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स्री - संघर्ष की अथक कहानी

    साठ के दशक या उसके पूर्व स्री-विमर्श की बातें करने वाला साहित्य नाममात्र के लिए अस्तित्व में था । नारी के रूप में छायावाद का आधारस्तंभ रह चुकी महादेवी वर्मा के बाबजूद तारसप्तक में किसी भी महिला रचनाकार को समाविष्ट नहीं किया गया । मात्र साठ के दशक के बाद हिंदी साहित्य में स्री-विमर्श जैसे विषयों को लेकर कई स्री-साहित्यकाराें का आगमन हुआ । यह साहित्य असीम आत्मसंघर्ष के बाद जागरूक होती हुई स्री का अपना रचा हुआ इतिहास है । ऐसा इतिहास जिसके प्रत्येक पृष्ठ पर स्री मन की घूटन को महसूस किया जा सकता है । नारी मुक्ति से ज़ुडे अनेक प्रश्न, इन प्रश्नों से जुड़ी नारी की सामाजिक, पारिवारीक और आर्थिक बेबसी तथा इससे उत्पन्न स्री की मनस्थिति का चित्रण साहित्य में अनेक स्तरों पर तब हुआ, जब घर की परंपरावादी चौखट को लांघ कर नारी के कदम अपने आप को खोजने के लिए बाहर पड़े। अतः स्री साहित्यकारों द्वारा रचित साहित्य न सिर्फ स्री के मानसिक द्वंद्व को चित्रित करता है, बल्कि उसके संघर्ष के इतिहास को भी प्रकट करता है, जो अब तक साहित्य का क्षेत्र नहीं था ।
    हिंदी की कथा लेखिकाओं ने अपने लेखन के माध्यम से स्री के प्रति परंपरागत दृष्टिकोण को अस्वीकार कर उसे स्वतंत्र अस्तित्व की गरिमा प्रदान करने की दृष्टि से नया कदम उठाया । महादेवी वर्मा के शब्दों में - "वास्तव में स्री भी अब केवल रमणीय या भार्या नहीं रही, वरण् घर के बाहर भी समाज का एक विशेष अंग तथा महत्वपूर्ण नागरिक है।" लेखन कर्म के द्वारा स्रियों का प्रतिनिधित्व करने का सुनहरा अवसर इन स्री लेखिकाओं को प्राप्त हुआ । जिनके कारण स्रियों के जीवन की ऐसी कितनी ही विसंगतियां, विड़बनाएं साहित्य में उमड़ पड़ी। आधुनिक युग द्वारा प्रदत्त बदलते परिस्थिति, परिवेश में निज अस्तित्व को ढूँढती नारी सामाजिक संघर्षों से जूझती हुई अपने विद्रोह को मुखरित करने का प्रयास कर रही है। नारी की परंपरा से आबद्ध इस संकीर्ण समाज से मुक्ति की यह व्यथा भरी कथा चाहे कितनी ही पुरानी क्यों न हो, हर युग में वह नई ही लगती है । इसी व्यथा की अभिव्यक्ति कहानी के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास ममता कालिया, शिवानी, नासिरा शर्मा, मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्पा, मेहरून्निसा परवेज, कृष्णा सोबती, राजी सेठ, मृणाल पांड़ेय, मणिका मोहनी, सूर्यबाला, शशिप्रभा की कहानियों में प्रखर ढंग से देखा जा सकता है । स्रियों के बदलते सामाजिक परिवेश को भी इस संदर्भ में परखा जा सकता है। यौन स्वतंत्रता हेतु सामाजिक नियमों को ताक पर रखती नारी, नैतिकता और रिश्तों के नाम पर ठगी जाने वाली नारी, आत्मसुख के लिए दहलीज लाँघने का प्रयास करने वाली नारी का चित्रण भी हिंदी साहित्य में किया गया । इस दृष्टि से मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी "पॉजिटिव", शाइस्ता फाखरी की कहानी "मंगला की वापसी"  एवं उषा यादव की कहानी "लपका" का मूल्यांकन करने का प्रयास यहां किया गया है ।
    "पॉजिटिव" कहानी की नायिका स्टैला ओल्ड गोवा और पंजिम के बीच विरासत में मिले कॉटेज रूपी रेस्तरां को चलाती है । जब उसकी मां की ओर से शादी की कोई बात नहीं चलती, तब अपने आप को अपराधी-सा मान वह काम और कस्टमर्स में स्वयं को ढालती है । स्टैला की इस अवस्था को देख प्रश्न उठता है कि समाज के लिए क्या विवाह ही जीवन की अंतिम की सार्थकता है ? विवाह जैसी घटना को अपनी जिंदगी में न पाकर स्वयं को भूला देने की कोशिश नारी द्वारा क्यों होती है ? प्रेम को तलाशता नारी का मन अपना प्राप्य न पाकर कड़ा तो बनता है, पर प्रकृतिदत्त मासिक नारी धर्म उसे अपने स्रीत्व की पुनः याद दिलाता है । असफल आत्मरति की तकलीफें कभी स्टैला को मृत्यु की ओर भी उद्युक्त करती है । वह औरत होने का सहज आनंद महसूस करना चाहती थी, वह सुनना चाहती थी प्यार की बातें । परंतु न चाहते हुए भी रेस्तरा में पेइंग गेस्ट के रूप में आए बॉब के वासनालिप्त हाथों में वह स्वयं को छोड़ देती है । मां बनना स्टैला के लिए अपने वर्तमान को भविष्य के  लिए सुरक्षित रखना था । किंतु यायावरी करने वाले बॉब से स्टैला को मिलता है एच.आय.व्ही पॉजिटिव होने का उपहार । परंतु उसका मातृत्व उसे अपने बच्चे के प्रति अधिक संवेदनशील करता है । इसी कहानी की पार्वती जैसी युवतियां मुक्त यौन संबंधों को स्वीकारती है । वह खुश है कि महान बनने के चक्कर में उसकी बहन की तरह वह पति से नहीं पीटती। शबाना स्वयं एच.आय.व्ही. पॉजिटिव यौनकर्मी थी, जो "बी बोल्ड" नाम से कैंपेन चलाते हुए स्वयं इंटर पर्सनल कम्यूनिकेटर का काम करती हुई दूसरों को जिंदगी जीने के लिए उद्युक्त करती है ।
      इस कहानी की स्टैला, पार्वती, शबाना जैसी कितनी ही नारीयां समाज में है, जो जिंदगी में अप्रिय क्षणों को जीती है, अपनों के द्वारा ही ठगी जाती है । पर पलायन, आत्मघात को नहीं स्वीकारती। वह तड़पती रहती है, पूर्ण तन्मयता से प्रतिक्षा करती है, प्रलय का इंतजार करती है । प्रेम और भरोसें की ईटों से वह अपनी गृहस्थी बनाती है । पर पुरुषी विश्वासघात और अधिकारों की अति के हथौड़े उसके इस नीड़ में इतने सुराख कर देते है कि नारी का व्यक्तित्व ही दोलायमान हो जाता है। बड़ी-बड़ी उपाधियों से लाद कर, झूठ-सच्चा स्नेह दिखा कर नारी को बलिदान के लिए उकसाया जाता है। "बलिदान की प्रतिमूर्ति" जैसे विशेषणों से लाद कर उसे अमानुषिेक मानसिक यंत्रणाएं दी जाती है । इतना ही नहीं इन अत्याचारों को परंपरा, संस्कृति के नाम पर चुप-चाप सहने के लिए नारी को अभयस्त भी बनाया जाता है । उषा यादव की कहानी "लपका" इन्ही स्थितियों से गुजर चुकी मीरा पर आधारित है, जो बत्तीस साल की गृहस्थी के बाद पुनः पी.एच.डी. का सपना ले विश्वविद्यालय आती है । शादी के पहले घड़ी की सुई पर काम करने वाली मीरा जैसी सुशिक्षित स्रियों के लिए विवाह पश्चात घड़ी आभूषण मात्र बन जाती है । पहले पढ़ाई के लिए रुढि़वादी पिता से झगड़ना पड़ता है । फिर विवाह पश्चात हर चीज के लिए उसे पति या पुत्र पर निर्भर रहना पड़ता है । वह सिर पर न चढ़े इसलिए उसे हथोत्साह करने उसकी पी.एच.डी. की मांग को नकारा जाता है । इतना ही नहीं उसका कमरे में किताब पढ़ना भी दुस्साहस माना जाता है। शोषण के विविध रूपों को सहती मीरा का जीवन "अन्नपूर्णा" की उपाधि से अधिक नीरस बन जाता है । पति और पुत्र की प्रत्येक सफलता के पीछे छिपा उसका व्यक्तित्व लुप्त हो जाता है। पति द्वारा दिखाए गए बड़प्पन के फलस्वरूप मिली नौकरी की इजाजत और पुनः पति के मन में उपजी असुरक्षिता की भावना के परिणाम स्वरूप केवल मेहमान नवाजी के नाम पर मीरा का नौकरी से इस्तिफा देना नारी की त्रासदी को ही व्यक्त करता है ।
    मां, भगिनी, पतिव्रता पत्नी बनी स्री अपने दायित्वों को निभाते हुए अपनी बौद्धिक  संपन्नता, शक्ति को भुला कर संसार के दायरें में अपने आप को बंद कर देती है । पुरुष की निरंकुशता और वर्चस्व में घुट रही नारी की तड़प, स्वाधीनता और मुक्ति की ललक को इस कहानी में देखा जा सकता है। पति द्वारा किए जाने वाले मानसिक, भावनिक अत्याचार, परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा होने वाला उत्पीड़न आदि से लहु-लुहान हुई नारी हार नहीं मानती, यह उसके संघर्ष की सार्थक-सकारात्मक मुद्रा है ।
    फिर भी औरत जात जब भी भटकी, समाज ने उसे चौराहे पर खड़ा कर दिया । इसी को प्रतिपादित करती शाइस्ता फाकरी की "मंगला की वापसी" कहानी की नायिका मंगला सुंदर होते हुए भी पति द्वारा परित्यक्ता होती है। चौराहे पर फेंके जाने के डर से जब भी वह किसी अन्य पुुरुष का सहारा लेती है, समाज इसे स्वीकार नहीं कर पाता और वह बार-बार बेघर होती है। जब नई जिंदगी के लिए वह कदम बढ़ती है, तो साधूओं के प्रतिनिधित्व हेतू उसे इलेक्शन के लिए खड़ा किया जाता है । क्योंकि  "महिलाओं के नाम पर जो भीड़ जुटती है, पुरुषों के नाम पर उतनी पर नहीं जुटती ।"  इलेक्शन जीतने पर कठपुतली बनने की जगह वह जन चेतना हेतू आंदोलन शुरू करती है और कामयाब भी होती है । पर मंगला यह नहीं समझ रही थी कि उसे दूसरों के द्वारा दौड़ाया जा रहा है । किंतु फिर से चौराहे पर खड़ा न होना पड़े इसलिए चल रहा मंगला का संघर्ष तब अचानक खत्म हो जाता है, जब खबर आती है कि मंगला ने समाधि में ही शरीर का त्याग कर दिया ।
    पुरुष को गरिमा,शालीनता देने वाली स्री शांत रहती है,चुप्पी साधती है। यही पुरुषी समाज नारी से पोषण मूल्य पाकर अपने व्यक्तित्व को विस्तारित करता है । पर विकासरस को स्री वर्ग तक न पहुंचा कर उसे इस आनंद से वंचित रखता है। जीवन के लिए पहले से ही संघर्ष करता स्री रूपी पौधा सामाजिक परिवेश में कमजोर ही रहता है । जिसकी अभिव्यक्ति स्री लेखिकाओं द्वारा विविध रूपों में हुई है । संवेदना के क्षेत्र में नारी हमेशा पुरुष से आगे रही है । वह सदा से ही समाज का अनिवार्य घटक रही है । ऐसा होते हुए भी नारी के स्वावलंबन के लिए समाज आज भी तैयार नहीं । बल्कि रुढि़-परंपराओं के नाम पर उसके पैरों में बेडि़यां डाल कर नारी की गति संथ करने का प्रयास किया जाता रहा है । ताकि विकास की इस दौड़ में वह पुरुषों से पीछे ही रहे । अपनी कोमल भावनाओं को दबा कर नारी संपूर्ण जीवन कष्टों में ही काटे, यही उससे अपेक्षा की जाती है । पिता, पति, पुत्र की गुलामी में वह पुरुषी सहारा खोजती हुई जिंदगी गुजारती है और इन्हीं स्थितियों में परिवार की प्रतिष्ठा बनाए रखने हेतु एक दिन वह स्वयं गुजर जाती है । 
    यह सत्य है कि साहित्यिक क्षेत्र पर अब तक प्रायः पुरुषों का ही अधिकार रहा है । ऐसे में साठ के दशक से कई स्री लेखिकाओं के साहित्य मंदिर में आगमन से नारीवादी लेखन में सशक्तता आ गई । नारी का जो भोग्या रूप अब तक साहित्य पर छाया हुआ था, उसे इन स्रीवादी लेखिकाओं द्वारा न्याय मिला । सिंदूरी आभा लिए अवतरित हुई ये लेखिकाएं समस्त नारी अस्तित्व की निर्मिती के लिए छटपटा रही है ।
    आज के साहित्य में चित्रित नारी प्रकृति के प्रत्येक उपादान में है । वह कस्बों में है, खेतों में है, पनघट पर है, वेदऋचाएं गाती, शास्त्रार्थ करती, शस्त्र चलाती यही नारी आज अॉफिसों में भी है, पर्वतों के शिखरों, आसमानों पर अपना नाम लिखवा चुकी है । अपने श्रम से लोहा मनवाने वाली स्री फिर भी दुय्यम जीवन जी रही है । कहीं बतियाती, कहीं धान काटती, कहीं पत्थर फोड़ती, कहीं गारा ढोती, कहीं पढ़ती, कहीं पढ़ाती, कहीं लड़ती-झगड़ती, तो कहीं पीटी जाती, कहीं गर्भस्थ शिशु के लिए गुनगुनाती, तो कहीं लोक-लाज के कारण अपने ही शिशु को छोड़ते हुए तड़पती, कहीं आंखों में आंसू और दिल में सपना ले समाज को झुकाने के लिए कटिबद्ध, कहीं स्वयं समाज बनाने के लिए वचनबद्ध  नारी कितने ही रूपों में, नारी विकास की कितनी ही कहानियां लिए आज के साहित्य में अपनी जगह बनाकर नई ऊंचाईयां छु रही है । यह साहित्य स्री-विमर्श तक सीमित न रह कर देशकाल एवं समाज-शासन व्यवस्था को परखते हुए स्री-विरोधी मान्यताओं को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहता है । नारी के कई छुए-अनछुए पहलुआें को प्रस्तुत करने का प्रयास इस साहित्य द्वारा हुआ है ।
    अंत में यही कहा जाएगा कि नारी लेखिकाआें ने अपने साहित्य के माध्यम से नारी व्यथा की सहज अभिव्यक्ति का प्रयास किया है । एक ओर परंपरा से विद्रोह करती नारी है, तो दूसरी ओर अपने सहज मानवीय गुणों को सहेजती नारी के दर्शन भी यहाँ होते है । शोषण के विरुद्ध उसमें आक्रोश है, सामाजिक मान्यताआें का उल्लंघन करने की शक्ति है, वहीं जीवन की तीव्र जिजीविषा भी है ।

संदर्भ ग्रंथ सूची :-
१) पंचशील शोध समीक्षा, वर्ष ४, अंक १५ जनवरी-मार्च २०१२
२) समकालीन भारतीय साहित्य - मई-जून २००८
३) मधुमती पत्रिका - फरवरी २००९
४) हिंदी साहित्य में चित्रित युगीन बोध - सं।डाù।शैलजा भारद्वाज,चिंतन प्रकाशन,कानपुर
५) स्वांतत्र्योंत्तर हिंदी उपन्यासों में समाज परिवर्तन - डाù।शेख रब्बानी - विद्याविहार,कानपुर
६) श्रृंखला की कडि़यां  - महादेवी वर्मा

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