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हिंदी सिनेमा में नारी चेतना

    सिनेमा....अर्थात चलचित्र, आम भाषा में फिल्म; सपने, आकांक्षा, जीवन, मनोरंजन, बदलावों को दर्शानेवाला शब्द। एक-दूसरे को प्रभावित करनेवाले सिनेमा और समाज परस्परावलंबी है। सौ वर्ष की आयुवाले भारतीय सिनेमा में नारी चेतना का स्वर प्रखरता से गूँजायित हुआ है। चेतना परिवेशगत दबाओं से उत्पन्न मूल्यपरक इकाई है और असंतोष, जिज्ञासा, दृष्टि उसके मूल घटक है।1 परंपरा से अलग प्रयत्न करनेवाली नारियों का संसार सिनेमा में प्रत्यक्ष हुआ। हिंदी सिनेमा की पहली महिला निर्देशिका और मूक फिल्मों की नायिका फातिमा बेगम, तो 'आलमआरा’ की जुबैदा बेगम सस्वर फिल्मों की पहली नायिका का गौरव प्राप्त कर चुकी है। तब से कई नारी पात्र सिनेमा के परदे पर प्रत्यक्ष हुए। पर आज सवाल उठता है कि क्या सिनेमा के स्त्री पात्र भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व करते है? इसी प्रश्न को सकारात्मक रूप से देखे तो सिनेमा के कारण नारी से जुडे कई प्रश्नों पर पुरुष संवेदनशील होकर विचार कर रहे है या उन्हें संवेदनशील करने का प्रयास हो रहा है।
    पाश्चात्य की तुलना में हिंदी सिनेमा में विविधता, गंभीरता, वास्तविकता, साहस वैसे कम पाया जाता है। व्यावसायिकता के चलते सिनेमा पैसा और व्यापार की भावना से जुड गया। प्रसिद्धि, सफलता, थिएटर पर पकड मजबूत करने फिल्मों में आशयहीन, घटिया विनोद पर जोर दिया जाने लगा, वह भी यथासंभव किसी स्त्री को सामने रखकर या अंगप्रदर्शन करनेवाली किसी नायिका के इर्द-गिर्द घूमनेवाले नायक पर कोई गीत बनाकर।हिंदी में नारीकेंद्री प्रयोगशील फिल्में कम बनी है।ऐसी कुछ फिल्मों में नारी चेतना ढूंढने का प्रयास यहाँ किया गया है।
    परंपरागत नारीविषयक भावनाओं को छेदनेवाले विषयों पर भी फिल्में बनी। जहाँ नारी प्रतिमा कोमल नहीं, पुरुष से अधिक सामर्थ्यशाली, आक्रमक, परिवारीक जिम्मेदारी उठानेवाली है।‘मदरइंडिया’(1957) की राधा ऐसी कृषक स्त्री है,जो पति के पश्चात बच्चों को संभालते हुए भाग्य को खुद बनाती है,अत्याचार करनेवाले अपने ही बेटे को स्वयं मारती है। अस्सी के दशक की पारिवारीक फिल्मों में परंपरागत स्थिति के विरुद्ध विद्रोही एवं परिवर्तनवादी नारी का चित्रण होने लगा। प्रचलित व्यवस्था में नारी का स्थान और जगह बनाये रखने उसका आपसी शत्रुत्व फिल्मों में उभर रहा था।समय की मार झेलती,हालात से मजबूर नारी प्रातिनिधिक रूप में सिनेमा के परदे पर दिखाई दी। उसके मानसिक स्वास्थ के बारे में भी चिंतन होने लगा। पुरुषप्रधान व्यवस्था में स्वाभिमान से जीती नारी आंतरिक शक्ति को पहचानने लगी। आज पतिपरमेश्वर की गलतियों को स्वीकारने का जमाना नहीं। विवाहबाह्य संबंधों पर आधारित ‘अर्थ’ (1982) नारी जीवन के आंतरिक संघर्ष को प्रस्तुत करता है। घर का सपना देखनेवाली पूजा का पति इंदर मानसिक रूप से अस्थिर कविता के लिए उसे छोड देता है। पूजा नौकरी पाकर जीवन की कठिनाईयों से लडती है, तो पूजा की शादी तोडने के अपराध भाव से कविता इंदर को छोड देती है।फिर से पूजा की ओर आने की कोशिश करनेवाले इंदर को मात्र पूजा अपनी जिंदगी से खारिज कर देती हैं।
    ‘एक चादर मैली-सी’(1986) परंपराओं से उभरनेवाली नारी समस्या को दर्शाती है। ग्रामीण रानो दो बच्चों के बावजूद दहेज के लिए सास से प्रताडित है,शराबी पति से पीटती है। बलात्कार के आरोप में जब रानो के पति की हत्या होती है,तब उससे दस साल छोटे,जिसे वह बच्चे के रूप में देखती है, ऐसे देवर से रानो को चादर डालने की परंपरा द्वारा शादी के लिए मजबूर किया जाता है। औरत होना,वह भी गरीब,निम्न जाति की;यह चित्र समाज की दृष्टि से अधिक आशादायी नहीं माना जातां। ‘रुदाली’(1993) की अपशकुनी ‘सनीचरी’ राजस्थान की पेशेवर निम्न जाति की महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है,जो सवर्ण पुरुष की मृत्यु पर मातम मनाती है। स्थानीय जमींदार का बेटा उसका प्रेमी है,पर शराबी पति की मृत्यु,विकलांग बेटे का भविष्य देख गरीबी में भी वह प्रेमी से पैसे नहीं मांगती। जिंदगी में कभी न रोनेवाली सनीचरी परिस्थितिवश रुदाली बन जाती है।
    मानसिक विक्षिप्तता से जुडी बलात्कार की समस्या पर आधारित फिल्म ‘दामिनी’(1993) नारी की न्याय के लिए संघर्ष की कहानी है,जो पीडित नौकरानी के लिए अपने ही अमीर ससुराल के विरुद्ध खडी होती है। दस्युरानी फूलन देवी के जीवन पर आधारित ‘बैंडिक्ट क्वीन‘(1994) फूलन के माध्यम से निम्न जाति की स्त्रियों का सवर्णो द्वारा यौन शोषण, पुलिसी असहयोग, बलात्कार, प्रतिशोधवश हाथ में बंदूक उठाकर डाकू बनना, अंत में दल की औरतें व बच्चों को ध्यान में रखकर आत्मसमर्पन करना नारी उत्पीडन के आयामों को दर्शाता है।
      'फायर' (1996) नारी समलिंगी जैसे विषय पर बनी प्रथम भारतीय फिल्म है। राधा और सीता इन पात्रों से प्रकट होता है कि लैंगिक सुखप्राप्ति पर नारी का भी अधिकार है,पर पति वह सुख देने में अक्षम हो तो स्त्री परंपरा और दुर्भाग्य की जंजीरें तोड संस्कारों से विद्रोह करती है।समाज को अनपेक्षित,विरोधाभासी मूल्य जब स्त्री में आए तो वह भी सिनेमा का विषय बन गये।‘आस्था’(1997) मानसी जैसी विवाहित,घरेलु महिला के वेश्या में बदलने की स्थिति पर आधारित फिल्म है।पति की स्थिर आय से असंतुष्ट मानसी उपहार और पैसों के बदले अन्य आदमी से संबंध रखती हुई व्याभिचार की दुनिया में फंसती है।फिल्म ‘मृत्युदंड’(1997) नारी पर होनेवाले सामाजिक और लैंगिक अन्याय पर आधारित है।जिसका प्रारंभ दो बेबस महिलाओं की भीड द्वारा हत्या से होता है।इस कुकर्म के पीछे के स्वार्थ को छिपाने गांव के प्रमुख अपनी शक्ति लगाकर प्रशासन से बचते है। महिलाओं को प्रताडित करनेवाले, बेईमान, शक्तिशालियों की साजिश से घिरे पति को केतकी सही राह पर लाती है।
    देश-काल के विस्तार से परे सिनेमा का संबंध लोगों के संस्कार-मूल्य,मानसिकता,उनके बनने-बिगडने से होता है।'चांदनीबार' (2001) वेश्यावृत्ति, डान्सबार पर आधारित फिल्म है। सांप्रदायिक दंगों में परिवार खो चुकी मुमताज स्त्रीजन्य शर्म के बावजूद मुंबई के डान्सबार में नृत्य और इश्कबाजी के लिए तैयार होती है। चाचा की वासना का शिकार बन चुकी मुमताज एक गॅगस्टर से प्रेम, तत्पश्चात विवाह कर कुछ पल सुख से जीती है। पर पति की इन्काउंटर में मौत, जेल से बेटे को छुडाने मुमताज को अपना शरीर बेचना पडता है और उसकी बेटी बार में नाचती है।'फिजा' (2001) बंबई दंगों के दौरान गुम हो चुके अपने भाई को खोजनेवाली बहन की कहानी है, जो कानून, मीडिया, राजनेताओं से मदद मांगती है। पर भाई को आतंकवादी गतिविधियों में फंसा जान उसे सम्मानजनक अंत देने वह स्वयं अपने भाई को मार डालती है।
    तथाकथित समाज मान्य वर्तन को अमान्य करनेवाले नारी चरित्र फिल्मों से उभरें। फिल्म ‘जुबैदा’(2001) जीने की आझादी और स्वयंनिर्णय की क्षमता से दूर नायिका के विद्रोह को दर्शाती है। पिता के अहंकार, समाधान तुष्टी का साधन बनी जुबैदा करियर, विवाह, तलाक का निर्णय स्वतंत्रता से नहीं ले सकती। आसमान का सपना देखनेवाली जुबैदा विद्रोह कर फतेहपुर राजा से विवाह करती है,पर कई शर्तो के साथ। अधिकारलिप्सा, संकुचित प्रथा-परंपरा में उसका दम घुटता है और समझौता न करने की स्थिति में उसकी मौत होती है।
     फिल्म 'डोर' (2006) अलग पार्श्वभूमि की औरतों को जोडती है। विधवा, परंपराओं में फंसी मीरा का उत्साह काले घूंघट में दब जाता है।हत्या के आरोप में सौदी में बंदी पति को बचाने, सौदी के नियमानुसार मृतक की पत्नी का माफीनामा लाने जीनत हिमाचल से जोधपूर आती है।वास्तविकता छुपाकर की गयी जीनत की दोस्ती को धोखा जान मीरा दुखी होती है।मात्र हवेली के लिए ऋण के बदले उसका सौदा करनेवाले ससुरालवालों को छोड, पुरानी परंपराओं से भागकर मीरा जीनत की ओर,जिंदगी की ओर जाती है,जिसने उसे जीना सिखाया।
    अभिनय की उत्कृष्टता के मापदंड के बावजूद हिंदी सिनेमा में नारी को भोगवादी और शोपीस की भूमिका में अधिक रखते हुए रूप और मादकता के लिए महत्वपूर्ण माना गया।पुरुषी प्रवृत्तिओं को चुनौती देनेवाली प्रथाओं के चलते कुछ नायिकाओं को प्रसिद्धि मिली।‘द डर्टी पिक्चर’(2011) दाक्षिणात्य अभिनेत्री सिल्क स्मिता के वादग्रस्त,अल्प जीवन के साथ दर्शकों की अश्लील मनोवृत्ति,पैसे कमाने के अव्यावसायिक तंत्र एवं नारी मनोविज्ञान को दर्शाता है।फिल्मों में नाम कमाने की इच्छुक रेशमा योग्य मार्ग न पाकर सब कुछ दांव पर लगाकर फिल्म के परदे पर बेशरम हो जाती है। किंतु उसकी विद्रोहात्मता मौका पाकर समाज की नग्न मनोवृत्ति पर प्रहार करने से नहीं चुकती।व्यावसायिक अपयश, वास्तविक सामाजिक स्तर, व्यसनाधिनता, प्रेम के नाम पर छल और सामान्य नारी की तरह कई सपनें लिए रेशमा अपने जीवन का अंत कर लेती है।
    आज नारी साहस से कदम उठाते हुए कितनी ही पारंपारिक श्रृंखलाओं को तोड रही है। निश्चितता में ढल चुकी सामाजिक चौखट को भेदकर निकलनेवाली इन स्त्रियों के लिए पुरुषी दृष्टिकोण फिल्मों में नजर आता है। बाजारीकरण, नवमूल्यवाद से ‘स्टारडम’ का प्रभाव आम समाज पर हुआ।जिसे फिल्म 'फॅशन' (2008) में देखा जा सकता है। घर छोड मुंबई आनेवाली मेघना जैसी छोटे शहर की लडकी का समझौतों से भरा फॅशन मॉडेल बनने का सफर,सफलता के बाद अतिआत्मविश्वास,मादक पदार्था का सेवन,भावनाओं की जगह व्यावसायिकता और करियर में पिछडने से टूटी मेघना का पिता द्वारा पुनः प्रोत्साहन इस फिल्म की विशेषता हैं। वहीं मॉडेल शोनाली सफलता के बाद पतन से निराश हो मानसिक रूप से बीमार, बेघर, शराबी बन एक दिन मरती है, तो मेघना आत्मविश्वास से रैम्प पर उतरती है।
    नारी की जाग्रकता जीवन को अधिक सुसह्य बनाती है, अन्यथा उसके मन के न्यूनत्व का दुरूपयोग समाज करता है। 'परिणिता' (2005) ललिता के माध्यम से नारी आदर्श की स्थापना करता है। प्रेमी से गहरे प्रेम के बावजूद गरिमा,नैतिकता को महत्व देते हुए वह अपमानित होती है,पर सम्मान हेतु परिस्थिति से चार हाथ करती है। 'लाइफ इन मेट्रो' (2007) की उच्चशिक्षित शिखा परिवार के लिए घर में रहती है।पति की उपेक्षा,उदासीनता से शादी में आई कडवाहट के चलते शिखा एक थियेटर कलाकार की ओर आकर्षित होती है। दोस्ती से प्रेम की ओर बढनेवाले इस रिश्ते में मर्यादा का उल्लंघन न करते हुए भी वह खुद को अपराधी मानती है। किंतु मर्यादाविमुख पति को वह आसानी से क्षमा कर देती है।
    'अस्तित्व' (2000), 'कॉर्पारेट' (2006), 'नो वन किल्ड जेसिक' (2011), 'कहानी' (2012), 'चक्रव्यूह ' (2012) मातृत्व, न्याय हेतु संघर्ष, नारीजनित प्रतिशोध, पुलिसी अत्याचार, क्रोध की प्रतिक बनती नक्सलवादी नारी, कर्तव्यनिष्ठ नारी, व्यावसायिक किंतु भावना से जुडी सोच की कहानी है।
    भावनिकता के जगह अॅक्शन को मिलते महत्व ने नायक को महत्वपूर्ण भूमिका दिलाई और नायिका का काम कम से कम कपडों में आकर्षक दिखना मात्र रह गया।भारत में पुरुषप्रधान व्यवस्था के बावजूद नायिकाप्रधान फिल्मों ने समाज को अपनी ओर ध्यानाकर्षित किया। शोषण की अति से विद्रोही बनी,विवाह चौखट लांघकर निज अस्तित्व खोजनेवाली,कलम से लेकर बंदूक, घर से लेकर बार, आँगन से लेकर रैम्प, प्रेम से लेकर प्रतिशोध, न्याय से लेकर प्रतिकार, सुख खोजती, राजनीति के फलक पर चमकती नारी का चित्रण सिनेमा में हुआ है। मात्र सहज मानवीय भावनाओं के परे नारी नहीं जा सकी, न वास्तव में न फिल्म के परदे पर।

संदर्भ सूचि :-
1) 'अल्पसंख्याकों का विचार विश्व’ से उद्धृत-पृ.167
2) दैनिक दिव्य मराठी-रविवार में प्रकाशित रेखा देशपांडे के लेख
3) www.google.com/wikipedia

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