Main Menu

/

समाज, साहित्य और नारी


अहो पूज्य भारत महिला गण,अहो आर्य कुल प्यारी,
अहो आर्य गृहलक्ष्मी सरस्वती,आर्य लोक उजियारी ।

    श्रीधर पाठक की 'आर्य महिला' नामक कविता की यह पंक्तियांù समाज में नारी को प्राप्त सम्मान को दर्शाती है ।
२१ वीं सदी में नारी विमर्श अनेक सशक्त रूपों को लेकर चला है । नारी सशक्तिकरण, नारी सबलीकरण,नारी मुक्ति जैसे कई प्रवाह भी चल पड़े । जिससे न सिर्फ समाज, बल्कि हमारा साहित्य भी प्रभावित होता आया है । परिणाम स्वरूप हमारे समाज और साहित्य ने महिला सबलीकरण के नाम पर सशक्त तथा एक नए समाज की तस्वीर बनाने का प्रयास किया है । नारी समाज के नियंता माने जानेवाले पुरुष वर्ग द्वारा सदियों से संचालित हुई है । आधुनिक युग में शिक्षा व्यवस्था, आंदोलनों के फलस्वरूप नारी वर्ग में जाग्रती अवश्य हुई है। पर अभी भी सामाजिक धरातल पर वह पुरुष वर्ग द्वारा ही अधिशासित मानी जाती है। ऐसी स्थितियों में नारी विमर्श सदियों से चले आ रहे पुरुषी शोषण के विरुद्ध नारी के समान अधिकार, शोषण मुक्ति और नारी की अपनी 'स्व' की पहचान हेतु साहित्य क्षेत्र में चलाया गया आंदोलन है। नारी सदियों से सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक क्षेत्र में पुरुषी वर्चस्व के कारण ठगी जा रही है । ऐसे शोषण के माहौल से स्री को बाहर निकाल कर उसे 'स्व' अस्तित्व की चिंता हेतु जाग्रत करना ही नारी विमर्श में अभिप्रेत है । 
२१ वीं सदी के हिंदी साहित्य ने नारी अस्मिता को अधिक मुखरित करने का प्रयास किया है । जिसके कारण वर्तमान समाज और साहित्य में नारी समस्याओं को लेकर उभरनेवाले विविध वाद-विवादों को देखा जा सकता है । उषा प्रियवंदा, मैत्रेयी पुष्पा, ममता कालिया, कृष्णा सोबती, शिवानी, प्रभा खेतान,मृदुला गर्ग, महाश्वेता देवी इत्यादि की कृतियों में नारी विषयक विविध समस्याओं को उजागर किया गया है । नारी चाहे वह ग्रामीण स्तर की हो या फिर नागरी स्तर की, भारतीय नारी हमेशा परंपरा से बंधी रही है । वहीं दूसरी ओर प्रतिगामी मान्यताओं की रुकावट भी उसके विकास मार्ग में सदैव बाधक रही । जिसके परिणाम स्वरूप नारी ने अपने जीवन की इतिश्री आपसी पारिवारिक रिश्तों तक ही मान ली । यही स्री आज अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रता को बनाने रखने का भरकस प्रयास कर रही है । जीवन के कितने ही कठिन उत्तरदायित्व निभाते हुए उसकी कोमल भावनाएँ सूर्ख नहीं हुई है । घर-बाहर की दुनिया संभालती, बतियाती, लड़ती-झगड़ती, गाती, शरीर पर अनगिनत वार सहन करती,अपने आप में पीर को समेटे इस नारी का चरित्र भी हिंदी साहित्य में विविध रूपों के साथ अवतरित हुआ है। शिक्षित-अशिक्षित, नगरीय-महानगरीय, रूढ़ी-परंपरावादी, प्रगतिवादी, स्वच्छंदतावादी, आदर्श, कुंठाग्रस्त, काम विकृत, अह्मग्रस्त, द्वंद्वग्रस्त, मनोविकृत आदि गुणों-अवगुणों के साथ नारी को रूपायित किया गया है । पाश्चात्य दृष्टिकोण के चलते नारी अपने आप को सामाजिक नियमों को तोड़ने के लिए कटिबध्द तो मानती है,पर उसका जोर कहीं न कहीं पुरुषी शक्ति द्वारा कुचला जाता है । सदियों से चली आ रही इस हीनता की भावना को तोड़ने कहीं वह अत्यंत आक्रमक होकर सामाजिक नियमों का उल्लंघन कर, उच्छृंखल बन अपनी प्रतिष्ठा बनाने की कोशिश करती है । आधुनिक मूल्यधारा को अपनाते हुए वह उन आदर्शों, संस्कारों की भी अवहेलना करने की कोशिश करती है । पर अक्सर  देखा जाता है कि इनमें से कई जीवन को सही मायने में जीने से चूक जाती है और ठोंकर खाने के बाद पुनः उसी परंपरा को गले लगाती है।
आज बदलते समय, परिवेश के चलते नारी के परंपरा से ढले हुए व्यक्तित्व में भी परिवर्तन आ रहा है। भारतीय नारी जो अपनी जिंदगी का अधिकतर हिस्सा घूंघट के पीछे ही बीताती थी, अनेक सामाजिक नियमों के चलते जिसकी वाचा,कर्म पर भी मर्यादाएँ थी, विवाह के पूर्व मैका और विवाह के बाद ससुराल की दहलीज की मर्यादा संभालते हुए, गृहस्थी को संभालते हुए ही जीवन को होम कर देती थी । मन और मान में शून्य लिए उम्र बीता देती थी - नारी ।
आज समाज की खोखली रुढ़ी-रिवाजों में जकड़ी यही स्त्री घर की चौकट लांघकर स्वः की तलाश कर रही है । उसके आत्मभान ने उसके उन पंखों को शक्ति से ओतप्रोत कर दिया है, जिसके अस्तित्व का न तो उसे अहसास था, न समाज ने ही कभी यह जरुरी समझा । आज स्थिति यह है कि जीवन के प्रत्येक मार्ग पर नारी पुरुषों के कदम से कदम मिलाते हुए आगे बढ़ रही है । उन क्षेत्रों में भी अपने कदम आजमा रही है,जो कभी उसके लिए निषिद्ध माने गए थे । फिर भी कई जगहों पर स्री-अत्याचारों के निर्मुलन की बातें कितनी खोखली हो जाती है । वह जानती है,उसके साथ जो हो रहा है,वह अन्याय है फिर भी वह इस अत्याचार को सहन करती है ।
वैदिक काल से अब तक नारी को पुरुष के अधीन ही माना गया । आज भी प्रत्येक स्थिति में उसे आधार के लिए पुरुष का ही सहारा लेना पड़ता है । उसके मन-मस्तिष्क में यह बात बिठाई गई कि यह आश्रय यदि उससे छुट जाएगा, तो वह कमजोर पड़ जाएगी । समाज के कई भेडि़ए इसी ताक में रहते है कि कब वह स्री को निगल ले । ऐसे में अन्य पुरुषों द्वारा शोषित होने से बेहतर एक ही पुरुष के अत्याचार सहन करना वह योग्य मानती है। कम-से-कम पति नाम के शोषक द्वारा उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा तो बनी रहती है । दूसरी ओर पति के शोषण के विरुद्ध झंडा उठानेवाली स्री भी शंका की नजर से देखी जाती है । भले ही खोट पुरुष में हो, पर ऊँगलियां स्री पर ही उठती है । अन्य व्यक्तियों के साथ उसका मेल-जोल भी उसे व्याभिचारिणी सिद्ध कर देता है। वास्तविकता यह है कि स्री कितनी ही यशस्विनी क्यों न बन जाए, पुरुष के मन में वह अपने लिए स्थायी विश्वास तथा इज्जत कभी नहीं बना सकती । आज भी पुरŠष का एक अविश्वास स्री के समस्त चरित्र को खंडित कर देता है । स्री का चरित्र समाज लिए उस लाश-सा है,जिसका जब जो आए विच्छेदन कर चला जाए । युग  के अनुसार समाज के आदर्श बदलते रहे है । पर स्री के आदर्श कौन-से है ? जिन्हें आदर्श के रूप में वह अपनाएंगी क्या वह पुनः परंपरा के बंधनों में उसे बांधने का प्रयास नहीं है ? एक पात्र के रूप में सीता के द्वारा बार-बार दी गयी अग्निपरीक्षा क्या समाज की मानसिकता से संबंधित है या एक पति के मनोविज्ञान से ? नारी के प्रति समाज के इस परंपरागत दृष्टिकोण में बदलाव आ रहा है । उसकी ओर आधुनिक, पाश्चात्य दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। पर इस दृष्टिकोण के अंतर्गत स्वस्थता कितनी देर रुक पाती है यह अध्ययन का विषय है।
 भारत में साठ के दशक में लगभग हर क्षेत्र में विघटन की प्रक्रिया शुरू हो गई । जिसने समस्त प्राचीन मान्यताएं एवं मूल्यों को ही तोड़ना शुरू किया । मोहभंग की इस स्थिति ने जीवन और जगत का अवमूल्यन किया। वही परंपरा और आधुनिकता के बीच तड़पती स्री नारी सुधार के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों से अपने अधिकारों के प्रति जाग्रत हुई । बदलती अर्थव्यवस्था के फलस्वरूप नारी को भी घर से बाहर रोजगार, नौकरी के लिए निकलना पड़ा । जिससे अन्य पुरुषों के साथ आए संपर्क से उसकी आंतरिक ग्रंथियां, भय, घुटन टुटने लगी। वही प्रेमविवाह, अंर्तजातीय विवाह का प्रचलन बढ़ा । समाज की अनिवार्यता की शक्ल में संयुक्त कुंटुब पद्धती का स्थान विभक्त कुंटुब पद्धती ने लेना शुरू किया । आत्मवेŠंद्री होता मनुष्य जहां स्वातं सुखायः के वलय में घुमने लगा, वहीं समाज के प्रस्थापित ढर्रे में आए बदलावों के परिणाम स्वरूप संयम से इन अनुकूल-प्रतिकूल बदलावों को सहती नारी अपने गंतव्य को खोजते हुए आत्मनिर्भर होने की कोशिश करने लगी । इसके बावजूद भी कई जगह पर वह पुरुषी वर्चस्व से मुक्ति के प्रयास नहीं कर पा रही है । जिसका महत्वपूर्ण कारण नारी की सुरक्षितता से जुड़ा है । आज नारी कहीं भी सुरक्षित नहीं है,न घर के बाहर,न स्वयं अपने ही घर के अंदर । प्रत्येक जगह उसे अपने सतीत्व की रक्षा करनी पड़ती है । समाज की विकृति के फलस्वरूप बचपन से ही दैहिक सुरक्षितता को समझनेवाली ममता कालिया की कहानी 'आपकी छोटी लड़की' की टुनिया अपने शिक्षक के उस रवैये को भी समझती है, जब 'उसके सवाल पर शिक्षक का हाथ उसकी पीठ पर बराबर चलता रहता है । कंधे से लेकर कमर तक के हिस्से पर ।'
आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने के बावजूद नौकरीपेशा नारी के प्रति समाज का दृष्टिकोण दिन-ब-दिन विकृत होता जा रहा है । जिसका कारण वह पुरुषी मानसिकता है,जो स्री पर अपना अधिकार/वर्चस्व जमाए रखना चाहती है, चाहे वह स्री उसकी हो या न हो। अविवाहित नौकरी करनेवाली स्री को अपनी निजी जायदाद समझकर उसके साथ व्यवहार करने वाले भी कई पुरातन मनु मिलेंगे। अविवाहित, नौकरीपेशा स्री जो अपने 'स्व' को खोजना तो चाहती है,पर मानसिक झुंझलाहट से त्रस्त हो जाती है । नारी की इस स्थिति का चित्रण ममता कालिया की कहानी 'जिंदगी सात घंटे की' पात्र आत्मीया के माध्यम से हुआ है । तो 'वे तीन और वह' और 'बीमार' कहानी के नारी पात्र एकाकीपन से संत्रस्त, सुशिक्षित, नौकरीपेशा स्री की पारिवारीक जीवन की जटिलता को व्यक्त करते है ।     
आधुनिक परिवेश में शिक्षा और नारी स्वावलंबन से वैवाहिक संबंधों में नई जटिलताएं प्रवेश कर गई है। वहीं स्री-पुरुषों में टकराव की स्थिति भी उत्पन्न हो गई है । अपने गंतव्य को भली-भांति समझने वाली नारी अब अपने अनुकूल प्रेम संबंध बनाती है । जिसका यथार्थवादी चित्रण हिंदी साहित्य में हुआ है । उषा प्रियवंदा की कहानी 'झूठे दर्पन' नारी मनोवस्था का जीवंत चित्रण करती है । कहानी की मुख्य पात्र अमृता का वैवाहिक जीवन पर विश्वास नहीं । उसके मां-बाप का अलग होना और एक-दूसरे पर विश्वास न करना देख वह अकेलेपन, बेबसी, उदासी महसूस करती है । बदलते जीवनमूल्य और टूटते पारिवारिक संबंधों के चलते विवाह जैसे प्रसंग के प्रति कोई उत्सुकता न दिखाकर वह अपने आप को अदृश्य पर सौंपती है । तो ममता कालिया की कहानी 'प्रतिप्रश्न' की महिमा अविवाहित रहने को वरदान समझती है। अपने अहं के प्रति सचेत वह एक पुरुष की सेवा में जीवन समर्पन सोच भी नहीं सकती ।वहीं 'पचीस साल की लड़की' कहानी की नायिका पचीस साल की होकर भी अविवाहित होने के कारण अपराध भाव से ग्रस्त हो जाती है,जिसका कारण समाज की संदेह वृत्ती है ।
नारी वर्ग जो अब तक हाशिए पर चल रहा था,अब साहित्य के केंद्र में आ चुका है । परंतु यह भी समझना होगा कि नारी मुक्ति का अर्थ परंपरा के विरुद्ध नग्नता नहीं है। आधुनिक समय में नारी के लिए विवाह की अनिवार्यता अनिच्छा में परिवर्तित होती दिखाई देती है । विवाह की सामाजिक मर्यादाओं को निभाने में भी उसकी विशेष रुचि दिखाई नहीं देती । इसलिए जहां स्री-पुरुषों के रिश्ते बनते-बिगड़ते आ रहे है, वही मनोनुकूल संबंध न बनने पर पति को छोड़ने के लिए तलाक जैसी विधियों का वह स्वयं सहारा ले रही है । तो दूसरी ओर कुछ नारीयां अभी भी पति बिना न रह पाने की मानसिकता से अपने जीवन संघर्ष को ओर अधिक कटु बना रही है। तो कई अधिकार पाने के बावजूद रुढिवादी संकल्पनाओं से बाहर नहीं आ पा रही। मन्नू भंड़ारी की 'नशा' कहानी की पात्र आनंदी शराबी पति की मार खाते हुए भी स्वयं मेहनत करके उसके खाने-पीने का जुगाड़ करती है । पति के अत्याचारों से त्रस्त हो बेटे के पास तो जाती है,पर वहां भी स्वयं मेहनत कर पति के लिए बीस रुपए की मनीआर्डर करती है ।
नारी अपने आप को दूसरों के लिए महत्वपूर्ण बनाने के भ्रम में हास्यास्पद बनाती जा रही है, इसका चित्रण मन्नू भंड़ारी की कहानी 'अकेली' में परित्यक्ता, बूढ़ी, अकेली सोमाबुआ के माध्यम से किया गया है । ममता कालिया की कहानी 'उमस' परिवार के बंधे-बंधाएं ढांचे में स्री की ऊब और घुटनभरी जिंदगी का शब्दचित्र है । मध्यम वर्ग में जहां स्री के अस्तित्व को जानने-समझने या विकसित होने का मौका नहीं दिया ।समाज द्वारा बने-बनाए ढांचे में उसे ढालने की कोशिश की जाती है । कहानी की पात्र रानी जिंदगी की उलझने सुलझाते हुए एक हाय-हाय व्यक्तित्व बन जाती है । इसी तरह शिवानी की कहानियां सामाजिक बंधनों में जकड़ी स्री की व्यथा  को उजागर करती है । इनकी 'पूतोंवाली', 'कैंजा', 'विषकन्या', 'सावित्री' आदि कहानियां चर्चित रही । महाश्वेता देवी की जलदान, पिंड़दान, कनाई बैरागर मां' आदि कहानियां मां के आत्मत्याग को दर्शाती है ।
हमारी व्यवस्था में नारी के पुरुषीकरण की संकल्पना भी जड़ पकड़ती गई । इसे रोकने की कोशिश भी हुई। हमारी व्यवस्था ने हजारो वर्षो से नारी के स्वतंत्र अस्तित्व को नकारा है । समाज द्वारा जब लैिंगक शुचिता को  महत्व दिया गया, तब इस नियम बने विचार के कारण नारी के लैिंगक स्वातंत्र्य पर बाधाएँ आती गई । पर ऐसे नियम पुरुषों पर नहीं लगाए गए।  नारी की पहचान का आधार किसी-न-किसी रूप में पुरुष को ही बनाया गया । आज जब स्री-वाद की संकल्पना सामने आई,तो नारी की दृष्टि से इस संसार को देखा जा रहा है । इसके पहले भी नारी मन की परतों को सुलझाने का प्रयास हुआ है, किंतु स्री जीवन की विड़बनाओं, विसंगतियों का जितना सशक्त चित्रण स्री लेखिका दे सकती है, उतना पुरुष नहीं, क्योंकि उन स्थितियों की नारी स्वयं भुक्तभोगी है । इस संदर्भ में महादेवी वर्मा का मानना है कि, ''पुरुष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है,परंतु अधिक सत्य नहीं । विकृति से अधिक निकट पहुंच सकता है,परंतु यथार्थ के अधिक समीप नहीं। पुरुष के लिए नारी अनुमान है, परंतु नारी के लिए अनुभव । अतः अपने जीवन का जैसा सजीव चित्र वह हमें दे सकेगी,वैसा पुरुष बहुत साधना के उपरांत भी शायद ही दे सकेंगे ।''१ अतः स्री जीवन के संघर्ष, दांपत्य के कड़वे अनुभवों को पिरोए हुए नारी की कहानी, नारी की जबानी प्रस्तुत की गयी । इसके पूर्व साहित्यकारों के सृजन का केंद्र नारी देह ही थी । उसके अंतर्मन को टटोलने का प्रयास कम ही हुआ । नारीत्व और सतीत्व को एक ही कसौटी पर परखा गया और हर समय नारी को ही समाज के अनुरूप ढाला गया । किंतु इस परंपरा को स्री विमर्श द्वारा खंडि़त करने की चेष्टा की गयी । यह भी स्पष्ट हुआ कि नारी होने के नाते भूमिका हमें अपनी तय करनी है, न कि किसी बंधी-बंधाई परिपाटी को ही अपनी लीक समझकर उस पर चले ।
 औरत होने के कारण हमारी नियति समाज ने पहले ही तय कर रखी है । इसलिए प्रभा खेतान भी कहती है - ''औरत कहां नहीं रोती और कब नहीं रोती ? वह जितना रोती है, उतनी ही औरत होती है ।''२ किंतु आज आधुनिकता की एक ओर देन के फलस्वरूप प्रेम, इच्छा, सेक्स, वासना का उन्मुक्त होकर वह स्वीकार कर रही है । यौन स्वतंत्रता के नाम पर नारी देह का मुक्त चित्रण साहित्य में हो रहा है । निषिद्ध मानी जानी वाली कई धारणाओं का 'बोल्डनेस' के नाम पर चित्रण हो रहा है । वैवाहिक बंधनों से परे जिंदगी जीने की अभिलाषा नारी में मुखरित हो रही है । फिर भी स्वतंत्र जिंदगी जीने की अभिलाषिनी को संसार ने इतना उलझा कर रख दिया है कि सत्य को वह पूर्ण विश्वास के साथ अपना ही नहीं सकती । आज भी देखा जा सकता है कि सत्ता,संपत्ति,निर्णय प्रक्रिया के अंतर्गत नारी का क्या स्थान है ? प्राचीन काल से भारत स्री पूजक , मातृपूजक रहा है, पर स्री सत्तात्मक नहीं । आज जहां शहरी इलाकों में भी सुशिक्षित, सुरक्षित माने जानेवाले घरों में भी ७०% नारीयां अत्याचार की शिकार हो रही है । वहीं आपसी द्वेष के फलस्वरूप नारी पर होने वाले अत्याचारों में बढोत्तरी हो रही है । महान होने की, न सिर्फ होने बल्कि कहलाने की आकांक्षा प्रत्येक जीव में होती है । इसी महानता की प्राप्ति में कभी दूसरे के पैर खिंचकर आगे बढ़ने की कोशिश करनेवाली कर्कवृत्ति भी देखी जा सकती है । स्री उसके त्याग, गरिमा से महान होती है, पर उसकी महानता दूसरोंके लिए प्रेरक सिद्ध होती है, मारक नहीं । वह पुरुष को भी इस महानता से मंडि़त कर आल्हादित करने की चेष्टा करती है । पर पुरुष स्री की इस ऊँचाई को शायद ही सह पाता है । पुरुष चाहे कितना ही महान हो जाए स्री को पीड़ा पहुंचाने में वह संकोच नहीं करता । क्योंकि उसका अह्म इस महानता पर पड़ी उदारता की भावना को अधिक जब्त नहीं कर पाता । 

संदर्भ सूची :-
१] श्रृंखला की कडि़यां  - महादेवी वर्मा - पृ. ५९
२] मधुमती, फरवरी २००९ - पृ. ३९
३] साहित्यधारा - गद्य संग्रह - सं. शंकरराव दीघे
४] कालजयी हिंदी कहानी - सं. रेखा सेठी / उप्रेती
५] गद्यनिकष - संपा. प्रेमशंकर मिश्र

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

फ़ॉलोअर