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गुरुवार, 11 जून 2020

'आंखों से सिर्फ' - जहीर कुरैशी- काव्य भावार्थ

हीर कुरैशी की गज़ल 'आँखों से सिर्फ' कई मायनों में महत्वपूर्ण है। वर्तमान भाग-दौड़ वाली जिंदगी ने हमारे सामने जीवन लक्ष्यों का ऐसा ढाँचा खड़ा कर रखा है, जो एक दृष्टि से ही हर विषय-वस्तु को देखने के लिए अनजाने में ही हमें मजबूर किये है। दुर्भाग्य यह है कि सूचना तंत्रयुग का मनुष्य स्वयं भी मशीन बन चुका है, जिसकी भावनाएं महज़ आँखों देखी तक सीमित है।  ऐसी स्थिति में सोच-विचार और दृष्टि को नयी राह दिखाने का काम यह कविता करती है। कविता का भावार्थ यहाँ दिया गया है, वह सर्वथा मेरे मानस बोध का निष्कर्ष है। कवि क्या कहना चाहता था की जगह मैं इसे जैसे समझा वैसे प्रस्तुत कर रही हूँ।  

कविता पाठ - 
 
आँखों से सिर्फ सच नहीं, सपना भी देखिए।
कलियों का रूप—रंग महकना भी देखिए।
सब लोग ही पराए हैं, ये बात सच नहीं
दुनिया की भीड़ में कोई अपना भी देखिए
नदियों को सिर्फ पानी ही पानी न मानिए
नदियों का गीत गाना थिरकना भी देखिए
बरखा की स्याह रात में उम्मीद की तरह
निर्भीक जुगनुओं का चमकना भी देखिए
पत्थर का दिल पसीजते देखा न हो अगर
तो बर्फ की शिलाओं का गलना भी देखिए
जो चुभ रहे हैं —शूल हैं,ये अर्द्ध—सत्य है
इन नर्म—नर्म फूलों का चुभना भी देखिए

भावविस्तार-
प्रस्तुत गज़ल जहीर कुरैशी की 'भीड़ में सबसे अलग' संग्रह से ली गई है। इस गज़ल का नाम 'आंखों से सिर्फ' मनुष्य के उस स्वभाव की और निर्देश करता है, जिसके अनुसार हम मूल मानवी स्वभावानुसार दुनिया को मात्र एकांगी दृष्टि से देखते हैं। हमारी आंखें जो देखती है, हम उसे ही पूरा सच मानते गए। जबकि वास्तव इस सच से भी बड़ा होता, अलग होता है। आंखे सिर्फ वह देखती है, जो वह देखना चाहती है। जबकि सच्चाई इस आँखों देखी से कुछ अलग ही होती है। अतः मनुष्य के रूप में हमारा विकास संभवतः तभी हो पाएगा, जब हमारी दृष्टि केवल दृष्टा के रूप में सीमित न हो निरीक्षक शक्ति के साथ आएंगी।
गज़ल कार कहता है कि आंखों से सिर्फ दुनिया का सच ही न देखिए, बल्कि दुनिया बदलने वाला सपना भी देखिए। यह सपने ही होते हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए हम परिश्रम कर सकते हैं। जिस दुनिया में हम जीते है, वह जैैैैसी दिखाई देती है, उस दुनिया का बाहरी सौंदर्य, उसका अंतिम रूप नहीं है, बल्कि उससे बढ़कर उसका आंतरिक रूप है। बाहरी चमक-दमक जितनी खोखली होती है, आंतरिक सौंदर्य उतना ही श्रेष्ठ होता है। मात्र हमारी सहज मानवी वृत्ति हमें बाहरी दिखावें से बाँध देती है। इसीलिए कवि कहता है- कलियों का केवल बाहरी रूप-रंग न देखिए, उनकी अनदेखी गंध को भी महसूस कीजिए। बाह्य रूप तो क्षणिक मात्र हैै, किंतु आंंतरिक सौंदर्य चिरंतन है। 
मानवी जगत में अक्सर स्वार्थ पूर्ति के संबंधों पर अपने-पराए जैसे रिश्ते बनाए जाते हैं। जो-जो हमारे काम आए, वह हमें अपने लगते हैं और जिनसे काम न बन पाए, ऐसे बाकी के पराए। किंतु समय वह कसौटी है, जो अपने और पराए का भेद खोलती है। अक्सर जिन्हें हम अपना कहते है, मुश्किल समय में वे साथ नहीं देते। इसलिए गज़लकार कहता है कि दुनिया के सब लोग पराए हैं, यह बात सच नहीं है। न जाने कब, किस समय दुनिया की इस अंजान भीड़ में कोई ऐसा मिल जाए जो संकट काल में हमारा साथ दें और उस अंजान के रूप में हमें अपना मिल जाए, कहा नहीं जा सकता। 
नुष्य के जीवन में प्रकृति के बहुत से तत्व जुड़े होते हैं, जो हर स्थिति में उसे जीना सिखाते हैं। इन भौतिक वस्तुओं को कोरी निगाहों से अगर देखें तो हो सकता है यह निरर्थक लगेंगे। किंतु दृष्टिकोण का एक बदलाव आप को जीना सिखा देगा। अतः नदी को मात्र बहता हुआ पानी मानना, संभवतः हमारी दृष्टि की निर्जीवता  होंगी। नदी के इस बहाव में उसका गीत गाना है,  तरंगों के रूप में थिरकना है -यह जिस दिन हमारी आँखें देख पाएंगी, उसके बहाव में छिपी जीवंतता को जान सकेंगी उस दिन हम सही अर्थ में प्रकृति को हमारे ओर निकट पाएंगे। 
जिंदगी का वास्तव उसके सुख-दुःख के योग में है ।किन्तु सहज वृत्ति के अनुसार हर कोई सुख की  कामना करता है और दुःख के क्षणों से व्यथित होता है। सुख का भोग लेने के पश्चात दुःख की छाया कोई नहीं चाहता। ऐसे में दुःख को देेख सर्व सामान्य हाय खा जाते है, संकट को देख हिम्मत हार जाते है। मात्र सच्चे साथी की तरह इन क्षणों  से उभरने प्रकृति अपने प्रकृति अपने संबल के साथ मनुष्य के पास सदैव खडी रहती है। मात्र सर्वसाधारण दृष्टी वाला प्रकृति के इस उपादान को पहचान नहीं पाता। गज़ल कार कहते है संकट रूपी काली अँधेरे वाली बरखा (बरसात) की रात में, जब चारों ओर से हम उम्मीद हार जाते है, संकट से उभारनेवाली  आशा  की कोई भी रोशनी दिखाई नहीं देती, तब ऐसी स्थिती में उम्मीद की रोशनी लेकर, अंधेरे से निर्भीक होकर लडने वाले, चमकते हुए जुगनू इस संकट से लढने का सामर्थ्य देंगे केवल सकारात्मक दृष्टि से देखना आवश्यक है।
आधुनिक युग में व्यस्त रहने वाला मनुष्य धीरे-धीरे मानवता को भूल रहा है। उसकी भावनाएं मरणासन्न हो गई है। ऐसे व्यक्तियों को हम पत्थर दिल कहते हैं, जिसका दिल दूसरों की बेचैनी देख कर भी पसीजता नहीं। पर गज़लकार को यकीन है कि चाहे कोई भी स्थिती क्यों न हो हर इंसान के भीतर धड़कता हुआ दिल होता है, हर पत्थर दिल वाला भी कभी ना कभी पिघलता है। इसी को प्रमाणित करने के लिए वह कहता है कि चाहे कितनी भी कठोर क्यों ना हो पर समय के आघात में बर्फ की शिलाएं भी गलती है। ऐसे में बिना उम्मीद हारे तत्पर रहे। 
हम में से कई लोग जिंदगी की और एकांकी दृष्टि से देखते हुए हर घटना को आधा ही स्वीकार करते हैं। जीवन के तमाम आघात, उनसे मिली पीड़ा, दुख कांटे के समान जीवन के हर पल से चिपके रहते हैं। मात्र यह पीड़ा-यह दुख जीवन का आधा सच है। इन काँटों के साथ नरम-नरम फूलों की पंखुड़ियों के समान कई सुख के क्षण भी होते है। किंतु काँटे देखने वाला फूल की सुंदरता-कोमलता को भूलता है, वह सिर्फ काँटों का चुभना याद रखता है। ठीक वैसे ही जिंदगी दुखों का पहाड़ है, जीवन में दुःख ही होते है, यह सोचने वाला जीवन के सुख-आनंद के क्षणों का विस्मरण कर बैठता है। अतः गज़लकार कहता है जिस तरह से फूलों के कांटें फूल का आधा सच है  वैसे ही जीवन के संकट, दुःख, तकलीफें भी जीवन का अर्ध्य सत्य है।  आधे सच को पूरा मानने वाला जिस तरह से फूल की नर्माहट को भूलता है ठीक वैसे ही जीवन के सुखों को भी भूल बैठता है।  इसलिए आँखों से सिर्फ कांटे देखने की जगह उसकी सुंदरता, नर्माहट को देखना भी आवश्यक है।  
इस कविता का एक और तथ्य हमें देखना होंगा कि जहीर कुरैशी गज़ल का प्रारम्भ कलि से करते है और समाप्ति फूल पर। अर्थात जीवन अपना पूर्ण चक्र लगाते हुई रूप-रंग, महक से काँटों और नरम पखुड़ियों तक सफर कर पूर्णता पाता है। इस चक्र में दृश्यता-अदृश्यता का गहरा संबध है। मानव विकास के सफर में भी हमें इसी चक्र को पूर्ण करना होता है। जिसमें आंंखों से जो देखा जा रहा है, वह किन अर्थों में ग्रहण किया जा रहा है, यह देखना आवश्यक है।       
इस तरह से यह कविता 'आंखों' के माध्यम से जीवन को पूर्ण दृष्टि से देखने की और बल देती है। 

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