी
के अनिवार्य तत्व के रूप में इसे स्वीकारा गया है। इसमें कथा को स्पष्टीकरण तो
मिलता है, साथ जी पात्रों के चरित्र
विकास में भी सहायता मिलती है। संघर्ष के द्वारा एकांकी में सहज नाटकीयता, द्रुतता, तीव्रता का समावेश किया जा
सकता है। एकांकी में विश्वसनीयता उत्पन्न की जा सकती है।
4. संवाद/ कथोपकथन
संवादों के द्वारा ही एकांकी की कथा, चरित्र का विकास, उद्देश्य की सफलता, स्पष्टता को सिद्ध किया जा सकता है। संवादों द्वारा ही
देशकाल- वातावरण को जाना जा सकता
है। संवादों के द्वारा ही कथा को गती प्रदान की जाती है, पात्रों के अन्तः- बाह्य चरित्र को अंकित किया जा सकता है।
अभिनेयता की दृष्टि से सरल, संक्षिप्त संवाद ही अच्छे
माने जाते है। कृत्रिमता संवादों का सबसे बडा दोष
है। कुल मिलाकर संवाद ऐसे होने चाहिए, जो न सिर्फ लेखक के मंतव्य
को स्पष्ट करें, बल्कि दर्शकों को भी तल्लीन
बनाकर प्रभावित करें।
5. भाषाशैली
भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होने के कारण एकांकी की भाषा भी सरल, सहज, स्पष्ट होनी चाहिए। वह
प्रत्येक प्रकार के प्रेक्षक के लिए सुगम हो। पात्रानुकूल भाषा का ध्यान रखना भी
आवश्यक है। एकांकी की शैली भी पाठकों के मन-मस्तिष्क पर बोझ न बनकर सहजगम्य हो।
6. प्रभाव ऐक्य
यह एकांकी के सभी तत्वों को समन्वित करनेवाला तत्व है। एकांकी को देख प्रेक्षक
के मन-मस्तिष्क में जो समग्र बिंब बनता है,
उसी को प्रभाव-
ऐक्य कहा जाता है। नाटक के मूल भाव विचार, पात्र, चरित्र, भाषा-शैली, की समग्र अभिव्यक्ति ही प्रभाव-ऐक्य से संभव है। इसी पर
एकांकी की सफलता अवलंबित होती है।
7. अभिनेयता
एकांकी की रचना भी रंगमंच पर प्रदर्शन या अभिनय के लिए ही की जाती है। सफल
अभिनेयता ही एकांकी की सफलता का मूलआधार तत्व है। इसी के लिए लेखक भाव-विचार
स्थिति के अनुकूल रंग-निर्देश दिया करता है। अभिनेयता के द्वारा ही संवादों के
माध्यम से उचित हाव-भाव रंगमंच पर प्रदर्शित किए जाते है।
एकांकी-नाटक में अंतर
वैसे नाटकऔर एकांकी इन दृश्य साहित्य के विधायक तत्व भी एक जैसे है, पर इन तत्वों की योजना में अंतर है।
- डॉ.रामचरण महेंद्र के अनुसार एकांकी न तो बडे नाटक का संक्षिप्त रूप है, न कहानी, संभाषण। अतः नाटक प्रबंध काव्य या महाकाव्य के समान विस्तृत है, तो एकांकी मुक्तक के समान है।
- सेठ गोविंददास नाटक-एकांकी में बडाई-छुटाई का ही भेद नहीं मानते। उनके अनुसार एकांकी छोटी ही हो यह जरूरी नहीं। वास्तविक भिन्नता इन दोनों के परिवेश और आयाम के संकोच-विस्तार की है। आकार में बडा होकर भी एकांकी एकत्व की सीमा के बाहर नहीं जा सकती। जबकि नाटक में बहुत्व रहा करता है। जीवन के एक ही पहलू की अल्प समय में स्पष्ट एवं प्रभावी झांकी एकांकी है। जो बहूलता, जटिलता, प्रासंगिक, गतिविधियों का अंकन नाटक में होता है।
- एकांकी में भाव, प्रभाव, तीव्रता, गत्यात्मकता, संकलन-त्रय की योजना अनिवार्य है। जबकि नाटक में कई मोड हो सकते है।
- अधिक विस्तार में लिए एकांकी में कोई स्थान नहीं। पात्रों का चरित्र चित्रण भी यहां एकाकी और एकपक्षीय होता है। इसके विपरीत नाटक में इन सबका क्रमशः विकास दिखाने के लिए पर्याप्त स्थान और समय रहते है।
- एकांकी आरंभ होते ही चरम परिणति की ओर द्रुत गति से भागना प्रारंभ करती है। जबकि नाटक में गति विकास धीमा हो सकता है।
- अभिनय की दृष्टि से एकांकी की समय-सीमा पांच-पंद्रह मिनट से पौन या एक घंटा रह सकती है। तो पूर्ण नाटक दो-ढाई, तीन घंटे तक चल सकता है।
- एकांकी में क्षिप्रता और संक्षिप्तता आवश्यक है। तो नाटक में नहीं।
Sankalntray
जवाब देंहटाएंbahut bahut dhanyawaad aapka. itni saari jaankaari dene ke liye.
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