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विश्वलिपी के संदर्भ में नागरी लिपि की संभावनाएँ

समाज में व्यक्ति के अस्तित्व की परिचायक क्या है । मनुष्य की स्वतंत्र पहचान बनानेवाली भाषा, आपसी विचारों के आदान प्रदान का भी माध्यम है । स्वतंत्रता के सभी अहसास ने हो तो विश्व भर में अनेक स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी इसी चेतना के छत्र में उभरी । इस अवधारणा में संविधान में भी तब प्रमुख स्थान मिला, जब संघ की राजभाषा के रूप में हिंदी को मान्यता दी गयी । मात्र किसी भी भाषा की स्थापना या प्रतिष्ठा उसे केवल घोषित मात्र करने से नहीं होती तो उनका अस्तित्व भी सिद्ध करना पडता है । ऐसे में भाषा सिर्पâ मौखिक अभिव्यक्ति का साधन नहीं होनी चाहिए, बल्कि उनकी उतनी सशक्त अभिव्यक्ति लिखित रूप में भी होनी चाहिए। ऐसे में कोई भाषा बोली कैसी जाती है, यह प्रश्न जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण यह जानना की वह भाषा लिखि कैसी जाती है । इसकी भाषा को जीवंत रखनेवाली, भाषा को न्यायी रुप देकर मनुष्य के अनुभवों को संचित करने की भावना ने ही लिपि को जन्म दिया । भाषा का विचारों की वाहिका है, वही लिपि इन्हें आगामी पिढियों तक ले जाने में समर्थ होती है । लिपि उस भाषा के संकेत चिन्ह है । यदि भाषा भाव विचारों का अमूर्त रूप है, तो लिपि उनका मूर्तिमंत रूप । या सामान्य रूप से कहा जायेगा लिपि भाषा की भी भाषा है । डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना लिपि की परिभाषा पर कहते हैं कि, अपनी व्यक्त वाणी को सुरक्षित रखने के लिए उसे नेत्रों के लिए दृष्यमान करने के लिए उसे भावी पीढी के लिए स्थिर करने के लिए अथवा इसे काल एवं स्थान की सीमा से निकल कर अमर बनाने के लिए जिन लिखित चिन्हों, रेखाओं, चित्रों का आविष्कार हुआ उसे लिपि कहते हैं ।
संविधान द्वारा स्वीकृत हिंदी भाषा देवनागरी है, जो भारत की प्राचीन लिपियों से विकसित एक आदर्श लिपि देवनागरी है, जो भारत की प्राचीन लिपियों से विकसित एक आदर्श लिपि है । शुरुवात में युरोपीय विद्वानों का कथन था कि ई.पू. ५०० के आसपास भारत के लोगों ने लिखना सीखा और वह भी सामी लिपि के आधारपर मात्र यह कथन आज क्रांतिमान रह गया है । हमारे प्राचीन संस्कृत साहित्य में संहिता ग्रंथ जैसे शब्दों के आधारपर विचारों को एक जगह गुंथने का भाव स्पष्ट होता है । जिसके लिए प्रयुक्त लिपि आज विकसित होकर नागरी लिपि के नाम से विख्यात हो गयी ।
वैसे भाषा और लिपि के उदभव को लेकर अभी भी अनुमान ही लगाने जा रहे है । मनुष्य ने अपनी आवश्यकता नुसार लिपि को जन्म दिया । मात्र आरंभ में मनुष्य ने इस दिशा में जो भी किया वह इसलिए नहीं कि उससे लिपि विशेष विकिसत हो, बल्कि जादू-टोने के लिए कुछ रेखाएँ खिंची गयी या धार्मिक दृष्टि से देवता का प्रतिक या चित्र बनाया गया था । कुछ चित्र तो केवल इसलिए बनाये गये होंगे, ताकि बहुतों की ये चीजें जब एक स्थान पर रखी जाए तो लोग सरलता से अपनी चीजें पहचान सवेंâ । भाषा व विकास संभवत परिचित ध्वनियों के अनुकरण से और लिपि का जन्म परिचित वस्तुओं की नकल से हुआ, यह माननेवाले विद्वान भी है।
लिपि के प्राचीनतम साहित्य को देखकर कल जा सकता है कि ४००० इ.पू. के मध्य तक लेखन की किसी भी पद्धती का विकास नहीं हुआ था । इस तरह के प्राचीनतम प्रयास १०,००० इ.पू. से भी पूर्व किये गए थे । लिपि के विकासक्रम चित्रलिपि, सूत्रलिपि, प्रतिकात्मक लिपि, भावमूलक लिपि, भावध्वनिमूलक लिपि, ध्वनिमूलक लिपि को देखा जा सकता है । आज विश्व में मुख्यतः ४००० लिपियाँ तथा ३००० के आसपास भाषायें हैं । इन लिपियों को मूलतः दो क्यों में बांटा जा सकता है ।
१) बिना अक्षर या वर्ण की लिपि, जिनमें चीनी, क्युनीफार्म, क्रीट की लिपि, सिंधू घाटी की लिपि, हिट्टाइट लिपि, प्राचीन मध्य अमेरिका तथा मैक्सिको की लिपि आदी ।
२) जिनमें अक्षर या वर्ण है, इनमें दक्षिणी सामी लिपि, हिब्रू लिपि, फोनेशियन लिपि, खरोण्डी लिपि, आमेंइक लिपि, अरबी लिपि, नागरी लिपि, ग्रीक लिपि, लैटिन लिपि आदी ।
आज विश्व की जनसंख्या अरबों में है । इन जनसंख्या के द्वारा सेंकडों मुख्य भाषाओं, लिपियों का प्रयोग होता है । पर विश्व स्तर पर तीन लिपियों को अधिक महत्व किया जाता है - रोमन लिपि, चीनी लिपि, नागरी लिपि.
देवनागरी लिपि का विकास ब्राधी लिपि से माना जाता है । देवनागरी का प्रयोग सबसे पहले गुजरात में जयभट्ट के एक शिलालेख में हुआ था । जो ७ वी - ८ वी शतीr का माना जाता है । ८ वी शती में राष्ट्रकुट नरेशों तथा ९ वी शती में ध्रुवराज (बडौदा) ने अपनी राजाज्ञाओं के लिए नागरी लिपि का प्रयोग किया । मूलतः उत्तर की मानी जानेवाली देवनागरी लिपि का प्रयोग दक्षिण भारत में भी मिलता है । दक्षिण भारत के कुछ स्थानों पर इसका व्यवहार ८ वी सदी से मिलता है । जहाँ यह लिपि नंदिनागरी के नाम से जानी जाती थी । इस तरह यह तो सिद्ध होता है कि देवनागरी पूर्ण भारतवर्ष में सबसे अधिक व्यापक क्षेत्र में प्रचलित रही है । आज भी यह भारत की प्रधान लिपि है । भारतवर्ष का प्राचीन साहित्य नागरी लिपि में है । जो भारतवासियों की अमूल्य धरोहर है । वेद, उपनिषद, महाभारत आदी वैभवशाली साहित्य से नागरी लिपि के प्रचार-प्रसार को प्रोत्साहन और बल मिला है । तटस्थ, पूर्वाग्रहरहित एवं उदार दृष्टि से पूर्ण नागरी लिपि की वैज्ञानिकता, सर्वाधिक प्रयोग, सरलता को देखते हुए तो भारत जैसे राष्ट्र ने उसे राष्ट्रलिपि का दर्जा दिया है ।
देवनागरी की सबसे बडी शक्ति है - आंतरिक, तार्विâक एवं उसकी अपनी सुनिश्चित व्यवस्था । इस संदर्भ में यदि रोमन या अन्य दूसरी लिपियों को देखा जाए, तो अन्य भाषाओं के सही उच्चारण और उनके उपयुक्त लिप्यंकन के मार्ग में काफी अवरोधों को देखा जा सकता है । जब की लिपि की सबसे बडी आवश्यकता भाषा के संरक्षण और प्रसार की है । लिपि भले ही भाषा की अनिवार्य शर्त न हो, पर लिपि के अभाव में भाषा का विकास भी अवरुद्ध हो सकता है । इस दिशा में उच्चारण शक्ति और उसके साथ लिपि चिह्नों का तादात्म्य एवं संबंध महत्वपूर्ण है और इस परिप्रेक्ष्य में देवनागरी ही इस कसौटी पर खरी उतर सकती है ।
संसार की किसी भी भाषा को सूक्ष्मता में यदि देखा जाय तो भाषा अपने रूप में ध्वनि पर आधारित है । ध्वनियाँ ही उच्चारित होती है और सुनी जाती है । इस प्रकार प्रत्येक भाषा की काल और स्थान की दृष्टी में सीमा होती है । वह केवल तभी सुनी जा सकती है, जब बोली जाती है । काल और स्थान के सीमा बंधन से निकालने के लिए लिपि का जन्म हुआ । लिलपि और भाषा के बीच के संबंध का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि भाषा अपने मूल रूप में ध्वनियों पर आधारित है । तो लिपि उन ध्वनियों को रेखाओं द्वारा व्यक्त करती है । इस व्यवस्था पर चलते हुए देवनागरी भी विश्व की किसी भी भाषा को सक्षमता में अभिव्यक्त कर सकती है ।
मानव उसके द्वारा सृजित वस्तुओं को बचाने के प्रारंभ में ही प्रयत्न कर रहा है । समय के साथ मृत हुई भाषाओं का अस्तित्व शेष रखा जा सकता है । आज के काल में विश्व की भाषाओं पर संकट मंडरा रहा है । ऐसे में नागरी लिपि प्राचीन धरोहर की संरक्षिका के रूप में अपना कार्य सबल कर सकती है । प्रसिद्ध भाषाशास्त्री एंड्यू डेली लेंग्वेज इन डेंजर में भाषा के उत्थान पतन की कहानी दिलचस्प तथ्यों के साथ प्रस्तुत करते है । दुनिया के विकास एवं प्रगति की कहानी बतानेवाली भाषा को ही अपने जन्म परम को क्या कहनी पडती है । विविध विषयों की सशक्त अभिव्यक्ति हेतु आवश्यक स्वर-व्यंजन एवं चिन्हों की प्रतिबद्धता देवनागरी लिपि में ही देखी जा सकती है ।
नागरी लिपि की सर्वोत्कृष्टता इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण मानी जा सकती की इसके लिए आग्रह करनेवाले न सिर्पâ देसी विद्वान थे बल्कि विदेशी विद्वानों में बेल्जियम के फादर कामिल बुल्के, चेकोस्लाव्हिया के आदीलेन स्मेकल, रूस के अलिक्सेई बरान्निकोय, डॉ. येकोनी चेलीशेव, जर्मनी के लोठार लुत्से, डॉ. इव, प्रो. तोशियो, प्रो. काचारुको आदी थे । आज दुनिया के लगभग १५० विश्वविद्यालयों में जहाँ हिंदी पढाई जा रही है, वहीं नागरी लिपि ने भी अपने कदम जमाने शुरू  किया है । लिपि भाषा को अनुगामिनी होती है, इस तथ्य के अनुसार हिंदी के साथ देवनागरी का भी विश्व में प्रचार-प्रसार हो रहा है । नागरी लिपि के प्रचार में न सिर्पâ भारतीय बल्कि विदेशी पत्रिकायें भी अपना योगदान दे रही है । जिसमें अमेरिका की आंतरराष्ट्रीय हिंदी समिती की पत्रिका विश्व, विश्व हिंदी समिती की पत्रिका सौरभ, विश्व हिंदी न्यास की हिंदी जगत न्यूयार्वâ के भारतीय विद्याभवन से प्रकाशित होनेवाली पत्रिकाओं का नाम लिया जा सकता है ।
भाषाविस्तारीकरण की प्रक्रिया लिपि को वैश्वीकरण से जोडती है । सिंगापूर में हिंदी के प्रतिआकर्षण बढ रहा है । मारिशस, फिजी, गुयाना में हिंदी बोली जाती है । इंडोनेशिया की भाषा में १८ टक्के शब्द संस्कृत के है जो कि देवनागरी के है । श्रीलंका, म्यानमार, सुरीनाम, त्रिनिदाद, सुडान की भाषाओं में भी संस्कृत के शब्द पाये जाते है । अंग्रेजी और चीनी के साथ हिंदी भी प्रमुख भाषा के रुप में स्वीकृत हो रही है, साथही नागरी लिपि का क्षेत्र भी बढ रहा है ।
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया, आर्थिक उदारीकरण तथा सूचना प्रौद्योगिकी में विश्व के देशों के बीच का भौगोलिक दूरियों को कम ही नहीं किया बल्कि अविकसित तथा विकसनशील देशों को बाजार या मंडी के रूप में परिवर्तित कर दिखा है । आज भारत भी दुनिया का सबसे बडा बाजार बन गया है । इन बाजारों द्वारा उत्पादित वस्तुओं को विभिन्न चैतल, संगठन प्रणाली तथा प्रिंट मिडिया के द्वारा इतरत्र प्रचारित किया जाता है । जिसके साथ संबंधित शब्दों का प्रसार प्रचार भी होता है । भाषा विस्तारीकरण की इस प्रक्रिया से देवनागरी को अधिक उदार, लचीली, संवेदनशील तथा स्पंदनशील बनाया है । बहुराष्ट्रीय वंâपनियों के विज्ञापन जो पूरे विश्व में पैâलाइ जाते है, अभिनव ध्वनी, संकेत प्रदान कर नागरी लिपि को आधुनिक भूमंडलीकरण की सबल माध्यम लिपि के रूप में उभरी है ।
वर्तमान सूचना क्रांति  के युग में देवनागरी को विश्वलिपि बनने का अवसर मिला है । अपनी आकृति की सुंदरता गठन की चालना, उच्चारण की वैचारिकता के आधारपर विश्वभर में लोकप्रिय हो रही है । अच्छी लिपि वही होती है, जिसमें जो बोला जाए वही लिखा जाए । देवनागरी में योग्य उच्चारण की अनुरूपता को अनुपम क्षमता है । अपनी संरचना, प्रयोग, प्रकार्य, प्रक्रिया में देवनागरी विश्व भाषाओं की लिपि बनने की क्षमता रखती है । देवनागरी में आत्मसातीकरण की अदभूत क्षमता है । विश्व की किसी भी भाषा के जगत के किसी भी ध्वनि को वैसेही मिप्यकित करने की देवनागरी में शक्ती है । समय समय पर बाहरी भाषाई संपर्को के कारण देवनागरी में नये शब्द और सांकेतिक चिन्ह जुटते जा रहे है । आपस में संपर्वâ और संबंध जोडने का एक मात्र उत्तम साधन नागरी लिपि है ।
लिपि भाषा, संस्कृति और सभ्यता की संरक्षिका होती है । साथ ही यह भी देखा जा सकता है कि भाषा संस्कृति से अलग नही होती । अतः संस्कृती को ठीक तरह से समझने जानने के लिए भाषा का परिचय होना जरुरी है । पर यह गहरी त्रासदी है कि अगर हम अपनी भाषाएँ  बोल भी रहे है, तो उन्हें लिपियों में सिख नही रहे । यदि हमारी भाषाएँ समान लिपि नही अपनाएगी तो वे तेजी से लुप्त हो सकती है क्या वे लिखित भाषा की जगह बोली जानेवाली भाषाओं में भी बदल सकती है । ऐसे में एक लिपि के सहारे भाषाओं का संसार रचा भी जा सकता है और कायम भी रखा जा सकता है । वैश्विकरण के चलते इस कार्य में देवनागरी लिपि से उत्तम दूसरी लिपि नहीं ।
संचार या संप्रेषत के स्तर पर भाषा ध्वनियों का समूह होती है । इन भाषाओं की ध्वनियों का स्वरूप भी कुछ एक सा है । पर हर भाषा की प्रकृति के अनुसार उसको अलग ध्वनियों के प्रतिक होते है । जिनमें वह भाषा लिखी जाती है । अतः भिन्न भिन्न भाषाओं को अभिव्यक्त करनेवाली लिपियाँ स्थान, परत्वे भिन्न बन गयी । आज भिन्न भिन्न देशों के लोग भी लिपि भेद के कारण एक दूसरे अलग हो गए । इसलिए एक दूसरे की भाषाएँ सीखना और अधिक कठीन बन गया । जिस तरह से हिंदी भारत को संपूर्ण विश्व से जोडने का स्नेहतंतू है, उसी तरह नागरी लिपि भी दूसरा स्नेह तंतू है । आज भिन्न भिन्न भाषाओं के लोग अपनी लिपि में लिखते हैं परंतु ऐच्छिक रूप में नागरी में भी हम इस भाषाओं के लिखें, तो इन भाषाओं को सीखना सुलभ हो जाएगा ।
अंग्रेजी ने विश्वभाषाओं के सर्वाधिक शब्दो को स्वीकार किया है अंग्रेजी भाषा के लिए प्रयुक्त रोमन लिपि उपनिवेशावादी संस्कृति के प्रचार प्रसार से विश्वलिपि बनी । जबकि देवनागरी मानववादी मूल्यों से संबंद्ध होने के कारण उसकी विश्वलिपि बनने की संभावनाएँ बलवती हो रही है । विश्व की अन्य भाषाओं के लिए नागरी लिपि हेतू का कार्य कर सकती है ।
आज संसार भर की भाषाअ‍ें अपनी विकसित एवं समृद्धशाली साहित्य से अपने भंडार को भर रही है । पर भाषाई सीमाओं को लांधकर यह साहित्य बडी कठिनाई अन्य क्षेत्रों में, देशों में पहुँच सकता है । मनुष्य अनेक भाषाओं को सीख सकता है, समझ सकता है, पर साथ ही लिपि का ज्ञान प्राप्त करना, उन लिपियों को पूर्ण रूप से अवगत करना अत्यंत कठीन काम है । यदि सभी भाषाओं को सीखने के लिए केवल एक ही लिपि का आधार लिया जाय तो यह कार्य सुलभता से पूर्ण होगा । यह शक्ति और सामथ्र्य केवल नागरी में है ।  इससे ज्ञान का आदान प्रदान भी सुलभ हो जायेगा । भाषाओं को स्वाधीनता पर प्रश्न उठानेवालों को यह सोचकर संतुष्टी की, नागरी लिपि को अपनाने से किसी भी भाषा की स्वतंत्रता व स्वाधनता पर कदापि जांच नहीं आएगी। अपितु भाषाओं के विकास में शति आएगी । भाषाओं के विश्व व्याप्ती, प्रचार प्रसार में सहायता मिलेगी। एकता और आंतरराष्ट्रीय सदभाव में सहायता मिलेगी । हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के लिए युनिकोड के व्यापक प्रयोग के कारण नागरी लिपि शोध, बाजार, अन्वेषण, इलेक्ट्रॉनिक मिडिया एवं सूचना प्रौद्योगिकी की लिपि बन गयी है । इस आंतरभाषायी एकता के कारण सम-संस्कृति और विश्व बंधुत्व को एक विशेष दिशा मिलेगी ।
लिपि से सदैव भाषा की उन्नति की अपेक्षा की जाती है । पर सद्यस्थिती में नागरी के व्यतिरिक्त अन्य लिपियों की अवैज्ञानिकता निम्न रूप से स्पष्ट की जा सकती है ।
सबसे पहले बात की जाये रोमन लिपि की तो, युरोप की अधिकांश भाषाये रोमन लिपि में लिखी जाती है । पर स्वयं विनोबाजी ने कहा था कि, रोमन लिपि इंग्लिश भाषा के लिए भी अत्यंत खराब है । उस लिपि में बिल्कुल अराजकता चलती है । रोमन लिपि की अवैज्ञानिकता से तंग आकर जार्ज बर्नार्ड शॉ जैसे महान लेखक, चिंतक ने अपनी वसीयत में गई लिपि की खोज के लिए काफी उपया रखा था ।
रोमन लिपि की वर्तनी और उच्चारण में अंतर है । परिणामतः रोमन लिपि से अन्य लिपि में स्थित्यंतर करने में काफी समस्याएँ आती है । रोमन लिपि में भ्रम को उत्पन्न करनेवाले वर्ण एवं उच्चारण है । जब भ्रम उत्पन्न करते है यह असुविधा तब अधिक दिखाई देती है जब राम, रमा, रामा को रामा तथा भरत, भारत, भरतो को भरता लिखा जाता है । अधिकांश ध्वनियों के उच्चारण के लिए तो एक से अधिक चिन्हों की सहायता ली जाती है । जैसे क ध्वनि के लिए का प्रयोग होना है । अन्य भाषाओं  में रोमन का उच्चारण अलग होने के कारण लिप्यतरंग में समस्यायें आती है । चीनी लिपि में तो कुल मिलाकर ५०,००० चिन्ह है । जिसे समझने के लिए हजारों चित्रों का अभ्यास आवश्यक है । अतः यह कम व्यावहारिक है । रही अरबी लिपि की बात इसमं केवल २८ अक्षर है । इसमें व्यंजनों की प्रधानता है । स्वरों की अभिव्यक्ति की समुचित व्यवस्था नहीं । स्वरों का अंकन यथेष्ठ और असंदिग्ध है । उर्दू की लिपि में क्रमबद्धता नहीं है । अतः इन लिपियों के स्थान पर देवनागरी में सभी भाषाओं के मूल उच्चारण सुरक्षित रह सकते हैं ।
उपर्युक्त विवेचित लिपियों की तुलना में ब्राह्मी लिपि से विकसित नागरी लिपि का स्वरूप एक साथही वर्णनात्मक एवं अक्षरात्मक है । उसके उच्चारण और लेखन में समानता है । जैसे ब का लेखन और उच्चारण भी ब है । परंतु अन्य भाषाओं में जैसे रोमन में बी ग्रीक में बीच, उर्दू में बे केनिशियन में बेथ बेथ, साहित्यिक में बुकी इ. पर उच्चारण ब का ही होगा ।
परंपरा से विकसित लिपि चिन्हों के साथ नागरी में क, ब, ग, ज, फ जैसे फारसी के वर्ण ऑ अंग्रेजी वर्ण नागरी में अपनाया गया । पूर्णविराम के लिए पहले खडी पाई (।) का प्रयोग होता था, वहाँ अंग्रेजी के प्रभाव में फूलस्टॉप (.) का प्रचलन बढ रहा है । अर्धविराम (;), कामा (,), इनवर्टेड कामा (''   '') भी नागरी में स्वीकृत हो चुके है । प्रत्येक ध्वनि के लिए स्वतंत्र वर्ण होने के कारण उनमें परस्पर भ्रम की संभावना नहीं है ।
१ से ९ अंग्रेजी अंक न होकर भारतीय अंकों का अंतरराष्ट्रीय स्वरूप है । असल में अंग्रेजी के कोई मूल अंक है ही नहीं । इसके साथ ही नागरी लिपि में ५३ वर्ण है, जो संसार की समस्त लिपियों से अधिक है ।
नागरी में संपूर्ण अक्षरों को स्वर एवं व्यंजनों में बांटा गया है । स्वरों में Nहस्व, दीर्घ, व्यंजनों में वंâठ्य, तालव्य, मूर्धव्य, दंन्त्य, ओष्ठ्य, अंतस्थ, उष्म, अल्पप्राण, महाप्राण आदी सूक्ष्म वर्गीकरण है । नागरी की इन्हीं विशेषताओं के चलते थॉमस आरजेक टेलर ने नागरी लिपि को सराहा है । जॉन क्राइस्ट ने नागरी की वर्णमाला को पूर्ण माला है । सर विलियम जोन्स भी नागरी को रोमन से श्रेष्ठ मानते है । मैक्समूलर से लेकर ग्रियर्सन जैसे व्यक्ति या जॉन क्रिस्ट, जे. आर. फर्थ, ब्लूम फील्ड, हेनरी स्विफ्ट, डेनियल जोन्स, प्रेâडरिक जैसी विदेशी विद्वानों की शृंखला देवनागरी लिपि का गुणगान करती है । पूर्वाग्रह से मुक्त होकर देवनागरी की विश्व स्तर पर उपयोग की संभावनाएँ बढ रही है ।
आज नागरी लिपि मनोरंजन, मिडिया, कम्प्यूटर, इंटरनेट सभी स्थानों पर अधिपत्य जमा रही है । नागरी की विशेषताओं के कारण लिखित रूप में अन्य भाषा सीखने के लिए यह उपयुक्त है । अप्रवासी भारतीयों के द्वारा भी भारतीय जडों से जुडने के प्रयास नागरी लिपि के माध्यम से हो रहे हैं । १९७६, १९९३, १९९६, २००३ में हुए विश्व हिंदी सम्मेलनों ने नागरी लिपि की स्थिति और अधिक मजबूत की है ।
इस तरह वैश्विकरण के परिवेश में केवल नागरी लिपि ही है, जो विश्वलिपि बनकर समूचे विश्व में "वसुधैव कुटुंबकम" की भावना को बढाकर प्रत्येक देश, प्रांत, प्रदेश के व्यक्ति को एक दूसरे के निकट ले आयेगी । भाषिक अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन बनती देवनागरी लिपि तो वर्षो पूर्व ही दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र की राष्ट्रलिपि की पदप्रतिष्ठा पा चुकी है । वैश्विक बदलावों को सहज रूप से आत्मसात कर नागरी लिपि अब विश्वपथ की अनुगामिनी हो रही है । अतः अंत में कह सकते है कि, विश्वलिपि के संदर्भ में नागरी लिपि की संभावनायें सशक्त है ।

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