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रविवार, 10 फ़रवरी 2019

दिव्या -यशपाल

1945 में प्रकाशित यह उपन्यास ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में स्त्री की पीड़ा के सामाजिक कारणों की तलाश करता है। मात्र उपन्यास का अनुशीलन करने से पूर्व यह भी समझना होंगा कि यह उपन्यास इतिहास नहीं ऐतिहासिक कल्पना मात्र है। इसके साथ ही दिव्या के रूप में नारी जीवन की सबसे बड़ी विभीषिका को इस कथा के माध्यम से देखा जा सकता है। 


दिव्या उपन्यास की कथावस्तु
राजनर्तकी देवी मल्लिका की युवा पुत्री रुचिरा के अकाल मृत्यु से सागल नगरी दो वर्ष मल्लिका के शोक के साथ शोकातूर रही। वयोवृद्ध मिथोद्रस यवनराज  मिलिंद के राज्य काल में मद्र साम्राज्य के सेनापति थे। मद्र गणराज्य में वे गणपति पद पर आसीन थे। मधुपर्व उत्सव पर शस्त्र कौशल्य की प्रतियोगिता एवं नृत्य संगीत के कार्यक्रम में महाश्रेष्ठी प्रेस्थ के पुत्र पृथुसेन को सागल का सर्वश्रेष्ठ खड्गधारी नियुक्त किया जाता है; तो देवशर्मा की प्रपौत्री दिव्या को सरस्वती पुत्री का सम्मान दिया जाता है। इस सम्मान को पाने वाली युवती को पुष्प आच्छादित शिविका में अभिजात वंश के युवक अपने कंधे पर युवती के गृह द्वार तक ले जाते थे। पर पृथुसेन को दास पुत्र होने के कारण अभिजात वंशियों के साथ कंधा देने का अधिकार नकारा जाता है
यवनराज मिलिंद के द्वारा मद्र से पौरव वंश के उच्छेदन के बाद पौरव राज्य के धर्मस्थ महापंडित वागीश शर्मा की मृत्यु के बाद उनके पुत्र देवशर्मा को धर्मस्थ का पद दिया जाता है। पृथुसेन शिविका के संदर्भ में हुए अन्याय पर न्याय मांगने धर्मस्थ के पास आता है, किंतु अस्वस्थ धर्मस्थ से उसकी भेंट होकर दिव्या से होती है। दिव्या उसे न्याय का आश्वासन देती है। मात्र धर्मस्थ के सामने यह समस्या थी कि दासत्व से मुक्त और गणों द्वारा सम्मानित पृथुसेन खड्ग बल से अपने अधिकार की रक्षा करना चाहता था। परिषद के सम्मुख उसने सेना पद के लिए आवेदन भी दिया था। यह पद पाकर वह सामंत कुल का पद, अधिकार पा जाएगा, ऐसे में द्विज कुल की स्थिति विकट होंगी। इधर पृथुसेन को दिए न्याय के वचन से दिव्या व्यथित होती है। उसकी दुविधा तब बढ़ती है, जब परिवारजन उसे विवाह योग्य जान आर्य रूद्रधीर की अभ्यर्थना करने का विशेष आदेश देते हैं।
मद्राधिपति यवनराज मिलिंद ने धर्म चक्र में दीक्षित होते समय कई दासों को दासत्व से मुक्त किया था। साथ ही उनके भरण-पोषण हेतु यथेष्ट द्रव्य भी दिया। इन्हीं मुक्त दासों में से एक प्रेस्थ, जो राजकीय दास होने के साथ विशेष चतुर, विनीत और अश्वों की वंशवृद्धि और चिकित्सा में दक्ष था। प्रवज्या के पूर्व प्रेस्थ को मिलिंद से बहुमूल्य अश्व प्राप्त हुए थे। जिनके व्यापार से आई वृद्धि के चलते प्रेस्थ स्वयं धन संपन्न हो सामंत के समान रहने लगा था। एक दरिद्री रूपवती द्विज कन्या का क्रय कर प्रेस्थ उससे विवाह करता है। अपने पुत्र पृथुसेन को वह सामंतों के समान शास्त्र और शस्त्र की शिक्षा दिलवाता है।
मगध के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र द्वारा मौर्यकुल के अंतिम राजा बृहद्रथ के वध की सूचना से मद्र में यह जन श्रुति  फैलती है कि मौर्यवंशी शूद्र राजाओं के कलंक और नास्तिक मुंडी धर्म के अभिशाप से मुक्ति हेतु भगवान कार्तिकेय ने पुष्यमित्र के रूप में जन्म लिया है। इसी के साथ यज्ञ और पशु बलि तथा वर्णाश्रम का पुनरुत्थान शुरू हुआ। इसके विरुद्ध बौद्ध अनुयायियों की गतिविधियां भी बढ़ी। किंतु इस प्रतिद्वंद्विता से जन विरक्त था। मारिश यज्ञबली, कर और संघस्थाविर के आदेशानुसार मूर्ति उत्कीर्ण करने को इन्कार करता है। जिससे उसे दंडित किया जाता है। जन समुदाय क्षुब्ध था, वहीं मद्र के उत्तर-पूर्व सीमा पर यवन केंद्रस के आक्रमण के समाचार रहे थे। पर मद्रवासी अनेक वर्षों के शांतिपूर्ण जीवन के चलते युद्ध की भावना को भूल चुके थे। राज्य कोष भी रिक्त हो चुका था। ऐसे में सेना के आयोजन की जिम्मेदारी कुलों पर सौंपी जाती है। इस हेतु उन्हें कुछ ग्राम अपनी सेवा के अनुसार अग्रहार में दिए गए। किंतु अग्रहार ग्रामों से प्राप्त बलीकर सैनिकों के पोषण के स्थान पर सामंतों के विलास में व्यय होने लगा। पुष्यमित्र से सहायता हेतु शूरसेन, मगध संदेश भिजवाए जाते हैं। आचार्य प्रवर्धन आदि संग्राम यज्ञ की ओट में वर्णाश्रम धर्म की स्थापना चाहते थे। पर पृथुसेन इस तथ्य को जानता था कि केंद्रस के सामने वही बचेंगे जो अपने सम्मान को नष्ट करेंगे। सैनिक बने नए लोक जनसामान्य को लूटते हैं। सामान्य जनों में आक्रोश है कि उनको लूटकर राजपुरुष वैभव में जी रहे हैं, सामान्य पुरुषजनों को जबरदस्ती सेना में भर्ती किया जा रहा है, उनके अश्व राज्याधिकृत किए जाते हैं। तो कुछ इस घड़ी को टालने चीवर धारण की सोचते हैं, तो कुछ पलायन की। ऐसे में अभिजात समाज का षड्यंत्र, उनके द्वारा होनेवाली जन उपेक्षा और जन असंतोष स्पष्ट था।
आचार्य प्रवर्धन शूरसेन और मगध से गुप्त संधि करता है। प्रेस्थ इस संधि के प्रमाण धन की ऐवज में प्राप्त कर  पृथूसेन को सौंपता है; ताकि इस आधार पर वह गणपति और धर्मस्थ का  विश्वास प्राप्त करें। कुछ दिन पश्चात गण परिषद के गणपति महासेनापति मिथोद्रस  की ओर से घोषणा की जाती है कि कोई राजपुरुष बलात बली ग्रहण करेगा, सैनिक कार्य के लिए बलात बाधित होगा। गणसेना में स्वेच्छा से सेवा करने वाले पुरुष की कृषि भूमि राजस्व से मुक्त होंगी और दास दासत्व से मुक्त होंगे। इस घोषणा के परिणाम स्वरुप यह निर्णय लिया जाता है कि आचार्य रूद्रधीर को मगध भेजा जाए ताकि मगध में वह द्विज सेनापति और महर्षि पतंजलि से वर्णाश्रम के उद्धार के लिए दीक्षा ग्रहण करें। इसके पूर्व मधुपर्व में दास पुत्र पृथु सेन के अपमान के लिए रूद्रधीर को एक सहस्त्र दिवस का निर्वासन दंड सुनाया जाता है। मद्रगण के धर्मस्थ के अनुशासन की अवज्ञा के अपराध में उसे और एक सहस्त्र दिवस का निर्वासन दंड मिलता है। अतः कुल, वर्ण और अपने अपमान का प्रतिशोध लेने की ठान रूद्रधीर निर्वाचन के लिए चल पड़ता है।
अपने पिता से अनुमति ले पृथुसेन धर्मस्य के सम्मुख दिव्या के पाणि के लिए भिक्षा मांगता है। चूंकि पृथुसेन अब बलाधिकृत का पद पा चुका था, दिव्या भी अपने परिवार के सम्मुख पृथुसेन से ही विवाह का आग्रह स्पष्ट करती है। निरंतर पृथुसेन के लिए व्यग्र रहने वाली दिव्या समर यात्रा के लिए प्रस्थान करने वाले पृथुसेन को आत्मसमर्पण करती है। पृथुसेन के नेतृत्व में चल रहे युद्ध में केंद्रस की गति रुक जाती है। उसके दस्यू दल दार्व से हटने लगे। केंद्रस की सेना परास्त हो पीछे हट रही थी और उनका पीछा करते हुए पृथुसेन गणराज्य की सीमा का विस्तार कर रहा था। पृथुसेन दार्व का आधा प्रदेश जीतता है और केंद्रस को धराशाही करता है। इसमें पृथुसेन भी आहत हुआ। इधर विवाह पूर्व गर्भावस्था ने दिव्या को चिंता में डाल दिया।
युद्ध से विजयी लौटे घायल पृथुसेन की परिचर्या महासेनापति मिथोद्स की पौत्री सीरो कर रही थी।  दिव्या अचेत पृथुसेन को देखने तो आती है, पर दिव्या का अधिक प्रतीक्षा करना पृथुसेन को व्यग्र कर देता है। अपने पिता के मुख से सीरों की प्रशंसा सुनकर भी पृथुसेन दिव्या से विवाह के लिए प्रतिबंद्ध होने का पुनरुच्चार करता है। पर प्रेस्थ उसे समझाता है कि गणपति पुत्री से विवाह कर वह महाकुलीन सामंत बन जाएगा। प्रेस्थ अपनी महती महत्वाकांक्षा को प्रकट करता है कि वह पृथुसेन के द्वारा मद्र में प्रेस्थ वंश का राज्य स्थापित करवाना चाहता है। मात्र सीरो दिव्या को सपत्नी के रूप में स्वीकारे जाने का विरोध करती है।
दिव्या की स्थिति विकट होती जाती है। दासी धाता और धाता की पुत्री छाया परिवार में दिव्या के साधारण होने की बात कह स्थिती संभालने का प्रयास करती। इधर पृथुसेन और सीरों का वाग्दान होता है। दिव्या की स्थिति को लेकर परिवार में भी चर्चाएं शुरू होती है। अतः दुश्चिंता की इस घड़ी में किसी से कुछ कहे बिना दिव्या प्रेस्थ प्रासाद की और आती है। पर सीरों के साथ बैठा पृथुसेन दिव्या से मिलने के लिए इंकार करता है। अपने  लिए परिवार और पृथुसेन के पास आश्रय देख, गर्भ रक्षा हेतु दिव्या अकेले रहने का निर्णय करती है। दासी धाता भी उसी के साथ होती है। पर दुर्भाग्य से दोनों  ऐसे घर पर लाई जाती है जहां उन्हें बंधक बनाया जाता है।
इधर दिव्या और धाता के देर तक ना आने और दिव्या की शिविका के रिक्त आने पर संपूर्ण परिवार दिव्या की खोज में जुट जाता है। धाता की पुत्री दासी छाया और चारों शिविका वाहकों को बंधन में लिया जाता है। उन्हें विशेष पीड़ित कर सत्य जानने की कोशिश की जाती है। इसी प्रयास में छाया की मौत हो जाती है। छाया की मृत्यु के समाचार को सुन धर्मस्थ व्याकुल हो जाते हैं। स्वामी स्नेह के परिणाम से छाया की मृत्यु के अवसाद से पश्चाताप ग्रस्त धर्मस्थ की भी मौत हो जाती है
दिव्या दास व्यवसायी श्रेष्ठी प्रतुल के हाथों पड़ती है। धाता को प्रतुल दिव्या से अलग कर देता है। दासीयों के नवजात संतानों का विक्रय करनेवाला प्रतुल समझ चुका था कि शिशु को अलग करने पर दिव्या जीवित नहीं रहेंगी। अतः प्रतुल उसे कश्मीर देश की दारा कह मथुरा में दास व्यवसायी भूधर को बीस स्वर्ण मुद्रा में सौंपता है। वहां से पचास स्वर्ण मुद्रा दे पुरोहित चक्रधर दारा को संतानसह खरीदता है। विषम ज्वर से मुक्त पुरोहित पत्नी के स्तन सूख जाते हैं। ऐसे में दारा अपने और पुरोहित के नवजात शिशु दोनों को ह्रदय से लगाती है। पर स्वामिनी की आज्ञा थी कि पहले स्वामिनी पुत्र को स्तनपान कराया जाए फिर उसके अपने पुत्र शाकूल को। अपने पुत्र को दूध के लिए क्षुधित देख दारा का ह्रदय रो उठता वह अपने स्तन के दूध की चोरी करने लगी। जिसे देख स्वामीनी दारा की कठोर प्रताड़ना करने लगी। चतुर द्विज पत्नी दारा के पुत्र शाकूल को उसके सम्मुख लाने की आज्ञा देती। अपने पुत्र के प्रति ममता की अनुभूति से दारा के स्तन से दूध और नेत्रों से जल बहता। दारा अपने शोक को बौद्ध श्रमण के वचनों पर परखती है। उसका मन यह मानने को तैयार नहीं होता कि उत्पन्न होने से पूर्व ही कर्म फल जुट जाता है। क्योंकि उसका पुत्र शाकूल किस दंड को भोग रहा है, वह स्वयं नहीं समझ पा रही थी। ऐसे में एक बार द्विज पत्नी के बालक की क्षुधा पूर्ति हेतु दारा के स्तन में दूध पाकर द्विज पत्नी क्रुद्ध हो उसे धान कूटने के कठोर कार्य पर लगाती हैं। इतना ही नहीं पुरोहित तथा उसकी पत्नी शाकूल को कहीं देने का निश्चय कर लेते हैं। भिक्षाटन से लौटते श्रवण की पुकार कि बुद्ध की शरण में आओ’, सुन शरण के लिए व्याकुल दारा मध्यान सूर्य के प्रचंड ताप में शाकुल को अंक में लिए महाबोधि चैत्य आती है।
दारा चैत्य के स्थाविर से होनेवाले अत्याचार से शरण मांगती है, ताकि वह अपनी संतान को पा सके। वह यह भी आश्वासन देती है कि धर्म का पालन करती हुई वह मोहमुक्त होकर चेरी धर्म ग्रहण करेंगी। किंतु स्थाविर यह कहकर दिव्या की अनुनय अस्वीकार करता है कि उसके ना तो अभिभावक या स्वामी की अनुमति है, ना ही वह वेश्या अर्थात स्वतंत्र स्त्री है। दारा बनी दिव्या के सामने एक ही बात स्पष्ट थी कि परतंत्र होने के कारण उसे शरण प्राप्त नहीं हुई। कुल नारी होकर भी वह स्वतंत्र नारी नहीं, केवल वेश्या स्वतंत्र है। अतः वह निर्णय लेती है कि वह स्वतंत्र होगी। इस हेतु एक पथिक से वेश्याओं का मार्ग पूछती है। पर एक युवक उसका परिहास करते हुए कहता है कि माता का सम्मानित पद पाकर भी वेश्या बन वह समाज की शत्रु बनना चाहती है, तो योग्य यही होगा कि वह यमुना का आश्रय ले। श्रेष्ठी पद्मनाभ का यमुना तट पर अन्नक्षेत्र था, जहां कई कंगालों का समूह था। वही आगे बढ़ने की चेष्टा करने वाली दारा को अपने स्वामी पुरोहित का स्वर सुनाई देता है, जो उसे पकड़ने की आज्ञा दे रहे थे। पर पुनः पुरोहित के हाथ पडने की अपेक्षा घबरायी दारा शाकूल को ह्रदय से चिपकाए मृत्यु को श्रेयस्कर जान ऊंचे तट से जल में कूदती है। वहीं जल में शूरसेन प्रदेश की जनपद कल्याणी राजनर्तकी देवी रत्नप्रभा का बजरा था। रत्नप्रभा के आदेश से सेवक डूबती स्त्री को जल से निकालते हैं। पर दारा का शिशु  निष्प्राण हो जाता है। उसी समय महाउपरिक रवि शर्मा का बजरा भी वहीं आता है। उसके सम्मुख पुरोहित गुहार लगाकर अपनी संतान के लिए दारा को मांगता है। तो रत्नप्रभा दारा के बदले मूल्य चुकाने को स्वीकार होती है
ब्राह्मण को दासी पुत्र की हत्या के आरोप में दो सौ स्वर्ण मुद्रा का दंड लगाया जाता है, तो स्वामी गृह से पलायन के अपराध में धर्मस्थान दारा को पीठ पर चार कशा (कोड़े) का दंड सुनाता है। दारा रत्नप्रभा की सेवा में जाती है। दारा की नृत्य प्रतिभा को देख तथा उसके गुण रहस्य को जान रत्नप्रभा उसे नया नाम देती है –‘अंशुमाला इसके पश्चात भी दिव्या के लिए पुत्र वियोग का दुख दूर्भेद कवच के समान था। अंशुमाला की लोकप्रियता के कारण रत्नप्रभा के पास दूना धन आने लगा और रत्नप्रभा उत्तराधिकारी के रूप में अंशुमाला की ओर देखने लगी। पर समाज के प्रति अंशु की विरक्ति-उपेक्षा से यह अफवाह फैलने लगी कि अंशुमाला मात्र नृत्य की काष्ठ पुत्तलिका है। इस पर रत्नप्रभा अंशुमाला को समझाने की चेष्टा करती है। श्रावण मास में वृंदावन में आयोजित दोल महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ कलावंत का सम्मान अंशु को प्राप्त हो रहा था। रत्नप्रभा के मित्रसम मारिश अचानक से रत्नप्रभा की चतुश्शाल में उपस्थित होता है। वह अंशु बनी दिव्या को पहचान लेता है। दिव्या के दुख से द्रवित हो उसके प्रति अपने अनुराग को व्यक्त करता है। पर अंशु उसे स्मरण कराती है कि तीन वर्ष पूर्व वेश्या बनने के लिए तत्पर एक कंगाल नारी की मारिश ने भर्त्सना कर उसे यमुना का मार्ग दिखाया था, वह नारी ही वेश्या अंशुमाला है। अतः अंशु पुरुष की भोग्य बनते हुए कला की आराधना का निर्णय लेती है। मारिश दिव्या को पुनः समाज की धारा में लाना चाहता है। पर अंशु की अवशता देख मारिश मथुरा से प्रस्थान करता है।
डेढ वर्ष व्यतीत होता है, अंशु अपनी निराशा-विरक्ति को कला साधना, चिंतन में लय करती है। वही उसकी भेंट रूद्रधीर से होती है, जो निर्वासन का दंड भोग रहा था। दिव्या का नारीत्व सुरक्षित जान वह पुनः उसे प्राप्त करने का निश्चय करता है। इसी हेतु समाज में अंशुमाला के नृत्य को देख रूद्रधीर बहुमूल्य मुक्ता माला अंशी के चरणों में डालता है। पर अंशु उस माला को पुनः रूद्रधीर को यह कहकर लौट आती है कि विदेश में संकट के समय माला सहायक हो सकेंगी। रूद्रधीर अंशुमाला के सम्मुख प्रस्ताव रखता है कि वह अंशु को आचार्य पत्नी के रूप में ग्रहण कर सागल लौटेगा। उसका स्थान आचार्य कुल की महादेवी का होगा। तीन माह तक अधिक समय मथुरा में रहकर रूद्रधीर अंशुमाला के सम्मुख अपनी प्रार्थना रखता है, पर उसे निराश होना पड़ता है।
सागल में बाह्य तो नहीं पर अंतर्गत काफी परिवर्तन हो गए थे। युद्ध के संक्रमण काल में महासेनापति गणपति द्वारा ग्रहण किए गए सर्वाधिकार पक्षाघात से ग्रस्त होने के बावजूद उन्हीं के पास थे। उनकी राजकीय मुद्रा का प्रयोग परम विश्वस्त प्रेस्थ कर रहा था। गण परिषद की सदस्यता का आधार वंश पर नहीं, द्रव्य पर हो गया। द्रव्य के बल पर सामान्य जन भी कुल सम्मान से स्पर्धा करने लगे और अभिजातों की उपेक्षा होने लगी। प्रेस्थ को गण संवाहक नियुक्त किया जाता है। सीरो से विवाह कर पृथुसेन मद्र का सबसे अधिक समृद्ध, सम्मानित सामंत बन जाता है। पर आत्महनन के परिणाम स्वरुप वितृष्णा, शैथिल्य से भर गया पृथुसेन सीरो के व्यवहार से भी चिंतित था। पर मद्र के शासन के लिए वह सब सहता है। इधर मद्र से शत्रु का उच्चाटन करने रूद्रधीर सामंतों को सैन्य संधान करने कहता है। यह सैनिक साधारण वेष में सागल में प्रवेश करते हैं। पौरव वंश के सामंत सर्वार्थ को गणपति घोषित करने का निश्चय होता है।
पिछले कुछ वर्षों में योग्य उत्तराधिकारी ना पाने पर मल्लिका का समाज उजड़ सा जाता है। मल्लिका भी स्वीकार करती है कि अकुलिनों को प्राप्त सम्मान से अव्यवस्था में वृद्धि हुई है। अतः रूद्रधीर धर्म की स्थापना और रक्षा हेतू मल्लिका को सहायता हेतु सहमत करता है। मल्लिका के द्वारा शरद पूर्णिमा के अवसर पर समारोह का आयोजन होता है। मात्र इसका उद्देश्य पृथुसेन को समाप्त करना था। उस अवसर पर  पृथुसेन के पिता प्रेस्थ को समाप्त किया जाता है, पृथुसेन का प्रसाद जलाया जाता है। गणपति और सामंत ओकारी के प्रसाद भी शत्रु द्वारा घेर लिए जाते हैं। किसी तरह पृथुसेन वहां से प्राण बचाकर बुद्ध रक्षित संघाराम में आश्रय लेता है और मद्र पर द्विजों का शासन शुरू होता है; जिससे हीनकुल और बौद्धों का उत्साह मंद हो जाता है। पुनः युद्ध की ठान चुके पृथुसेन को स्थाविर समझाते हैं कि शत्रु के मन को विजयी करो। अतः पुथुसेन तथागत के त्रिशरण में सम्मिलित होने की अनुनय स्थाविर से करता है। इधर पृथुसेन को पाने के लिए उस पर इनाम घोषित किया जाता है। इससे पृथुसेन के संघराम में उपस्थिति पर संघनायक संघाराम की सुरक्षा का प्रश्न उठाते हैं। द्विधा मनस्थिति से उभरकर चीबुक पृथुसेन को प्रवज्या देकर रूद्रधीर के प्रसाद भिक्षा हेतु भेजते हैं, जो वर्णाश्रम धर्म के व्यवस्थापक, गण परिषद के संवाहक बन चुके थे। भिक्षु बना पृथुसेन रूद्रधीर के सम्मुख सार्वभौम मैत्री के सुख की भिक्षा मांगता है।
दूसरी ओर देवी मल्लिका योग्य उत्तराधिकारी ना मिलने के कारण चिंतित थी। अंशुमाला का नाम सुनकर मल्लिका उसके विषय में जिज्ञासा करती है। अपने उत्तराधिकारी की खोज में यात्रा करती वह मथुरापुरी आती है, जहां रत्नप्रभा से वह गुरु दक्षिणा में अंशुमाला को मांगती है। अंशुमाला को देख मल्लिका दिव्या को पहचान कर ह्रदय से लगाती है। मल्लिका द्वारा लाई गई अपनी उत्तराधिकारी को देखने सागल का जनसमुदाय उमड़ पड़ता है। पर मल्लिका घोषणा करती है कि अधिष्ठात्री का अभिषेक वह फाल्गुन की पूर्णिमा के पर्व पर करेंगे। इस आयोजन में सत्ता के सभी उच्च पदस्थ अपने कुलों के साथ उपस्थित थे। अभिषेक पूर्ण होने पर जब मल्लिका नवीन जनपद कल्याणी का मुख दर्शन कराती है, तो दिव्या को पहचान अभिजात वर्ग विश्रृंखल होने लगता है। तभी ललकार सुनाई देती है कि मद्र में द्विजकन्या वेश्या के आसन पर बैठकर जन के लिए भोग्या बनकर वर्णाश्रम को अपमानित नहीं कर सकती। धर्म व्यवस्थापक रूद्रधीर भी वर्णाश्रम व्यवस्था का अनुमोदन करते हैं। अतः दिव्या वहां से निकलकर नगर के बाहर स्थित पांथशाला का आश्रय लेती है। जनसमूह कौतुहल से उसके पीछे चल देता है। इस भीड़ को चीरते हुए भिक्षु प्रताड़ित नारी को धर्म की शरण देकर शांति देने हेतु व्यग्रता से आगे बढ़ता है, तो मारिश उसे सांत्वना देने आगे आता है। तभी रुद्रधीर भी वहां पहुंचता है
आचार्य रुद्रधीर दिव्या को कुलवधू, कुलमाता, महादेवी का सम्मान देने उपस्थित होता है। परंतु दिव्या के अनुसार यह पद आर्य पुरुष का प्रश्रय मात्र है, नारी का सम्मान नहीं; उसे भोगनेवाले पराक्रमी पुरुष का सम्मान है। जिसमें वेश्या के समान स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता नहीं। अतः आत्मनिर्भर सत्वयुक्त रहने दिव्या रुद्रधीर के निवेदन को ठुकराती है
भिक्षु बना पृथुसेन दिव्या को तथागत के शरण के मार्ग पर लाना चाहता था। पर दिव्या को स्मरण होता है अपनी संतान को ले संघ की शरण में जाने का प्रसंग। अतः वह पूछती है कि भिक्षु के धर्म में नारी का क्या स्थान है? तब उत्तर मिलता है -नारी त्याज्य है। अतः दिव्या नारी का धर्म निर्वाण में नहीं, सृष्टि में मान भिक्षु से क्षमा मांगती है। अंत में मारिश दिव्या के नारीत्व की कामना में अपना पुरुषत्व अर्पण करते हुए आश्रय का आदान-प्रदान कर संतति की परंपरा के रूप में मानव को अमरता देने का प्रस्ताव रखता है। जिसे सुन दिव्या आश्रय हेतु मारिश की ओर  बाहु फैलाती है।

दिव्या उपन्यास के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

  • बौद्ध धर्म का प्रभाव यत्र-तत्र था। मधुपर्व उत्सव में दिव्या के नृत्य द्वारा मराली की व्याकुलता को लक्षित कर भिक्षु जनता को उद्बोधन देता है कि माया के बंधन में जीव को इसी प्रकार सुख की अनुभूति का भ्रम होता है। किंतु इस मत के विरुद्ध दुख को भ्रांति मान जीवन क्रम को नित्य मानने वाला श्रेष्ठ मूर्तिकार मारिश के जैसे विचारों वाला वर्ग भी था।
  • दास अपने कौशल्य से उच्च पद, सम्मान तो पा रहे थे। पर अभिजातवंशीय उन्हें नीचा दिखाने का अवसर छोड़ते। दिव्या की शिविका को कंधा देने वाले दासपुत्र पृथुसेन को अभिजात वंश के युवकों के साथ शिविका में कंधा देने का अधिकार नहीं दिया जाता।
  • मद्र पर यवन राज्य के बावजूद धर्मस्थ देव शर्मा ने वर्णाश्रम धर्म की नीति, प्रथा, व्यवस्था में यवन पद्धति का संपुट दे, अनेक वर्ष न्याय दान किया। बौद्ध धर्म में आस्था के चलते न्याय में दया और मानवता की भावना आती गई। धर्मस्थ के प्रसाद में सुरासुंदरी की अपेक्षा ज्ञान और तर्क का अनुराग प्रबल था।
  • मारिश ऐसा व्यक्ति था जो - ब्रह्मलोक और निर्वाण दोनों की अवज्ञा करने वाला सागल के धर्मज्ञ विप्र समाज द्वारा लांछित, तथागत के अभिधर्म द्वारा अभिशप्त, लोकायत के समर्थक, केवल स्थूल प्रत्यक्ष इहलोक को सत्य और जमांतर में कर्मफल को असत्य बताने वाला मारिश तथागत के पूर्व अवतारों को मिथ्या विश्वास कह जातक कथा विहार के सिंहद्वार पर उत्कीर्ण करना अस्वीकार करता है। वह भोग लिप्सा के सुख को मिथ्या भ्रांति भी नहीं मानता।
  • दास सारथी पुत्र का दिव्या अर्ध्य से सत्कार करती है, तो उसके पितृव्य उपालंभ देते हुए कहते हैं कि वह तथागत की शिष्या होने योग्य है।
  • धन संचय करने वाला दास समाज में सम्मान का अधिकारी भले ही हो, पर वास्तव में वे क्षुद्र ही माने गए। पृथुसेन का पिता कभी दास था पर, अब अनेक दास का स्वामी सागल का श्रेष्ठी और गणपति का प्रमुख मंत्रणादाता होते हुए भी कई लोगों की मान्यता थी कि धन मनुष्य का मूल्य नहीं निश्चित करता। शिविका प्रसंग में पृथुसेन का रूद्रधीर के कथन पर खड़ग खींचना भी द्विजों को सह्य नहीं होता- ब्राह्मण के सम्मुख दास खड़ग खींचे’, ऐसे प्रकार को अनाचार मान वर्णाश्रम के लिए संकट कहा जाता था।
  • द्विज और शूद्रों का संघर्ष प्रकट था। विष्णु शर्मा के अनुसार वर्णाश्रम का पद न्यून करने की लिए ही अशोक ने मुंडियों की शरण ली। वह स्पष्ट मानता है कि – “ब्राह्मण शूद्र के समान नहीं; ठीक वैसे जैसे देवता मनुष्य के समान नहीं। यदि शूद्र द्विज के समान अधिकार पा सकता है, तो द्विजत्व का क्या अर्थ है? क्या ब्राह्मण के मंत्र और क्षत्रिय के शस्त्र की शक्ति शूद्र की सेवा के लिए है?’’- पृष्ठ 17
  • तत्कालीन न्याय व्यवस्था में अपने सामंतों के विचार, उनके अधिकार और शक्ति की रक्षा का विधान ही न्याय था; चाहे वह पौरव की सत्ता हो, मिलिंद की या गणराज्य की
  • मद्र के गणराज्य में धर्मस्थान में सिंह और मृग के एक साथ जल पीने के चित्र के माध्यम से न्याय व्यवस्था के प्रति आदर भाव को दर्शाया गया था। किंतु प्रकट में  इसमें दोनों प्राणी शासक के कारण विवश है। अर्थात शासक की इच्छा ही न्याय का आधार था।
  • दास के अधिकार अत्यंत सीमित थे। दिव्या की दासी छाया को सरल सेवा से तब निष्कासित किया जाता है, जब आर्य विनय शर्मा द्वारा छाया के अंग दबाने से छाया जाती है और आर्य अमिता उसे छली, कुलटा कह यह बोलती है कि- दासी होकर कुल ललना की भांति लाज का नाटक कर वह आर्य को मोहित करना चाहती है।‘
  • ब्राह्मण पुष्यमित्र द्वारा मौर्य कुल के विनाश की घटना को द्वि उत्थान एवं वर्णाश्रम के पुनरुत्थान से जोड़ने की प्रक्रिया का परिणाम जहां यज्ञ और बलि के आरंभ से हुआ वहीं दूसरी ओर बौद्ध उपासक भी अपने धर्म संदेश को फैलाने लगे।
  • युद्ध के समय में प्रत्येक जन अपने स्वार्थ में लिप्त था। गण के महाशाल, श्रेष्ठी, व्यापारी युद्धावश्यक सामग्री मनचाहे मूल्य पर बेच धन बटोरते हैं। प्रेस्थ सैकड़ों अश्व और रथों के विक्रय से धन लाभ करता है। युद्ध के प्रति वैश्यों में उदासीनता थी।
  • मल्लिका के समाज में नियम था कि सामंत दासी को भी त्रस्त न करें। वह दासी से भी स्वच्छंद व्यवहार नहीं कर सकता था।
  • धर्म जनमन पर वर्चस्व कर रहा था। पुरोहित के अनुसार- जो स्वामी-सामंत की आज्ञा से विमुख हो, वह परलोक से हीन हो श्वान का जन्म पाकर दंड स्वरूप स्वामी की सेवा करेंगा।“ अतः परलोक के बिगड़ने का डर हर एक के मन मस्तिष्क पर छाया रहता।
  • मारिश परलोक के तत्व को नकारता है। ऐसे विश्वास को वह दासता मानता है और संकट से पलायन कर रक्षा को निर्बलता। मारिश व्यक्ति को स्वतंत्र कर्ता मानता है और स्वतंत्रता का अनुभव जीवन। मृत्यु को वह भय का अंत कह सामान्य जन को स्वयं के लिए लड़ने को प्रेरित करता है। मारिश अपने अधिकार, मनुष्यत्व के लिए जीने-मरने की प्रेरणा देता है
  • पृथुसेन की अवमानना के कारण रूद्रधीर को निर्वाचन का दंड दिया जाता है। जिसकी प्रतिक्रिया में रुद्रधीर कहता है – “शूद्र के आदर के लिए ब्राह्मण के निर्वासन का यह दंड ही मद्र की मुक्ति का सूत्र होगा।“- पृष्ठ 48
  • वर्णाश्रम पद्धति की रक्षा हेतु रूद्रधीर सकृन्द केंद्रस के आगे मित्रता तथा संधि का प्रस्ताव रखता है; ताकि वे पुन: पौरव वंश की स्थापना करें।
  • युद्ध के लिए प्रस्थान पूर्व नक्षत्र आदि देखने की पद्धति थी। अपनी पत्नी और दिव्या को आश्वासन देने प्रबुद्ध शर्मा कहते हैं कि-“ हमारी नई सेना, नक्षत्र विक्रम द्वारा निश्चित शुभ लग्न में एकादशी के चंद्रमा का दर्शन कर समर यात्रा करेंगी। निश्चय ही युद्ध की गति पलट जाएंगी।“
  • समाज में तांत्रिकों का जोर था। छाया तांत्रिक बैकुंठ से बाहुल की रक्षा के लिए कवच प्राप्त करती है। दिव्या भी स्वर्ण अंगूठी तांत्रिक को दे पृथुसेन के लिए महाशक्ति रक्षा कवच प्राप्त करती है। पृथुसेन के पिता प्रेस्थ, प्रजापति के देवस्थान पर महायज्ञ, पुण्य धातु चैत्य में श्रमणों द्वारा परित्राण दिवासेना का सूत्र पाठ और यवन देवी जीयस के मंदिर में अश्व बलि का समारोह करते हैं।
  • प्रेस्थ जैसे स्वार्थवश पात्र के अनुसार स्त्री जीवन की पूर्ति नहीं, जीवन की पूर्ति का एक उपकरण साधन मात्र है।
  • उपन्यास के अनुसार आर्यों में बहुपत्नीत्व की परंपरा थी।
  • दास व्यापार समाज मान्य था। अनेक श्रेष्ठी, व्यवसायिक दास व्यापार से जुड़े थे। सीमांत के प्रत्येक युद्ध के पश्चात का समय दास व्यवसाय के लिए अनुकूल माना जाता। दास व्यवसाय के लिए भी राज नियम थे। शौल्कीक राजपुरुष प्रत्येक दास-दासी के क्रय का ताड़पत्र देखकर यह निश्चित करते थे कि उनमें से कोई अपह्र्त या स्वामी की सेवा से भागा हुआ दास-दासी या कोई द्विज संतान तो नहीं है। दासों के विक्रय पर कर संभवत एक निष्क था।  
  • दसियों द्वारा उत्पन्न छोटे शिशुओं को भी चार-पांच मास की अवस्था में ही बेचा जाता था। उपन्यास में उल्लेखित के अनुसार चैत्र मास में दक्षिणा पथ में दासों का मेला भी लगता था । - पृष्ठ 86
  • प्रतुल के पाटलिपुत्र घर पर चार दासियां थी। इन दासियों का काम केवल गृह स्वामी या स्वामी के लिए वृत्ति कमाना था। वे प्रति अठारह मास पश्चात संतान उत्पत्ति करती। प्रतुल इन दासियों को बेच उनकी संतानों को बेंचता। - पृष्ठ 86
  • बौद्ध धर्म जहा शांति के लिए बुद्ध की शरण में आने का आवाहन करता है, वही स्थविर के अनुसार- धर्म के नियमानुसार स्त्री के अभिभावकों की अनुमति बिना संघ स्त्री को शरण नहीं दे सकता। अर्थात उस स्त्री को अपने पति, पुत्र, पिता दासत्व की स्थिति में स्वामी की आज्ञा लेना अनिवार्य था।‘- पृष्ठ 92 किंतु वेश्या को स्वतंत्र नारी मानकर संघ शरण के लिए योग्य माना गया था।
  • आत्महत्या का प्रयास करने वाली दासी दारा को महाउपवरिक इस बात से अवगत कराते हैं कि दासी के रूप में वह अपने स्वामी की संपत्ति है। दासी का सेवा से विमुख होना चौर्य-कर्म है। पर वे उदार हो दासी के आत्महत्या के प्रयास के कारण को भी जानना चाहते हैं। जिस पर वह ब्राह्मण को दासी पीड़न के अपराध में अभियुक्त मानता है। क्योंकि दास भी द्विज के समान राजा की प्रजा है। दासी पुत्र की हत्या के अपराध में ब्राह्मण पर दो सौ स्वर्ण मुद्रा का राज्य दंड लगाया जाता है, क्योंकि शास्त्र ब्राह्मण को मृत्यु और कारावास का दंड नहीं देता।
  • मारिश का कथन- परलोक केवल अनुमान और कल्पना है, प्रत्यक्ष नहीं। परलोक का विश्वास दिलाने वाला उसे सिर्फ दूसरों के कथन से जानता है। प्रत्यक्ष परलोक को देखकर किसी ने उसके सत्य होने का साक्ष्य नहीं दिया। मारिश जीवन, संसार को सत्य मानता है, जो प्रत्यक्ष शरीर का अनुभव है। परिवर्तन में ही संसार का सुख-आकर्षण है।
  • मारिश मनुष्य को अमर मानता है। क्योंकि सहस्त्र वर्षों से चली रही मनुष्य की परंपरा उसकी अमरता को दर्शाती है।
  • राजसत्ता का चिन्ह छत्र और चंवर धारण करने का अधिकार मद्र के कुल गणराज्य में केवल गणपति को था अथवा गणराज्य द्वारा सम्मानित कला की अधिष्ठात्री जनपद कल्याणी नगर श्री राजनर्तकी को। पर रूद्रधीर राज्य सत्ता के चिन्हों के साथ महादेवी सीरों को देखता है। जो सत्ता और शासन का सामर्थ्य के साथ संबंध दर्शाता है।
  • सीरो के रूप में ऐसी स्त्री की कल्पना की गई है,जो उच्च पदस्थ स्तर से संबंधित होते हुए भी काम्य भोगों को भोगती, सुंदर युवा पुरुषों से आदर की आशा करती, उनके रागरंजित ओंठ केवल मदिरा से धुलते। रसवैचित्र्य उसे भिन्न-भिन्न ओंठों में ही। स्पर्शसुख उसके लिए युवा पुरुषों की बलिष्ठ भुजाओं और लोम पूर्ण कठोर वक्षस्थल के अतिरिक्त न था।
  • मूलतः सीरों की भावना पुरुष से तुलना करने की थे। वह द्विज कुल की पत्नी के समान दासत्व नहीं चाहती थी। अपने यवन रक्त पर गर्व करते हुए वह पति के अपमान और उसे अपदस्थ करने की धमकी से भी नहीं चूकती।
  • कला अध्यापन के भी कुछ नियम थे। मल्लिका जैसे  कलाविद कला को साधना मानते, जिसके लिए प्रवृत्तियों का दमन आवश्यक था। अपात्र शिष्य के हाथों कला का अपमान और ह्रास होता है। आसक्ति और साधना का सहयोग असंभव है। मादुलिका द्वारा कला का अपमान देख मल्लिका उसे अपने प्रासाद से बहिष्कृत करती है। पृथुसेन के पराजित होने पर मल्लिका की सेवा में पुनः आई मादुलिका को मल्लिका स्वीकार नहीं करती। जिसे कला की अपेक्षा विलास, सुख ने आकर्षित किया, उसके हाथ में कला शुद्ध और सम्मानित नहीं रहती।“ – पृष्ठ 149   
  • विशेष अवसर पर नगर की जनपद कल्याणी के द्वारा नृत्य-संगीत पर्व का आयोजन किया जाता था। जिसमें समाज के सभी लोग सम्मिलित होते थे। रास नृत्य में नर-नारी चक्र में आकर नृत्य करते।
  • मद्र में द्विज कुल शासन से पुनः द्विज की महिमा स्थापित होती है। गण परिषद में द्विजों के अतिरिक्त पद और सैन्यसंग्रहण का अधिकार पाये जेट्ठक अधिकारच्युत होते हैं। ग्रामअग्रहार के अधिकारी केवल द्विज ही माने गए, कालांतर से बौद्ध विहार भी अग्रहार, संपत्ति से हीन हो गए।
  • बौद्ध भिक्षु स्थविर पृथुसेन के मन की हिंसा को विमुख कर विजय का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि – विजय शत्रु का शरीर वश करने में नहीं, उसके मन की भावना को वश करने में है।‘- पृष्ठ 143
  • स्थविर के अनुसार वीर और साहसी वही है, जिसे किसी का भय नहीं। किसी का त्रास नहीं।  
  • संघ स्थविर द्वारा अभिधर्म पर संकट की बात सुन स्थविर चीबुक स्पष्ट करते हैं कि- धर्म पर संकट नहीं आता। केवल धर्म के प्रति विश्वास प्रकट करने वाले जन भयभीत होकर संकट का अनुभव करते हैं। धर्म कभी अधिक मनुष्यों के ह्रदय और विश्वास में स्थान पाता है, कभी कम मनुष्य के। – पृष्ठ 145
  • राज्य की विज्ञप्ति के विरुद्ध धर्म की रक्षा के लिए शरणागत बने पृथुसेन को चीबुक शरण देते हैं। बौद्ध धर्म में प्रव्रज्या ग्रहण कर भिक्षु पृथुसेन स्वयं शत्रुता के भाव से, भय, चिंता से मुक्त हो रुद्रधीर की इसी चिंता को मुक्त करने सार्वभौम मैत्री के सुख की भिक्षा हेतु रूद्रधीर के दरवाजे पर आता है।
  • द्विज कन्या का वेश्या के आसान पर बैठना अर्थात जन के लिए भोग्या बनना तत्कालीन समाज को सह्य नहीं होता। इसे वह वर्णाश्रम का अपमान मानते है।
  • मारिश के प्रस्ताव का स्वीकार कर दिव्या सभी पदों से अधिक मातृत्व को महत्व देती है।     

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