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शुक्रवार, 19 जून 2020

कबीर विचार

कबीर पर आध्यात्मिक प्रभाव 

किसी भी कवि पर अपनी पूर्ववर्ती परंपराविचारों एवं सिद्धांतों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। कबीर पर उस समय प्रचलित साधनाओंविचारोंधर्मग्रंथों का प्रभाव पड़ापर यह सीधा न थाक्योंकि वे पुस्तकीय ज्ञान से दूर थे। बहुश्रुत होने के कारण उन पर विविध धर्म संप्रदायदर्शनग्रन्थों का प्रभाव साधु-संगति से  आया। इसलिए उन्होंने हिन्दू आख्यानों का यथावत प्रयोग नहीं किया। कुछ कबीर पर इस्लाम का अधिक प्रभाव मानते थेपर हजारीप्रसाद द्विवेदी मथा अन्य विद्वानों के शोध  से यह मान्यता निर्मूल हो रही हैं । उनके अनुसार - उपस्थापन पद्धतिविषय,भाषाअलंकारछंद  से ये संत शत प्रतिशत भारतीय परंपरा में पड़ते है । अर्थात कबीर के एकेश्वर भावना , निराकार उपासनासमान व्यवहारखंडन-मंडन प्रवृति में आने वाली मुस्लीम गंध की मान्यता अब निर्मूल सिद्ध हो चुकी है।

v    वैदिक साहित्य का प्रभाव

वेदिक धर्मग्रन्थों का विशाल और समृद्ध भंडार होने के कारण  भारतीय सांस्कृतिक जीवन की प्रत्येक गतिविधी पर उसका प्रभाव पड़ा। कोई ऐसा धर्म या संप्रदाय भारत का नहींजिनपर वैदिक चिंतन का प्रभाव न हो । इस विचार के विरोध में उत्पन्न धर्म संप्रदाय भी उससे प्रभावित रहे। वैदिक साहित्य को संहिता, ब्राह्मणक, आरण्यक, उपनिषद में  विभक्त किया गया है। इन संहिताओं में अधिकतर वैदिक देवताओ की स्तुतियाँ संग्रहीत है।  ब्रह्मणक में कर्मकांड का वर्णन मिलता है।  आरण्यक में उपासनाओं की चर्चा है। उपनिषदों में ज्ञान काँड का वर्णन। उपनिषद संख्या में अधिक थे। कहते है ऋग्वेद की 21, यजुर्वेद की 102, सामवेद की 1000 और अथर्ववेद की 9 शाखाएँ-प्रशाखाएँ थी। तो इनसे संबन्धित उपनिषद भी होंगे। मुडकोपनिषद में 108 उपनित्त के नाम है।

1.                    ब्रह्म का स्वरूप –

समस्त उपनिषद साहित्य की रचना ब्राह्मण साहित्य की कर्मकांडी प्रवृत्ति के विरोध में हुई थी। बहुदेववादकर्मकांड का विरोध इस साहित्य ने किया।  कबीर के समय में भी देवोपासना, ब्राह्मणों द्वारा नियंत्रित हिंदू धर्म की कर्मकांडी प्रवृत्ति का बोलबोला था। अतःकबीर को प्राप्त था तो उपनिषद साहित्य। उपनिषदो के अद्वैत भावना का कबीर पर अत्याधिक प्रभाव है। कुछ लोग कबीर की एकेश्वर भावना और निराकार उपासना को इस्लाम से प्रभावित मानते है। वास्तव में एकत्व भावना वैदिक अद्वैतवाद की आधार भूमि है। अद्वैत के सिद्धांत वाक्य ब्रह्म सत्य, जग मिथ्याऔर एकमेवाद्वितीय ब्रह्म से सिद्ध होता है कि ब्रह्म ही सत्य है। इस्लाम का खुदा होते हुए भी सातवे आसमान पर तख्त के ऊपर बैठनेवाला, दो हाथ-पैरवालादाढीवाला सर्वशक्तिमान हैजब की कबीर का ब्रह्म उपनिषदो के ब्रह्म के समान इंद्रियातीतअगम्य अगोचर ,अनिर्वचनीय स्वरुप हैश्रुति ग्रन्थों के परिशीलन से  स्पष्ट होता है कि ब्रह्म के संदर्भ में दो मान्यता है। एक निर्विकारनिर्गुण, निर्विशेषनिरुपाधि एवं दूसरा इन सबसे मुक्त अर्थात सगुण,सविशेष,साकार और सोपाधि।  इसके बारे में वेदान्तवादी कहते है कि ब्रह्म तो अपने आप में निर्गुणनिराकार हैपर अविद्या के कारण जिसे हम माया कहते है, उसमें हम सीमाओ का आरोप करते है। उपनिषद में ब्रह्म का स्वरूप इस प्रकार है-
"वह मोटा भी नहींपतला भी नहीं, छोटा भी नहीं', बडा भी नहीं, लोहित भी नहींस्नेहित भी नही', छाया युक्त भी नहीं, अंधकार भी नहीं, वायू भी नहीं, आकाश भी नहीं’’-बृहदारण्यकोपनिषद
‘’वह शब्द रहित, स्पर्शरहित, रुपरहित, रसरहित, गंधरहित है’’-  कठोपनिषद
इसप्रकार के वर्णन कबीर की ब्रह्म संबंधी वाणियों में प्रचुरता से है।
'भारी को तो बहु डरोंहलका कहौ तो झूठा
मैं का जानू राम कू ,नैनू कबहुँ न दीठा ।’’
कबीर का आराध्य उपनिषदों के नाम के समान ही है,जो ब्रह्म के समान ही है, जो रूपाकार के क्रियाशील है,बिना पग चलता हैबिना मुख खाता है।

2.                  मनसाधना-

उपनिषद ग्रन्थों में मन की-चंचलता पर नियंत्रण के लिए आग्रह है। मन की चंचलता पर नियंत्रण विरागी को रागी, संन्यासी गृहस्थ बनाती है।
काया कसू कमाण ज्यूपंचतत करि बाण।
मारौ तो मन मृग को नहीं नो मिथ्या जान .....
मन के मते न चलिए,मन के मते अनेक
जो मन पर असवारते साधू कोई एक

3.                  नामस्मरण:-

कबीर के इष्ट के नाम स्मरण का अत्यधिक आग्रह है, जो श्रुति ग्रन्थों के प्रभाव के कारण है। संसार सागर से तरने के लिए इसे महत्वपूर्ण माना है।–
सो धन मेरे हरि का नाऊँ, गाँठी न बांधों बेचि न खाऊँ
नाऊँ मेरे निरधन ज्यू निधि पाई कहै कबीर जैसे रंक मिठाई

v    वैष्णव प्रभाव

वैष्णवों के प्रेम प्रधान भक्ति तत्व ने कबीर को प्रभावित किया। प्रेम भक्ति की प्राप्ति कबीर को वैष्णवों के प्रसिद्ध आचार्य रामानंद से हुई। इस अनन्य भक्ति की प्राप्ति से कबीर साहित्य में नूतनता आयी,जो अत्यंत विलक्षन होने के कारण सिद्धों और नाथों की परंपरा से पृथक करती है।

1.                    अनन्यभाव-

भक्ति जैसा तत्व पाकर कबीर स्वयं धन्य हुए और साहित्य को भी धन्य कर दिया। उनकी भक्ति की अडिगता, अनन्यता वैष्णव प्रभाव से है-
कबीर रेख सिंदूर कीकाजल दिया न जाई
नैनू रमइया रमि रहापूजा कहा समाई
इसी अनन्य भाव का परिचय कबीर ने आत्मा को सती का रूपक देकर किया। ब्रह्म के प्रति उनकी श्रद्धा से वे कुत्ता बनने से भी नहीं हिचकिचाते।
कबीर कुत्ता राम कामुतिया मेरा नाऊँ
गले राम की जेबड़ीजित खिंचे तित जाऊँ।   
उनकी इस भावना पर तुलसी के- 'राम सौ बड़ी है कौन, मौसौं कोन छोटे की शत-शत भावना न्यौछावर की जा सकती है।
कबीर की सूफी भावना पर सूफी प्रभाव है, इस मान्यता का हजारीप्रसाद द्विवेदी ने खंडन कर कबीर की प्रेम की पीर वैष्णव भावना से प्रभावित माना। उनके अनुसार- "निर्गुण राम का उपासक होने के कारण उन्हें वैष्णव न मानना उस महात्मा के साथ अन्याय है। वास्तवम व स्वभाव और विचार से वे वैष्णव थे।

2.                  सदाचार -:

कबीर काव्य में शील,क्षमादयाउदारता,संतोष,दीनता, सत्यता का उपदेश वैष्णवों के सदाचार महत्व से प्रभावित है।
बडा भया तो का भया जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं फल लागै अति दूर
उंचे कूल का जनमिया करनी ऊँच न होय
स्वर्ग कलश मदिरा भरा ,साधु निन्दै सोय

3.                  जाति-पाति का भेद-

कबीर से पूर्व यह भेद दूर करने के प्रयास वैष्णवाचार्य रामानुज ने किया। अतः जाति-पानि के बंधनों को न मानना कबीर की विचारधारा पर वैष्णव प्रभाव है। रामानुज भक्ति क्षेत्र में समाजिक समानता ल पाये। पर  कबीर ने प्रत्येक क्षेत्र में जाति-भेद को दूर कर हिंदू-मुस्लीम के बीच खाई को भरा।
जाति-पाति पूछे नाही 'कोईहरि को भजे सो हरि का होई' 

4. जन भाषा का प्रयोग-

प्रथम रामानंद ने धर्म सिद्धांतों को जन भाषामें उद्घाटित किया।  मात्र अब तक धर्म सिद्धांत की व्याख्या का एक मात्र वाहन संस्कृत थीजो जन भाषा नहीं थी। कबीर ने अपने विचारों को लोकभाषा में ही रखा। कबीर के अनुसार - 
'संस्कृत कूप जलभाषा बहता  नीर। 
वैसे भी कहा जा सकता है कि मसि कागद तक स्पर्श न करनेवाला संस्कृत में कैसे रचना कर पाता। उनके लिए  संस्कृत में काव्य रचना करना असंभव न था। 

5. मायातत्व:-

जिस प्रकार वैष्णवों ने प्रभु-भक्ति में माया को बाधक माना है, कबीर ने भी माया को साधना में दुर्गम घाटी माना है। वैष्णवों में प्रचलित विष्णु के सहस्त्र नामों से भी कबीर ने कुछ अपनाए है। उनके काव्य में राम,हरि गोविद, मुरारी, मुकुन्द, विष्णुमधुसूदन नामो का प्रयोग हुआ है। जिसमें 'रामसर्वप्रमुख और काव्य केंद्र बिंदु है।

6. भावात्मक स्थान –

कबीर ने वैष्णवों के भावकल्पित स्थानों को भी अपनाया है, जैसे -  अमरपुर ले चलु हो सजना या अमरपुरी की संकरी गलियाँ अड़ बड़ है चढ़न। कबीर ने इन्द्रपुरीविष्णुलोक इन स्थानों के नाम को यद्यपि शुन्य अर्थ में ग्रहण किया हैजिससे वैष्णव प्रभाव सहज परिलक्षित होता है। वे स्वयं कहते है-
मेरे संगी दोह जना, एक वैष्णव एक राम।

v    बौद्धों के महायान का प्रभाव

जीवन की क्षणभंगुरता, मध्यम मार्ग, शरीर कष्ट का विरोध आदि कबीर पर महायान के प्रभाव के कारण है। क्षणिकवाद का उदाहरण -
पानी केरा बुदबुदाअस मानस की जानि
देखत ही छिप जाएगाज्यो तारा परभाति ।
शरीरकष्ट का विरोध जैसा महायान में है, वैसा कबीर में भी कहीं मिलता है। यद्यपि योगसाधना में कुंडलिनी साधना, त्राटक के फाटक खोलनाइडा-पिंगला का समन्वय काया कष्ट है ही- फिर भी भूखे भगति क कीजैअपनी माला लाजै । जैसी उक्तियाँ मिलती है। 

v    सिद्धों और नाथपंथियों का प्रभाव

कबीर पर बौद्ध मत  के अंतिम दिनों वज्रयान और सहजयान के सिद्धों का बहुत प्रभाव पड़ा। सिद्धों की ही सुसंस्कृत परंपरा नाथों की है। 

1.                    योगसाधना-

रामकुमार वर्मा के अनुसार – सिद्ध साहित्यनाथपंथ और संत मन एक ही विचारधारा की तीन परिस्थितियाँ है। इन दोनों का अत्यधिक प्रभाव कबीर पर पड़ा। कबीर ने जिस योगसाधनाषट्चक्र, इड़ा-पिंगला, सुषुष्मा का वर्णन साधना का रूप बताया है, वह सिद्धों और नाथ द्वारा अनुमोदित है। कबीर तक आते-आते साधना के कुछ पारिभाषिक शब्द दूसरे रूप में ग्रहण किए गए। कबीर ने योग साधना को वही रूप दिया, जो सिद्धों और नाथों ने दिया। इसमे यदि कोई वस्तू भिन्न है, तो वह है प्रेमाभक्ति जिस पर वैष्णव प्रभाव भी हो सकता है।

2.      गुरु महत्ता -

कबीर ने साधना में गुरु को वैसा ही महत्व दिया, जैसा सिद्धों और योगियों ने साधक जब साधनावस्था की जटिलता से निराश होता है, तो मार्गदर्शन के लिए गुरु के पास ही जाता है । किन्तु कबीर केवल गुरु को पूछा ही नहीं, अपितु गुरू के बिना साधना को ही अपूर्ण माना । गुरु को ब्रह्म से भी उच्च स्थान प्रदान किया।–
गुरु गोविद दोनों छोड़ेकाके लागू पाय
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविद दियो बताय .....
गुरु पारस को अंतरी, जानत है सब संत
वह लोहा कंचन कर ये कर लेई महंत

3.      बाह्याम्बडरों का विरोध -

कबीर ने बाह्याम्बडर, जाति-पाती का जो खंडन अपनी करारी उक्तियों में कियावह सिद्धों और नाथों की ही देन है। अपनी मार्किक शैली में समाज के बाह्याचारों पर जो कटु -प्रहार कबीर ने किया उनका सूत्रपात सिद्धों और योगियों के ही समय हो चुका था । सिद्धों ने कहा-
आवण गमण गां नैन विषैन्यों ,
तो वि निगज्ज भणइं हउ पंडिओ।
तो कबीर ने कहा- जो तू बामण बामनी जाया
आन बाठ हुए क्यों नहीं आया।
उसी प्रकार उन्होने मुल्या की बॉग और हिंदूओं की पीतल पिटन पर तिलमिला देनेवाली उक्तियाँ कही है, चुटकियां ले-लेकर व्यंग कसे है। इनके माध्यम से धर्म के मूलतत्व की पहचान, ढोंग के ढ़ोल की पोल खोल दी ।
मास्जिद भीतर मुल्ला पुकारे क्या साहिब तेरा बाहिरा है ?
चिऊँटी के पग नेवर बाजेसो भी साहिब सुनना है ।
पंडित होय के आसान मारेलम्बी माला जपता है।"

4.      रहस्यवाद-

विद्वानो का विचार है कि कबीर के रहस्यवादउलटबासी और प्रतिकों का भी मूल यही है । कहीं कबीर इन्हें साक्षी रूप में उद्धृत करते है -
"बरसे कम्बल भीगे पानीया " नाव बिच नदिया डूबी जाय।"
यह उलटबासीयां  सिद्धों और कवीर में समान रुप से प्राप्त है।

5.      भाषा –

इस प्रकार भाषा के क्षेत्र में भी इन परंपराओ से कबीर काव्य प्रभावित रहा। इन उलटबासीयों में विभावना, विरोधाभास आदि अलंकार समान रुप से व्यवह्रत है।
"ऐसा अद्भुत नेरे गुरु कथ्या, मैं रह्या उमेशै ।
मूसा हसती सों लड़ें, कोई बिरला पेशै।
मूसा पैठा बाँबि मेंलार सापणि धाई।
उलटि मूसै सापणि गिलीबहु अचिरज भाई।

6.      साधनाभूषक पारिभाषिक शब्द –

 सिद्धों और योगियों से कबीर ने साधनामूलक पारिभाषिक शब्दो को यथावत् ग्रहण कर लिया। षट्चक्र, अनहदनाद, निरंजन, इंगला,पिंगलासुषम्ना ,वज्रा, यमुनायोगिनी, कैलाश, सूर्यचन्द्र, गोमांस भक्षण, सोमरस आदि शब्द कबीर ने ग्रहण किए।
अवधू गगन मंडल घर कीजे।
अमृत झरै सदा सुख उपजे बंकनाली रस पीजै ।
 कूछ पारिभाषिक शब्द का अर्थ कबीर काव्य मे आकर परिवर्तित हो गया। जैसे- सहज
"सहज-सहज सबही कहै, सहज न चीन्हे कोय
जिन सहजै विषया तजी सहज कहीजे सोय

7.       पुस्तकीय ज्ञान का परिहास-

कबीर ने स्थान स्थान पर पुस्तकीय ज्ञान की खिल्ली उडायी है, जो योगियों का प्रभाव है। गोरखनाथ ने गोरक्ष सिद्धांत संग्रह में पुस्तकीय ज्ञानवाले व्यक्ति को भारवाही गर्दम कहा है।
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ ,पंडित भया न कोय।
एकै आखर प्रेम कापढ़े सौ पंडित होय  
या फिर
कबीर पढ़िया दूरि करिपोथी देय बहाय
बावन आखर सोच कर, ररे ममें चित लाय
अर्थात कह सकते है कि कबीर ने सिद्धों और नाथ की परंपरा को सुसंस्कृत कर उसका विकास किया। सुनीतीकुमार चॅटर्जी के  अनुसार- कबीर नाम छोड़ और सब दृष्टियों में हिन्दू कवि ही थे जो उ.भारत के मध्ययुगीन हिन्दू धर्मोपदेशक को और ग्रंथकारों तथा गोरखनाथ की सीधी परंपरा के एक महान संत और भक्त थे। कबीर पर सिद्धों और नाथों के अत्यधिक प्रभाव के दो कारण है।  प्रथम तो यह कि जुलाह जाती में जन्म जो कुछ समय पूर्व ही मुसलमान हुई थीतथा नाथों की शिष्य परंपरा में थी तथा दूसरा कारण यह की रामानंद के समस्त शिष्य ने जिनमें कबीर भी है, नाथों के बड़े-बड़े अखाड़ों को अधीन कर उनके अनुयायियों को अपना शिष्य बनाया था, जिससे उनमें भी नाथपंथी संस्कार आए।

v  सूफियों का प्रभाव

कबीर के समय भारत में इस्लाम का अत्यधिक सुसंस्कृत संस्करण सूफी धर्म के रूप में आ गया। कुछ विद्वानों के अनुसार उसका किंचित मात्र प्रभाव कबीर काव्य पर नहीं पड़ा। पर अनुमान लगाया जाता है कबीर जैसे सारग्राही महात्मा ने उसकी अच्छी बातें ग्रहण की होंगी। सूफी धर्म भी भारतीय धर्म साधना से पर्याप्त प्रभावित था। गार्डड के अनुसार सूफी मत में तीन चौथाई बौद्ध मत है, तो एक चौथाई यहूदियों का। जे. सी. आर्चर के अनुसार ग्रीक, फारसी, बौद्ध मत ने उस प्रवाह को जन्म दिया।

1.        प्रेमवीर –

इसे कई विद्वान वैष्णव देन मानते है। पर वास्तव में कबीर में प्रेम पीर की तीव्र और तीखी व्यंजना सूफी प्रभाव से है। कबीर ने परमात्मा के केवल प्रिय रूप को ही अंगीकार किया, ऐसी बात नहीं, बल्कि माता – पिता, गुरु, स्वामी आदि अनेक रूपों में उसकी उन्होने चित्रित किया। पर सूफी संप्रदाय में ऐसी स्वतन्त्रता नहीं। उनके लिए परमात्मा माशूक है, जीवात्मा आशिक है। जहां सूफी प्रेम साधना पूर्ण रूप से प्रेम पर आधारित है, कबीर दाम्पत्य संबंध से जुड़े है, जो भारतीय जेवण की व्यंजना है और भारतीय भक्ति परंपरा के अनुरूप है।

2.      ब्रह्म की सौन्दर्य भावना

लाली मेरे लाल की जीत देखूँ तीत लाल
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल
मात्र कबीर पर सूफी मत का प्रभाव भी भारतीय परंपरा नुकुल है। अर्थात यहाँ वही बातों का प्रभाव पड सकता है जो अद्वैत से मेल खाती है।
सारांशकबीर ने समस्त सारपूर्ण धार्मिक साधनाओं से कुछ तत्व ग्रहण किए थे।

 कबीर की भक्तिपद्धति 
कबीर की भक्ति पद्धती ने भारतीय जनता को उस वक्त आश्रय प्रदान किया,जब वह सिद्धों और योगियों के गुह्य साधना से ऊब रही थी। तत्कालीन विविध धर्म साधनाएँ जनता को भूल-भुलैया में डाल रही  थी। तब कबीर ने अपनी प्रेमाभक्ति का सबल और दृढ़ अवलंबन धर्मप्राण  जनता को देकर उन्हें रामरस में भाव विह्वल कर दिया। कबीर के पूर्व रामानंद का प्रसार क्षेत्र मात्र मर्यादित रहा। रामनंद द्वारा प्रतिपादित भक्ति का व्यापक प्रसार प्रचार कबीर ने 'सप्तद्विपनवखंडमें प्रकट किया। कबीर से पूर्व भक्ति के अनेक भेद स्थापित हो चुके थे। उदाहरणों को यदि देखा जाय तो कबीर की भक्ति अनन्य तथा सात्विक कोटि में आती है ,तथा परा या सिद्धावस्था की मानी जाती है। अर्थात कबीर की भक्ति स्पृहारहित ज्ञान, कर्म से ऊपर आराध्य मे लीन है। उनकी भक्ति में यद्यपि प्रधानता काम रूप की है,पर संबंध रुपा के भी उदाहरण प्राप्त हो जाते है।

1.        निर्गुण ब्रह्म  

कबीर ने अपनी भक्ति में जिस आराध्य का वर्णन किया हैवह उपनिषदों के अद्वैत से प्रभावित है। कबीर की ब्रह्म भावना अधिकाश अद्वैती है। तो कहीं अद्वैत से भिन्न है। क्योंकि कबीर किसी सिद्धांत के अनुयायी या प्रस्थापक नहीं थे। उनका ब्रह्म वर्णन सर्वस्वी उनका अनुभव आधारित है। कबीर प्रथम साधक है, बाद में कवि। अत भक्ति साधना में जिस रूप में ब्रह्म स्वरूप का साक्षात्कार करते है उसी रूप में बताते है। इसलिए उनके ब्रह्म का स्वरूप हमारे सम्मुख भिन्न रूपों में आता रहता है। इस स्वरूप परिवर्तन का कारण यही है कि वे किसी भी दार्शनिकवाद सेतार्किक विवाद से ऊपर हैपुस्तकीय विद्या से दूर पर प्रेम से प्राप्य है। डा.रामकुमार वर्मा- वह ऐसा गुलाब है जो किसी बाग में लगाया नहीं जाता केवल उसकी सुगंध प्राप्त की जा सकती है। वह ऐसी सरिता है, जिसे किसी प्रशस्त वन मे देख नहीं सकते उसका कलकल नाद ही सुन सकते है। अनुभूती के विविध स्तरों पर वह कही अद्वैत हैकहीं द्वैत, कहीं विशिष्टा द्वैत। अधिकाशत: कबीर ने अद्वैती भावानुकुल ब्रह्म का वर्णन किया है। जब कबीर कहते है
"कस्तूरी कुंडलि बसे मृग ढूँढे बन माहि।
ऐसे घटघट राम है दुनिया देखे नाहि।’’   
या
"मृगा पास कस्तुरी बासआप न खोजै खोजै घास"
तो वे ईश्वर की अद्वैत सत्ता को स्वीकार करते है। वास्नव में उनका प्रभु रोम-प्रतिरोम और सृष्टि के कण-कण में परिव्याप्तहै। वह ह्रदयस्त होते हुए भी दूर दिखाई देता है, पर जब प्रियतम पास में ही है तो उसे संदेश भेजने की क्या आवश्यकता ? इसलिए कबीर कहने है-
"प्रियतम को पतिया लिखू ,जो कहीं होय विदेस
तन में मन में नैन में,ताको कहा संदेस ।’’
वास्तव में प्रियतम के इस प्रकार के संदेश प्रेषण को वे दिखावा मात्र ,कृत्रिम प्रेम का परिचायक मानते है, क्योंकि हर जगह उस ईश्वर प्रिय की सत्ता विद्यमान है :
"कागद लिखै सो कागदी, कि व्यवहारी जीवा
आतम दृष्टि कहाँ लिखे जित देखै तीत पीव।"
कबीर ने उस ब्रह्म वम्प की स्थिति सर्वत्र उसी भौति मानीजिस प्रकार अद्वैत भावना के पोषक  प्रतिबिम्ववाद में। वे उस ईश्वर की सर्वव्यापकता को अनुभव करते थे। अर्थात कबीरकी भक्ति का आलम्बन अद्वैती भावनाकूल है। निम्न सखी उन्हें अद्वैती सिद्ध करती है-
"जल में कुंभकुंभ में जल हैबाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जब जलही समाना इहि तथ कथ्यो ग्यानी।"
अद्वैतवादी भावना से उनका ब्रम्ह निराकारनिर्गुण स्पष्ट होता है -
"जाको मुंह माथा नहींनाही रूप-कुरूप
पूहप बास जे पातरा ऐसा तत्व अनूप "
पर जब वह को ब्रह्म को सम्पूर्ण संसार को बनानेवाला, बिगाड़ने वाला मानता है तो निर्गुण का अस्तित्व प्रश्न लगता है -
"सात समुद्र की मसी करु, लेखनी सब बनराई ।
सब धरती कागद करु प्रभु गुण लिखा न जाई।"
जिस ईश्वर के गुणों का इतना विस्तार है वह निरुपाधि,निर्विषयनिर्गुण, तो कहीं-कहीं यह निरूपाधि ब्रह्म सोपाधिसविशेषसगुण व साकार तथा वैष्णवों के समान अवतारी जान पड़ता है। और ऐसे समय उन्हें सुर-तुलसी आदि भक्तों की कोटि से अलग नहीं किया जा सकता। हजारीप्रसाद द्विवेदी भी कहते है- कबीरदास के निर्गुण ब्रह्म में गुण का अर्थ सत्वरज आदि गुण है। निर्गुण ब्रह्म का अर्थ वे निराकार निस्सीम समझते है निर्विषय नहीं।

2.      साकार ब्रह्म –

कबीर की निर्गुण भक्ति भावना में इस तत्व के आने के कारण कहा जाता है कि वे कोरे तीव्र भक्ति भाव के ही द्योतक नहींबल्कि जनमानस में साकार स्वरुप की जो उपासना प्रचलित थी,उसका पूर्ण विरोध करते हुए भी वह इसके प्रभाव में आ जाते है। शुल्क जी ने कबीर में शुष्क ज्ञान ही मानाइसलिए उन्हें संतों से अलग ज्ञानमार्गी नाम दिया। पर यह वास्तव नहीं। कबीर की भक्ति में विशेषतः जहाँ उनकी आत्मा अपने प्रिय से विरहिनी रूप में आत्मनिवेदन करनी हैभावों की सरसतम विधि प्राप्त होती है। वास्तव में रामानंद द्वारा उन्हें राम की मधुरा भक्ति प्राप्त होती है। जिसकी सरसना विस्मय की वस्तु है। जिसे पाकर कबीरसबसे ऊपरअलग, विलक्षण, सरस, तेजोमय बन गए।

3.      मुक्ति-

कबीर ने भक्ति को मुक्ती का एकमात्र साधन माना। स्थान-स्थान पर भक्ति की महत्ता प्रतिपादित की। उनके अनुसार मुक्ति से संसार के दुख शमन होते हैप्रभु –भक्ति भी उसका साधन है।
"भाव भगति बिसवास बिनकटे न संसै मूल
कहै कबीर हरि भगति बिन मुकक्ति नहीं रे मूल

4.       सती और शुर-

कबीर के भगवत प्रेम के दो आदर्श है- सती और शूर । सती के आदर्श चुनने में एक तो प्रेम की अनन्यता प्रकट होती है, दुसरे भक्त भगवान के अधिक निकट आ जाता है। वास्तव में सती भाव का आचरण करने पर भक्त अपने गुरुतर कर्तव्य से मुक्त हो जाता है और उत्तरदायित्व प्रभु पर आ जाता है। शूरवीर का आदर्श इस लिए अपनाया गया है ,वास्तव में साधना मार्ग के जीवन की कठिनता, साहसलक्ष्य के लिए दत्तचित होने की आवश्यकता है। जैसे शूर युद्ध क्षेत्र में लोहे की करारी मार के सम्मुख भी तिल मात्र नहीं मुडताप्राणोत्सर्ग कर कर्तव्य की रक्षा करता है। यह सच्चे भक्त के लिए आवश्यक है। संसार जिस मृत्यु से डरता है शुर और भक्त उसका अभिनंदन हँसते हुए अपने लक्ष्य के लिए कर है।–
"जिन मरने थै जग डरे,सो मेरे आनन्द
कब मरहूँ कब देखहूँ पूरन परमानंद ।"

5.      अनन्यभाव -

कबीर के सती और शूर यह आदर्श उन्हें उनकी भक्ति को अनन्यता में सहायता पहुँचाते है। कबीर ने भी अपने आराध्य के लिए अपना सर्वस्व समर्पित किया। साथ ही अपने अस्तित्व को साध्य में लीन करने की उत्कृष्ट भावना उनमें परिलक्षित होती है। इसलिए ईश्वर के गुलाम बनने में वे हिचकते नहीं –
"मैं गुलाम मोहि बेचि गुसाई
तन मन धन मेरा राम जी के नाई।
इससे आगे तो वे अपने को मानव भी नहीं मानते। ईश्वर सामीप्य और सर्वदा एकमेव रहने की कामना से वे राम का कुत्ता बनने को भी तैयार हैं, जिसपर हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते है, निरीह सारल्य का यह चरम दृष्टांत है। आत्मसमर्पण की हद है।

6.      विरह-

जब आत्मा अपने अद्भुत प्रियतम को नहीं पाती,तो उसके वियोग में तड़पती है । कबीर काव्य की यह तड़पन मीन से कम नहीं। जब से गुरु ने उसे परमात्मा का ज्ञान कराया तब से ही भक्त उसके लिए आकुल व्याकुल है।
"गुंगा हुआ बावलाबहरा हुआ कान।
पाऊ ये पंगुल भयासतगुरु मारा बान ।"
कबीर के भकतात्मा ने इस विरह का जो वर्णन किया हैवह स्वाभाविक, मार्मिक लगता है कि उनका कबीरत्व, पौरुषत्व समाप्त होउनकी आत्मा स्त्री रूप में प्रियतम के लिए यह शब्द कहे है। प्रिय से संदेश पाने के लिए आत्मा इस भांति छटपटाती है, मानो अभिष्ट प्राप्ति न हुई तो न जाने क्या होगा ?
बिरहनि ऊँभी पँथ सिरिपंथी बुझै धाई
एक सबद कह पीव का कबर मिलैगे आइ
वह केवल भेट की इच्छुक हैप्रभु दर्शन के व्यतिरिक्त उसे अन्य कोई प्रयोजन नहीं। अर्थात वह कहती है, काम को छोड़ पथिकपहले यही बता कि वह कब आएंगे। किन्तु शीघ्र ही भक्त कल्पना जगत से नीचे उतर वास्तविकता समझ दूरी के व्यवधान को दूर करना चाहता है, जो उसके सामर्थ्य के बाहर है।
"यहु तनु जारौ मसि करौ, लिखौ राम का नाउँ
लेखनि करूँ करंक की लिखि लिखि राम पठाऊँ।
भक्त विरहाग्नि में तो जलता हैपर जब वर सीमा से बाहर होता है तो प्रिय वियोग में विवश हो वह ईश्वर को ताना भी देता है । वास्तव में यह प्रेम का चरमोत्कर्ष है, जो प्रियतम के अभाव में भी अटूट प्रेम की उद्घोषणा करता है।

7.       निष्काम भाव-

प्रभु प्राप्ति के बाद भी कबीर कोई कामना-सिध्दी की बात नहीं सोचते। वे सिर्फ प्रभु का दर्शन मात्र चाहते है। भक्ति में कामना के वे घोर विरोधी थे। इसलिए अंत समय तक प्रभु भक्ति करने, नाम जपने का वे उपदेश करने है। इस भक्ति में पुस्तकीय ज्ञान का महत्व नहीं। क्योंकि उनके अनुसार ईश्वर में अटूट लय ही मुक्ति के लिए पर्याप्त है। विषय-वासनाओं से मुक्त ईश्वर भजन करे।

8.      साधन –

कबीर ने भक्ति का सबको अधिकारी बनाया । वहाँ कोई भेदभाव नहीं। क्योंकि सबकी रचना उन्ही पाँच तत्वों से हुई, जिसका सृष्टा पिता परमात्मा है- “जाति पाति पूछे नहि कोईहरि को भजै सो हरि का होई"
भक्ति का द्वार सबके लिए खुला होने पर भी प्रत्येक भक्ति की प्राप्ति नहीं कर सकता क्योकि साधना भक्ति का मार्ग खडतर है। साधना की विषमता का वर्णन कबीर स्थान-स्थान पर करते है। भक्ति साधना के लिए साधक को जीवन न्यौछावर करने के लिए प्राण मानो हथेली पर रखने पड़ते है।
भक्तिमार्ग में सबसे बड़ी बाधा कनककामिनी को वे मानते है। जिन्हे कबीर "दुर्गम घाटी दोय' बताते है। इसके अतिरिक्त कुलकुसंग, लोभकपटआशा, घृणा आदि। यह मायाजाल भी मन द्वारा होता है। इसलिए कबीर मन माधना पर जोर देते है। इसलिए कबीर मनसाधना पर ज़ोर देते है। भक्ति में वे मानव शरीरगुरुसत्संग यह महत्वपूर्ण साधन मानते हैं। भक्ति मार्ग में एकमात्र मार्गदर्शक गुरु है । गुरुबिना तो भक्ति सम्भव नहीं।
सतगुरु की महिमा अनन्तअनन्त किया उपकार
लोचन अनत उघाडिया अनत दिखावन हार ।
साधु संगती की महिमा अपार है। भक्ति का वह आवश्यक अंग है।  जिसे कबीर ने स्वर्ग से भी अधिक महत्व प्रदान किया।
राम-बुलावा भेजियादिया कबीरा रोया
जो सुख साधू-संग में, सो बैकुंठ न होय

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