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रस सिद्धांत


रस जिसे अब तक हमने भौतिक रूप में ही जाना, जो पंचेद्रियों के द्वारा ग्रहण किया जाता है, जो ऐंद्रिय है। मात्र काव्यरस किसी फल का इंद्रियजन्य रस नहीं, न अलौकिक सुखानुभूति है। यह भौतिकता के परे वह काव्यजन्य आनंद है, जो उदात्त, स्पृहनीय भावनीय-मानसिक आनंद को उत्पन्न करता है। भौतिक रस के विपरित काव्यरस का आनंद चिरंतन, दीर्घकालीन होता है। जो सहृदय के हृदय को सत्वोंद्रेक की दशा में प्राप्त होता है। सत्वोंद्रेक मनुष्य मन की वह स्थिति है, जिसमें वह लौकिक मोह, माया,घृणा आदि से परे हो जाता है। ऐसे में प्राप्त होने वाली इंद्रियानुभूति भी कभी आत्मिक आनंदानुभूति बन जाती है।


परंपरागत अर्थ में रस का अर्थ है - सरसता और उसके कारण प्राप्त होनेवाला आनंद। भारतीय परंपरा में रस की धारणा अत्यंत प्राचीन है। प्राचीन आचार्यों ने रस को जीवन का सार और जीवन को रस के लिए ही परिकल्पित किया है।

    रस - व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ


जीवन के समान ही काव्य में भी सरसता आवश्यक होती है। अतः रस के व्युत्पत्ति के संदर्भ में अनेक विद्वान अपने-अपने मतों को प्रस्तुत करते है।

'रसों वै स:' कहकर ब्रम्हत्व का आधान रस में किया है। अर्थात 'वह रस रूप है, वह ब्रह्म है', यह तैत्तिरीय उपनिषद में कहा गया है। साधक साधना के चरमोत्कर्ष पर पहुंचकर अनिर्वचनीय, अलौकिक आनंद की अनुभूति करता है, उसी प्रकार काव्य से भी एक अनिर्वचनीय अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है।

संस्कृत के वैयाकरणकार लिखते है- 'रस्यते इति रसः', अर्थात जिसका आस्वाद किया जा सके, वही रस है। इसी प्रकार 'रस आस्वादन स्नेहयो' अर्थात स्नेहिल आस्वाद को रस कहा गया है।  

रस की ओर एक व्युत्पत्ति में कहा गया है कि - 'सरते इति रसः', अर्थात जो बहे, वह रस है।

रस की द्रवणशीलता के रूप में शतपथ ब्राम्हण में मधु के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग मिलता है - 'रसौ वै मधु'।

इसके अतिरिक्त उपनिषदों में प्राप्त एक व्युत्पत्ति के अनुसार - 'रसःसारःचिदानंद प्रकाशः' अर्थात रस का सार चिदानंद प्रकाश की उपलब्धि है।

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