Main Menu

/

समकालीन हिंदी काव्य में मूल्य बोध

   वर्तमान समय जीवन के विभिन्न स्तरों पर अंतर्विरोधों एवं मूल्यहीनता का माना गया है। मूलतः मनुष्य को समाजशील माने जाने के पीछे यह कारण दृष्टिगोचर होता है कि समाज का एक अंग होते हुए वह स्वःउन्नति के साथ समाज की भी उन्नति में सहायक होता है, जो भौतिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक धरातल पर चलती रहती है। उन्नति तथा विकास के मार्ग को निश्चित करते हुए मनुष्य स्वयं मूल्यों का निर्माण एवं निर्धारण करता है। मूल्य वे संस्कार-परंपराएँ है, जो उसे प्रेरणा देती है।मात्र इस सृष्टि में शाश्वत कुछ भी नहीं। परिवर्द्धन,परिवर्तन संसार का नियम है और मूल्य भी इसके लिए अपवाद नहीं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परंपरागत मूल्यों का अस्तित्व अपनी बुनियादी नींव के साथ नष्ट हो रहा है और उनकी जगह आधुनिक उपभोक्ता संस्कृति से परिचालित नव मूल्यों ने ले ली है।
    संस्कृत के 'मूल्यम्' का हिंदी रूप है 'मूल्य'। जिसका व्युत्पत्तिमूलक अर्थ मूल+यत् अर्थात उखाड़ देने योग्य, मोल लेने योग्य है। अंग्रेजी value के पर्याय में मूल्य के लिए कीमत,मोल,लागत या मजदूरी, किराया, वेतन या लाभ, पूँजी, मूलधन शब्द भी प्रयुक्त होते है। मूल्य का संबंध मन से होता है, विश्वास से होता है। इसलिए राजेंद्र शर्मा का मानना है, ''वह ऐसा विश्वास है, जिन पर किसी कार्य विशेष की वांछनीयता या अवांछनीयता का निर्णय आधारित होता है।''१  किंतु प्रत्येक युग के मूल्य अपने आप में नए संस्कार लेकर उभरते है। पुराने रूपों में ही परिवर्तन-परिवर्द्धन होकर मूल्य नए रूपों में अवतारित होते है। डॉ. धर्मपाल मैनी देश, काल और परिस्थिति में जनसामान्य की उदात्त मान्यताआें को मानव मूल्य मानते है। लोककल्याण एवं व्यक्ति के उदात्तीकरण को वे मूल्य की कसौटियाँ मानते है।२  समाज के प्रति अपने कर्तव्य को समझ उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के लिए आज का साहित्य एवं रचनाकार तत्पर है। किंतु तत्पूर्व समकालीनता के अर्थ को मूल्यबोध के परिप्रेक्ष्य में समझना भी आवश्यक है। अंग्रेजी के Contemporary के समानार्थी इस शब्द का अर्थ है, जो समय के साथ हो। अर्थात नवीन जीवन सन्दर्भों को प्रकट करनेवाला शब्द है - समकालीनता, जो पूरे युग को, युग धारणाआें को प्रतिबिंबित करें। समकालीन काव्य युग सत्य का अवलोकन-अन्वेषण कर प्रचलित मूल्यबोध को रचना के धरातल पर प्रस्तुत करने का प्रयास करता है।
   वर्तमान समाज में गहराई तक पैठ गई कुंठा, संत्रास, द्वेष, घुटन, अजनबीपन, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, धार्मिक वितंडनवाद, लिंगानुभेद, बाजारवाद, भूखमरी, बलात्कार, शोषण, भाषावाद-प्रांतीयवाद, देह व्यापार, निरक्षरता, यौन शोषण, हिंसा,कन्याभ्रूण हत्या, दहेज उत्पीड़न, रूढि़याँ समाज को विदू्रप बना रही है। बाजारीकरण की बाढ़ ने जहाँ 'विश्व कुटुंबकम' की संज्ञा से हमें जोड़ दिया,वही वैयक्तिक स्तर पर व्यक्ति का परिवार, उसका विश्व अपने आप में ही सीमित होने लगा। अपने ही व्यक्तित्व में वह सिमटने लगा, सिकुड़ने लगा। जिससे उत्पन्न स्वार्थजन्य प्रवृत्तियों ने नैतिकता को लुप्त कर दिया। समकालीन काव्य इन मूल्य परिवर्तनों तथा इसके प्रभावस्वरूप उपजे परिणामों की प्रतिक्रिया है।
   सूचना प्रोद्योगिकी के अधुनातन विकसित माध्यमों ने जहाँ संसार को चंद पल में जोड़ने का दावा किया है, वहीं परिवार के सदस्य भावनिक धरातल पर एक दूसरे से दूर हो रहे है। आज परिवार की परिभाषा बदल गयी है। आधुनिकता के चलते विभक्त एवं छोटे परिवारों ने बच्चों को उन संस्कारों से दूर रखा, जो कभी बड़े बूढ़ों से मिलते थे। जरुरत के समय कामकाजी माँ-बाप न बच्चों को वक्त दे पाते है, न बड़े होने पर बच्चे बूढ़े माँ-बाप को। रिश्तों में आई व्यावहारिकता ने भावनिकता को भूला दिया है। इसलिए बच्चे माँ-बाप के अन्यों से संबंध की ओर ठंडेपन से देखते है।
 ''मैं दुनिया की सबसे खुशनसीब लड़की हूँ 
वो इसलिए कि मेरी माँ इन दिनों 
अपने पुरुष मित्र के प्यार में 
 डूबी हूई है और मैं उन्हें आपस में एक-दूसरे को  
चुपके-चुपके प्रेम करते हुए देखती हूँ।'' 
      सामाजिक मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है। मूल्यों को संजोगनेवाले घर टूट रहे है। भौतिक साधन जुटाने की आपाधापी में व्यक्ति परिवार की खुशी से दूर होता जा रहा है। प्रेम का स्थान वासना ने ले लिया है। उमाशंकर चौधरी की कविता 'पुरुष की स्मृति में कभी बुढ़ी नहीं होती लड़कियाँ 'उस पुरुषी मानसिकता पर व्यंग्य कसती है, जो घर-परिवार की बातों से ज्यादा अपनी स्मृति में उस लड़की के शरीर को स्थान दिए है, जो मरने के बाद भी स्मरणमात्र से उसकी वासना को तुष्ट करती है। आज हर परिवार में एक अनजाना तनाव पैठ चुका है। विवाह के परिमाण बदल चुके है। इसलिए 'कन्यादान' जैसे श्रेष्ठ दान पर भी कुमार अंबुज कहते है -
''तुम्हारे लिए मैं चुनता हूँ एक तोता
हो सकता है मैं तुम्हें किसी गिद्ध को सौंप रहा होऊँ
आखिर हम मिल-जुलकर तुम्हें
एक कठपुतली के जीवन में अमर करते हैं। ''३ 
    आधुनिकता की इस बाढ़ में आत्मा, परमात्मा जैसे अलौकिक तत्व से जुड़े परंपरागत मूल्य क्षय हो रहे है। समकालीन कविता हमारी प्राचीन, गरिमामयी संस्कृति और उससे जुड़े मूल्यों को सामने रख वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आधुनिकता के कारण उपजी त्रासद स्थितियों पर कठोराघात करने से नहीं चूँकती। इस आधुनिकता ने हमें संवेदनहीन बना दिया है। ऐसा क्यों हो रहा है, सोचकर कवि भी परेशान हो रहा है। किसी स्त्री की अवमानना भी उसके पुरुषार्थ को गला पाने में अक्षम हैं।
''सामने सड़क पर एक औरत की इज्जत जा रही है 
और लोग अपने-अपने ओटों पर खड़े हैं चुपचाप 
 ऐसा क्यों हो रहा है ? ।।। 
पेड़ों को पत्थर बनने में लगा है हजार वर्ष
आदमी देखते-देखते पत्थर बन रहा है/ऐसा क्यों हो रहा है ?''४   
    वर्तमान में नैतिकता का अर्थ बदल रहा है। जिन तत्वों को कभी त्याज्य माना जाता था,आज प्रत्येक क्षेत्र में उन्हें वरीयता दी जा रही है। नीजी स्वार्थ,हित को सराहते हुए मानव का व्यक्तित्व अधःपतन की ओर अग्रेसर हो रहा है।कर्म से जुड़ी धर्म की भावना तिरोहित हो रही है। स्वयं को सभय माननेवाला समाज खोखलें उसूलों को लेकर बैठा है। व्यक्तिगत मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित वात्सल्य, स्वाभिमान, पराक्रम, चारित्र्य, विद्ववत्ता, परोपकार, कलाप्रेम, क्षमा, नीति से हम दूर जा रहे है। पारस्पारिक सद्भावना, सहानुभूति, परस्पर प्रेम, बंधुता, संवेदनशीलता, त्याग, संतोष, करुणा को हम भूलते जा रहे है। व्यवस्था की निर्मम चक्की में पीस रहा जनसामान्य जीने के लिए अपनी ही संतान को कुपथ पर डाल रहा है। जीवन की सीधी राह छोड़ अंधेरी गली अपनाती बिनिया कहती है-
 ''बोली थी-''माँ का कहना नहीं मानती
तो खाती लात,तमाचे,हंटर
और भूखे रह शहराहों की खाक छानती 
 और बोली उसकी माँ-थानेदार को क्या कहती मैं
जो बिनिया को ले गए उठाकर मोटर में
उन सेठों से क्या लड़ती मैं?
 बोला पति उसका-जीने की खातिर सब कुछ होता है
अरे गरीब हम क्या कर सकते है
ईश्वर ही जब खिलाफ होता है।''५   
    खेती से जुड़े हुए भी जीवन संघर्ष में लगे है। चारों तरफ से उनका शोषण हो रहा है। मुनाफाखोरी के चलते नई बाजार व्यवस्था विकसित हो रही है। जो किसानों को अधिक से अधिक आत्महत्या की ओर ही ले जा रही है। पर आश्चर्य तब होता है,जब उनकी आत्महत्या भी मृत्यु नहीं माना जाती। देश में बढ़ रही ऐसी दलाली, व्यापार संस्कृति पर कवि कहता है-
''जो कोई बाजार में आएगा
चार पैसे में बिकाएगा
पर दो ही पैसा पाएगा
दो तो दलाल ले जाएगा''६   
   आतंकवाद के फलस्वरूप उभर रही विस्थापन की स्थितियों पर भी समकालीन कवि ध्यान दिए हुए है। कश्मीर के कवि अग्निशेखर ने विस्थापन की समस्या को स्वयं झेला है। उनका काव्य विस्थापन की भयावहता एवं भय के प्रतिरोध को प्रस्तुत करता है-   
 ''उसकी आँखें पूछती हैं,जिस तिस से
क्यों होते हैं बार-बार
अपने पेड़ों पर बने घोंसलों से
परिदों के विस्थापन क्यों छिनते हैं आकाश
चुरा ली जाती है
पाँव तले की जमीन।'' ७ 
   वैश्वीकरण के रूप में हो रहे साम्राज्यवादी शक्तियों के सांस्कृतिक आक्रमण पर भी समकालीन कवि नजरे टिकाए हुए है। यह ऐसा दौर है जहाँ पाश्चात्य सभयता-संस्कृति के प्रभाव में आकर हम अपनी संस्कृति को उस बोतल की तरह 'क्रश' कर देते है,जिस पर निर्देश होता है-'क्रश द बोतल आफटर यूज'। कवि उमाशंकर चौधरी अपनी कविता से पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण की ओर ध्याना आकर्षित करते है। इसी उदारीकरण के चलते हम पर बाजार मूल्य अपना प्रभाव किए हुए है। जिससे आपसी संबंधों की आत्मीयता नष्ट हो रही है और लाभ-नुकसान पर संबंध तय हो रहे है। मानवीय मूल्यों की नींव चरमराने लगी है।
 ''हवा और पानी पहले भी कुछ न कुछ
दूषित थे लेकिन जब से खुले बाजारों की
हवा बही तेजी से तब से तो मूल्यों ने पूरी तरह आचार-व्यवहार बदल दिए है।''८  
   नारी को जिस देश में कभी 'शक्ति रूपी देवी' का स्थान दिया गया,आज वहीं नारी केवल 'मादा' बनकर रह चुकी है। दिन दहाड़ें खुले आम महिलाआें की अवमानना,यौन उत्पीड़न ने उस  वास्तव की पोल खोल दी है,जो नारी सशक्तिकरण के नाम पर प्रचारित की गई। जननी के रूप में गौरवान्वित नारी अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित है। कलंक के डर से बेटियों का जन्म भी पाप माना जा रहा है। सपना चमडि़या की कविता 'बेटियाँ' में एक माँ अपनी दो साल की बच्ची के मुँह से अॉफिस जाने की बात सुन आतंकित हो जाती है।तसालों बाद उसकी बेटी बस में भी सुरक्षित नहीं होंगी। क्योकि -
  ''उस पैंतालीस साल के कुंठित आदमी का
जो भीड़ का बहाना किए
उस पर ढहता रहेगा
माँ के दूध की ताकत बची होगी क्या
 जो बिटिया को यह/बदकारी झेलने की ताकत दे।''
   जब संस्कारों पर चलनेवाले बाप की नौकरी चली जाएगी,तब किसी तरह बेटी काम पर पहुँच भी जाएगी,फिर भी माँ को डर रहेगा-
 ''किसी भी मोड़ पर से
घर लौटने देगी क्या
दिल्ली की ये
लाल-नीली बसें।।।
और बच भी गई इनसे किसमत से
तो क्या गारंटी की
कोई बड़े बाप का बेटा
छूटे सांड-सा सड़क पर
घूमता हुआ अपने धारदार सींगों से 
उसकी छाती न फाड़ जाएगा।''
  आधुनिकता के अभिशापों को झेल रही यह पीढ़ी ज्ञान को महत्व नहीं देती। अपने हिसाब से यह सब सीख जाते है- 
''जब होश संभालते ही
बिटिया पढ़ेगी
'बिना दर्द एबॉर्शन' और कॉन्ट्रसेप्टिक के विज्ञापन।''९  
    हमारी संस्कृति में नारी को माँ, बहन, बेटी की दृष्टि से देखा जाता था। इन रिश्तों को संभाले रखने समाज ने नारी को सदैव सहनशीलता के अवगूंठन में रहने की शिक्षा दी है। किंतु आज अपने आप को आधुनिक कहलानेवाले समाज में स्त्रीभ्रूण हत्या एक विकृति के रूप में उभर रही है,जब कि वे यह भूल जाते ही की नारी से ही सब की उत्पत्ति है। कवियित्री अंजू शर्मा को डर है,यदि ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन नारी विलुप्त प्रजाति न घोषित की जाए-
''सुनो आधी दुनिया
तुम्हारे सीने पर ठोकी जाती है सदा
तुम्हारे ही ताबूत की कीलें
और तुम गाती हो सोहर,रखती हो सतिये
बजाती हो जोर से थाली
मनाती हो जश्न अपने ही मातम का ''    
  पर कवियित्री को विश्वास है -
''नहीं बना पाएंगे वे ऐसे कारखाने जहाँ खत्म हो जाती है
जरुरत एक औरत की ''
   आज हमारा देश एक ओर तो विश्वगुरू बनने की ओर कदम बढ़ा रहा है,वहीं देश में पनप रही संप्रदायवाद, भाषिकवाद जैसी वृत्तियाँ राष्ट्रीय चेतना को मारक सिद्ध हो रही है। ऐसी विकृतियों के जोर पर सत्ता पानेवाले भी कम नहीं।आज राजनीति गुंड़ों का आखाड़ा बन चुकी है। हमारी संसद जनता के प्रश्न सुलझाने की जगह पैसा कमाने का साधन बन चुकी है। सत्ता हथियाकर राजनीति के गलियारे में भ्रष्ट आचरण करनेवाले कितने ही कलंकी चेहरे यहाँ गर्व से घूमते नजर  आएंगे। धर्म-जाति के नाम पर वोट बैंक खोल,अपने कर्तव्यों से दिशाभ्रमित नेता इस देश को भला किस राह पर लेकर जाएँगे। धर्मस्थापना के लिए किए गए युद्धों की स्तुति हमारे कितने ही धार्मिक ग्रंथों में मिलेंगी।किंतु उन दंगों को क्या हम धर्मयुद्ध का नाम दे सकेंगे,जो कुछ लोगों ने केवल अपने स्वार्थ हेतु भड़काए। धर्म के नाम पर पशु बनकर हमने इन्सानों का ही खुन बहाया। इतना ही नहीं ऐसे कुकृत्य करनेवालों को संसद में ले जाकर बैठाया।गुजरात में हुए नृशंस हत्याकांड को हम आज भी भूला नहीं पाए है,जो शांतीप्रिय भारत के लिए कलंक बन बैठा है।जब-
''रथों पर सवार,रामनामी दुपट्टा ओढ़े,धर्मध्वजा उड़ाते आए वे
एक विचारहीन,पशुवत् सम्मोहित भीड़ लिए हुए अपने पीछे
अयोध्या का अर्थ और बोध बदलते हुए।---
हिंदुत्वद्रोही ईसाई धर्मप्रचारक को बच्चे सहित अग्निसमाधि देकर
उसकी आत्मा को पवित्र कर डाला---
और फिर गुजरात की प्रयोगशाला मे न्यूटन की उपयोगिता सिद्ध की
नरमेध यज्ञ को स्वाभाविक बतलाने में।'' १० 
राजनीति का गुण मानी गई अवसरवादिता,नीचता पर कवि कहते है-
 ''वे सिद्धहस्त थे
आँकने में
अनुमानित मूल्य
इस समीकरण का,
    कि कितना नीचे गिरने पर
कोई बन सकता है
कितना अधिक बड़ा '' ११ 
   महिला आरक्षण का फायदा उठाकर अपनी औरत के नाम पर सत्ता सुख पानेवाले भी यहीं मिलेंगे। राष्ट्र कल्याण को छोड़ केवल नाममात्र विरोध जतानेवाले हमारे नेता राष्ट्र विकास की रप‹तार को धीमा कर रहे है। समाज का नियमन, संचालन करने के लिए जिस व्यवस्था का निर्माण समाज के नियंताओं ने किया था,वही व्यवस्था भीतर से सड़-गल चुकी है। समाज का एक वर्ग सुविधाभोगी,भ्रष्ट व्यवस्था को बदलना चाहता है,वही अपने धन और सत्ता के बलबूते पर इस व्यवस्था को अधिक पंगु कर अपने हाथ में इसे रखने के लिए भी तथाकथित कुर्सीधारियों का वर्ग तैयार है। आश्चर्य की बात है कि इन बेईमानों में बड़ी एकता है। इस कुर्सी पर बैठनेवाले हर आदमी का चेहरा एक लगता है। मानो उनमें एक ही रुह हो। बेरोजगारी से परास्त कवि जब सबसे छोटी कुर्सी के सामने जाकर गालियाँ देता है, तब- 
''उस छोटी कुर्सी के बचाव में 
 सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठा आदमी 
अपने ओहदे की चिंता किए बगैर अपनी कुर्सी से उतरकर
मेरे सामने आ जाता है
वह चटû्टान की तरह मेरे सामने खड़ा हो जाता है
और मैं देखता हूँ 
यह शक्ल भी उन शक्लों में से ही एक है
जो इस देश की तमाम कुर्सियों पर बैठी है।'' १२ 
  आज पाश्चात सभ्यता हमारी शिक्षा व्यवस्था से जुड़कर भारत की जड़ों तक समा रही है। अपनी संस्कृति को भूल कर विदेशी रंग-ढंग में ढल रहे है। सहजता से पाने की कामना ने हमें फिर से अनैतिकता के द्वार पर लाकर खड़ा कर दिया है। जहाँ हम दूसरों के दुःख,तकलीफों को समझना नहीं चाहते। कल-मशीनों में अपना भविष्य देखते हुए हम स्वयं प्रकृति से दूर जा रहे है। इतना ही नहीं जो आदिवासी प्रकृति के साथ अपनी जिंदगी में उन्मुक्त हंसते थे,कुछ स्वार्थपरायण लोगों एवं शासन के षडयंत्रों द्वारा उनसे उनकी नदियाँ, पेड़, मिट्टी छीनी जा रही है। उनके प्राकृतिक आवासों से उन्हें दूर किया जा रहा है। क्योंकि -
''उन्हें सिर्फ उसके पैरों तले की जमीन मेंदबी हुई
सोने की एक नयी चिडि़या दिखाई देती है।
और जब वह आदिवासी अपने साथी रूपी वाद्ययंत्रों,नदियों,जगहों को इतना ही नहीं लोहे,कोयले,अभ्रक को बुला तुरही,बांसुरी जोरों से बजाता है,तो
''तब जो लोग उस पर शासन करते है
वे तुरंत अपनी बंदुक निकाल कर ले आते है।'' १३


    सारांशः -
 आज हमारे समाज में विषमता और विकृतियाँ अपने चरम पर है। एक ओर अर्थव्यवस्था की निर्भरता ने अमीर-गरीब,संपन्न-दरिद्र वर्ग की खाई को पाटने का काम किया,वही इन दोनों छोरों पर जनमानस में विकृतियों ने अपना डेरा बनाना प्रारंभ किया। संवेदनशून्य बन रहे मनुष्य को फिर से चेताने का काम साहित्य कर रहा है। संपूर्ण विश्व नाना असंतोषों की विध्वंसक छाया से घिरा हुआ हैं। ऐसे में भावी विनाश को रोकने के साथ मन-मस्तिष्क को पुनः मूल्यों की ओर मोड़ने में साहित्य उपयुक्त माध्यम सिद्ध हो सकता है। वास्तव में मूल्य ऐसे तत्व है,जो जीवन को परिमार्जित करते है।समकालीन कवि अपनी लेखनी द्वारा अवमूल्यन की स्थिति पर तीव्र आघात करना चाहता है। वह अपने सृजन को परिवर्तन का हथियार मानता है। जनसामान्य जहाँ अपने स्वाथाô को मापदंड बना दोलायमान स्थिति से गुजरता है,वहीं समकालीन कवि सबसे पहले अपने विचारों-तत्वों की भूमि को संभालता है। समाज के प्रति अपनी जवाबदेही को जानते हुए वह सतर्क है।

संदर्भ:-
  1.  डॉ.राजेंद्र शर्मा - नैतिक मूल्य शिक्षा - पृ.२९
  2. सं.डॉ.धर्मपाल मैनी- मानवमूल्य कोश
  3. कुमार अंबुज,कन्यादान,समकालीन भारतीय साहित्य - जन-फरवरी २००६
  4. अरुण कमल,सबूत - पृ.५९
  5. राजकमल चौधरी-विचित्रा-पृ.१२९
  6. बद्रीनारायण-शब्दपदीयम-पृ.४१
  7. अग्निशेखर-जवाहरटनल-पृ.६२
  8. भगवत रावत-ऐसी कैसी नींद-पृ.२४
  9. सपना चमडि़या-बेटियाँ-समकालीन भारतीय साहित्य-जनवरी-फरवरी-पृ.१८२-१८३
  10. कात्यायनी-गुजरात २००२-www.kavitakosh.org 
  11. अंजू शर्मा-बड़े लोग -www.kavitakosh.org
  12. उमाशंकर चौधरी-कुर्सी-www.kavitakosh.org
  13. मंगलेश डबराल - आदिवारी -www.kavitakosh.org

1 टिप्पणी:

फ़ॉलोअर