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रविवार, 15 जुलाई 2018

वीरांगना झलकारीबाई - मोहन राय नैमिशराय

झलकारीबाई: रानी लक्ष्मीबाई की वो ...
    देश और समाज के प्रति प्रेमबलिदान से इतिहास में खास जगह प्राप्त कर चुकी दलित समाज की वीरांगना झलकारी को वर्तमान सजग समाज ने भले ही भूला दिया होकिन्तु आज भी दलितों की नई पीढ़ी को प्रेरणादाई बन दलितों की नायिका के रूप में झलकारी बाई का स्थान शेष है। मोहनदास नैमिशराय का ‘वीरांगना झलकारीबाई’ यह उपन्यास ऐतिहासिक कथा प्रसंग पर आधारित दलित चेतनापूर्ण गाथा हैजो अपने समय के नारी विमर्श की भी व्याख्या करती है ।    

 वीरांगना झलकारी बाई – कथानक


     झांसी से चार कोस की दूरी पर भोजला गांव, जो आगे चलकर  इतिहास के क्रांति संघर्ष का महत्वपूर्ण केंद्र सिद्ध होने वाला था। ब्रिटिश राज्य के विस्तार की छाया झांसी पर भी पड़ रही थी। जिसके चलते अंग्रेजो के खिलाफ  यत्र-तत्र आग भड़क रही थी। एक ओर बुंदेलखंडी अस्मिता, पहचान से मिजाज में गर्मी थी,तो दूसरी ओर राजा और अंग्रेज भगवान के प्रतिनिधि माने जा रहे थे,जिन पर लोगों की आस्था थी। 

     उपन्यास का प्रारंभ 6 - 7 वर्षीय झलकारी से होता है, जो मिट्टी का किला बनाने में व्यस्त थी। वह छोटी सी लड़की अपने किले की बात करते हुए स्वयं को राजा-रानी से कम नहीं समझती। लहकारी और सदोवा मूलचंद की यह इकलौती संतान थी। सुमेर झांसी से झलकारी के ब्याह के लिए आया था। इधर कुछ रियासतें ब्रिटिश से टक्कर ले रही थी, तो कुछ उनसे समझौता कर शाही खजाना उन्हें सौंप चुकी थी। मात्र झांसी के दरबारी षड्यंत्र इतने बड़े थे कि दरबारी राजा पर हावी होने लगे और झांसी में अंग्रेजी छावनी बन गई। ग्वालियर का सिंधिया घराना अंग्रेजों के सामने झुक गया। झांसी के तत्कालीन शासक रामचंद्र राव को ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजा की उपाधि दी थी। ग्वालियर की ओर से सेना का जमावड़ा माल-असबाब के साथ झांसी की ओर आता है। इधर गाँव में एक काले वस्त्र पहने बाबा के मुंह से यह बात सुनकर की झलकारी इतिहास में अपना नाम कमाएंगी,झलकरी के मां-बाप खुश हो जाते हैं; पर इसे खतरो का संकेत मान सहम भी जाते हैं।

     झांसी में एक ओर सन्नाटा था, तो दूसरी ओर विद्रोह था। गंगाधर राव ने अंग्रेजों की मदद से विद्रोह को थोड़ा दबा तो लिया; पर बुंदेलखंड के सर्वाधिक समृद्ध झांसी की आर्थिक व्यवस्था शोचनीय हो गई थी। जनता पर करो का बोझा था, किसान दस्तकार की दयनीय स्थिति थी, साहित्य-संस्कृति, नाट्य-नृत्य तो हाशिए पर चले गए थे। झांसी की छोटी-बड़ी जागीरो में विद्रोह था। झांसी के पराजित वारिस प्रबल दावेदार बनने के प्रयास में षड्यंत्र के सूत्रधार बन गए थे।

     जंगल में जलावन लेने गई झलकारी पर बाघ का आक्रमण होता है, जिसमें झलकारी बहादुरी दिखाते हुए बाघ को मार डालती है। गांव के लिए यह गौरव की बात थी, पर  कुछ लोंगो को ईर्ष्या होती है कि छोटी जात की लड़की ने बाघ को मारा। गांव के पंडित अतः इस घटना को पूर्वजन्म से जोड़कर उसे पूर्वाश्रमी की क्षत्रिय कहते हैं। झलकारी के कारण गांव का नाम होता है, पर उसकी जाती झलकारी के नाम के पहले सहज ही जाती।

     बौद्ध भिक्षु के द्वारा पढ़ने के बात पर झलकारी के पिता तो इसे भाग्य के बात कह टाल देते हैं। तो झलकारी ऐसे भाग का विरोध करती है। अत: भिक्खु  खुशी से उस घर का भोजन ग्रहण कर झलकारी को अपना दीपक स्वयं बनने का आशीष देते हैं। 9 - 10 साल की झलकारी का रिश्ता झांसी के पूरन से तय होता है। विवाह के बाद भी दोनों एक दूसरे को मान-सम्मान देते है। अपनी मेहनत और स्वाभिमान से झलकारी सबका दिल जीतती है।

     झांसी समृद्धि शाली शहर था। शहर में अंग्रेज कम थे, पर उनका दबदबा था। राजा भी इनकी अनदेखी नहीं कर सकते थे। राजनीति और व्यापारिक दृष्टि से झांसी का महत्व था। हाथी, घोड़ा बेचने की मुख्य मंडी झांसी था। झांसी में मराठी नेवलकर वंश की बहू होकर आई थी -रानी लक्ष्मी बाई। झांसी पहले ओरछा राज्य में आती थी। बुंदेलो के रक्त से सींची गई झांसी की अपनी अस्मिता-पहचान थी। पर महाराणा गंगाधरराव अंग्रेजों की कृपा से सिंहासन पर बैठते हैं। आमोद प्रमोद में डूबे राजा को लेकर जनता में उदासी थी। जनता को दिलासा देने वाला राजा था, ना भगवान। विघटन की प्रक्रिया सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर थी। करों के बोझ से झुकी जनता को फिरंगीयों के अत्याचार भी सहने पड़ते।
     भंगी जाति की मछरिया को नारायण शास्त्री ने अपने घर में पत्नी के रूप में रख लिया था। इसे ब्राह्मण समाज को चुनौती मान झांसी के रूढ़िवादी लोग इस अंतर्जातीय दंपत्ति से जले रहते थे। राजा भी सच जानकर कुछ करने में असमर्थ थे। इसी वक्त शुद्रों द्वारा जनेऊ पहनने के चलते राजा के द्वारा उन्हें शुद्र दाग आदि देकर बेइज्जत किया जाता है। सब कुछ होते हुए भी झांसी पराधीन थी। स्वराज्य की कल्पना तो राजा में थी, प्रजा में। इधर मछरिया और शास्त्री को उनके जात वाले भी परेशान करने में लगे थे। पूरी झांसी में उन्हीं की बात चलती। मछरिया के घर ईंट, पत्थर फिंकवा घर को आग लगाने की भी धमकी दे गए थे कुछ लोग।
     नए जनेऊधारियों की अर्थात शूद्रों की दरबार में राजा के सामने पेशी होती है। लोक मर्यादा के नाम पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को ही जनेऊ पहनने का अधिकार  कहकर राजा उन्हें ओर दंड देता है। राजा शास्त्री को मछलियां को छोड़ने कहते हैं। पर दोनों के अलग ना होने के अटूट निर्णय को देख राजा उन्हें देश निकाला देता है, ताकि झांसी में मर्यादा भंग ना हो। पर रानी रूढ़ि-परंपराओं में रहने के बावजूद उदार थी। झलकारी की शक्ल रानी से मिलती-जुलती थी। सीधी-सपाट भाषा, तीखे स्वभाव से बस्ती में चर्चा का विषय बन चुकी झलकारी को रानी लक्ष्मीबाई स्वयं बुलावा भेजती है।
     गौर पूजन के अवसर पर झलकारी की रानी से पहली बार किले में मुलाकात होती है। गांव से अलग शहर देखने की उत्सुकता के चलते झलकारी के बचपन के दोस्त चंन्ना और रमची भी झांसी तो आते हैं, पर पहले उन्हें घंटा भर बेगार करनी पड़ती है। झांसी में विद्रोह के स्वर फूटने लगे थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी, सैनिक नगर के आंतरिक मामले में दखल देने लगे थे। राजा केवल नाम मात्र था। अतः 21 नवंबर 1853 को राजा गंगाधर राव का देहांत हुआ, तब रानी केवल 18 वर्ष की थी। दरबार में घात-प्रतिघात चल रहे थे। साम्राज्य का कोई मूल्य नहीं था। अंग्रेज अधिकारी एलिस की ओर से झांसी राज्य को दत्तक की स्वीकृति दी गई, किंतु डलहौसी इसे अस्वीकृत कर दामोदर राव की गोद मानने से इनकार करते हुए झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिला रानी को मासिक  वृत्ति  देने की सिफारिश करता हैं।
     रानी से किला खाली करवाया जाता है और रुपए 5000 मासिक वृत्ति दी जाती है। एलिस की घोषणा को सुन दरबारी चुप बैठे थे। वहीं झलकारी को झांसी के छीन जाने का दुख था। युद्ध को ही शांति व्यवस्था और ठहराव का विकल्प मान सभी वर्गों के लोग सेना में शामिल हो ऐसी योजना रानी ने बनाई थी। पर रानी को संदेह था कि दलित और महिलाओं  के सैनिक बनने पर उच्च वर्गीय हिंदू बुरा मानेंगे। होता भी ऐसा ही है। महिलाओं में भी जाति विषमता के चलते बेबनाव था। ऐसे में दलित समाज की झलकारी को महिला सेना का कमांडर बनाया जाता है। बड़ी संख्या में हिंदू-मुस्लिम भी युद्ध के लिए एक हो गए। दलित महिलाओं ने रानी के प्रस्ताव का स्वागत किया, तो झलकारी की स्वच्छंदता को देख कोरी समाज के  बड़े-बूढ़े उसे उलाहना देने लगे।
     झलकारी अंजनी टोरियां पर निशानेबाजी के लिए आती। वह स्वयं सीखती थी, फिर दूसरों को सिखाती। एक दिन भेड़िए के संदेह में वह गाय की बछियां पर गोली दागती है। वह गोली बछिया के पैर में लगती है। उस बछिया को तो दंतिया भेजा जाता है और जिस ब्राह्मण की वह बछिया थी, उसे पढ़ाया जाता है, कि वह कहे बछिया उसके सामने झलकारी ने मारी; ताकि एक औरत से समाज बैर चुकाए। पंचायत बुलाने का निर्णय लिया जाता है और सजा तय होती है अपराधी का काला मुंह कर, उसे गधे पर चढ़ा बाजार में जुलूस निकाला जाए। इससे व्यथित झलकारी रानी को अपनी व्यथा सुनाती है। रानी के क्रोध को देख ब्राह्मण भी अपना झूठ स्वीकारता है। पर बछिया के घायल होने का दंड उन्हें भोजन के द्वारा चुकाना पड़ा, जिसके लिए झलकारी को अपने गहने बेचने पड़े। किंतु रानी के व्यवहार के कारण झलकारी अनमनी-सी होती है। पर हल्दी-कुमकुम के त्यौहार से झलकरी के मन में जमी मैल साफ होती है।
     रानी अंग्रेजों से दो हाथ करने की ठान ही लेती है। झांसी का बच्चा-बच्चा भी अपने मान-सम्मान के लिए झांसी के लिए बलिदान देने को तैयार हो जाता है। महिलाएं भी हथियार चलाने का प्रशिक्षण लेने लगी। नगर वेश्याओं ने भी वैश्यागिरी छोड़ सिपाही गिरी अपना ली। कितने ही मेहंदी लगे हाथों ने बंदूके संभाली। झलकारी अब झांसी की इज्जत बन गई। जहां रानी का खजाना खाली था और सेठों का भरा हुआ। फिर भी रानी ने किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। उन्हें मेहनतकश के पर अधिक विश्वास था। रानी स्वयं भी महिलाओं को प्रशिक्षित कर रही थी। उनकी कोशिश थी, औरतों को जांबाज बनाने की, जो दुश्मनों के छक्के छुड़ा दे। दलित भी अपने सम्मान के लिए सेना में भर्ती होने लगे। झांसी के पूर्व के बर्खास्त सैनिकों को रानी पुनः बुला लेती है।
     विद्रोह की छुटपुट घटनाओं के बाद 10 मई 1857 को मेरठ छावनी में भारतीय सैनिकों ने विद्रोह किया। ऐसे में पूरन और भाऊ बख्शी ने झांसी में विद्रोह का संचालन किया। मेरठ, दिल्ली के सिपाहियों के सहयोग से झांसी स्वतंत्र हुई, रानी के हाथों बागडोर गई। जिस दिन अंग्रेजों ने झांसी को हथियाया था, तब झलकारी ने प्रतिज्ञा में अपने जेवर उतारे थे। अब पुनः झांसी हाथ में आने पर रानी स्वयं झलकारी के लिए जेवर बनवाने की बात करती है, पर झलकारी इसे नकारती है।
6 जून 1857 को पूरन और भाऊ बक्शी ने झांसी के किले को घेरा। महिला और बच्चों को छोड़कर अधिकतर अंग्रेज सैनिक मारे जाते हैं, तो कुछ भागने में सफल होते हैं। औरछा और दँतिया से अंग्रेजों के लिए सहायता आती है। तो तात्या टोपे विशाल सेना के साथ झांसी की मदद के लिए आते है। परंतु जनरल ह्यूरोज तात्या की फौज को त्रस्त करता है। झांसी के किले में झलकारी आदि अंग्रेजों से लोहा लेते हैं। उन्नाव बुर्ज चढ़ने की कोशिश करने वालों को झलकारी रोकने में सफल होती है। भांडेरी गेट से उन्नाव गेट तक युद्ध संचालन स्वयं झलकारी कर रही थी। झलकारी का चेहरा-व्यक्तित्व रानी के समान था। झलकारी स्वयं अंग्रेजों के संहार में थी। जिसका उद्देश्य था, अंग्रेजों को सारे दिन लड़ाई में उलझाये रखें; ताकि रानी लक्ष्मीबाई बिठूर के सुरक्षित स्थान तक पहुंचे। इस बीच पूरन की मौत का समाचार मिलता है। ऐसी स्थिति में भी झलकारी को झांसी की सुरक्षा की चिंता थी। वह स्वयं घोड़े पर सवार हो अंग्रेज सेना पर टूट पड़ी थी।
     झांसी के हलवाई पुरा से बढ़ती आग ने कितने मोहल्लों को अपनी चपेट में ले लिया। अंग्रेज सिपाही आर्तनाद करने वाले नर-नारी, बच्चों की हत्या कर रहे थे। पूरी झांसी युद्ध क्षेत्र बन गई। झलकारी को चिंता थी -रानी के सम्मान की। इधर रानी के कई साथी एक-एक कर वीरगति को प्राप्त होते है। रानी को बालक दामोदर की चिंता भी सताने लगी थी। सबकी राय यही थी कि रानी झांसी से निकल जाए, पर अंग्रेज सेना ने अपना बंदोबस्त भी बढ़ाया। किंतु रानी किले से बाहर निकलने में सफल होती है। झांसी का हर घर जल रहा था।
     गोरों का ध्यान रानी से हटाने झलकारी स्वयं जनरल ह्यूरोज की छावनी में जाती है और स्वयं को महारानी लक्ष्मीबाई बताती है, कि जब तक अंग्रेजों की जांच पड़ताल हो रानी झांसी से दूर निकल जाए। पर दूल्हाजू जिसने ओरछा फाटक खोल कर अंग्रेजी सेना को भीतर आने का अवसर दिया था; झलकारी को पहचान लेता है और झलकारी का भेद खोलता है। जबकि दूल्हाजू एक ठाकुर था,क्षत्रिय था। ह्यूरोज के क्रोध में आकर गोली मारने की धमकी से भी झलकारी नहीं डरी। इज्जत पर हाथ डालने वालों को मारने की निर्भरता भी झलकारी में थी। ह्यूरोज झलकारी की वीरता से प्रसन्न हो उसे छोड़ देता है।
      झांसी अंग्रेजों के प्रभुत्व में जाती है। इस कारण झलकारी का द्वंद्व ओर उभरता है झांसी को आजाद करने वह अपने लोगों और औरतों की सेना बनाने लगी।


उपन्यास कुछ महत्वपूर्ण अंश -
  • तत्कालीन समय में धर्म में प्रयोग और विश्लेषण की नवीन प्रक्रिया आरंभ हो चुकी थी। धर्म ही शिक्षा था और शिक्षा ही धर्म था।
  • बाल विवाह आरंभ में सामाजिक उत्सव थे, पर बाद में दुर्घटनाओं के मुक आमंत्रक बन रहे थे।
  • रियासतदारो, जमींदारों की तलवारे चमकती थी पर एक-दूसरे के विरुद्ध। अंग्रेजों के विरुद्ध मानो उनके तलवारों में जंग लग गया था। कुछ रजवाडे उन से टक्कर ले रहे थे, तो कुछ में समझौता। शाही खजाने पर अंग्रेजों का वर्चस्व स्थापित हो चुका था।
  • उस काल की रियासतें, रजवाडे अंग्रेजों के गौरव गान में बड़प्पन मानते थे। दूसरे को कम आंकने वाले यह परस्पर खून बहा थे। इन्हें अपने ऊंचेपन पर अभिमान तो था पर स्वाभिमान नहीं।
  • मेहनतकश-दलितों के मेहनत की तत्कालीन समाज को आवश्यकता होकर भी उन्हें दूर ही रखा जाता था।
  • गांववालों के लिए जंगल रोजी-रोटी के सहायक थे। जंगली जानवरों के नुकसान को गांव वाले नियति मान संतोष करते।
  • झलकारी जैसी छोटी जात की लड़की किसी बाघ को मार दे, तत्कालीन समाज के लिए यह रुचिकर बात थी। क्योंकि वीरता-बहादुरी के गुण सवर्ण क्षत्रियों की मानो विरासत थे और दलित-पिछड़े केवल अवगुण-अयोग्यता के धनी थे। अतः कुछ लोग इस घटना को पूर्व जन्म से जोड़कर झलकारी को क्षत्रिय कहते।
  • ऊंची जाति के लोग दलितों से केवल काम की बातें करते। दलितों को केवल सुनना पड़ता, तो सवर्णों के पास सुनाने के सारे अधिकार थे।
  • सवर्ण नहीं चाहते थे कि पिछड़ी जाति के लोग दलितों से हिल मिलकर रहे। पिछड़ी जाति के लोग  सछूत तो दलित अछूत माने जाते।- पृष्ठ 24
  • कर्म से बढ़कर जाति हो जाती, क्योंकि यही योग्यता का मापदंड थी।
  • श्रद्धा-अंधश्रद्धा के चलते गुसाईयों की काफी आवभगत होती। मुफ्त का खाकर अनपढ़ लोगों को झूठे-सच्चे सपनों में भ्रमित करना; भाग्य-दुर्भाग्य, भूत-प्रेत, परियो-डायनों के किस्सों, चमत्कारों से लोगों को वश कर समाज पर दबाव डाल वे अपने आपको विराट संस्कृति के सूत्रधार मानते।
  • पादरी किसी से लेते थे, छुआ-छूत मानते थे, कहीं रुकते नहीं, मूल भारतीयों से मिलते, क्रोध नहीं हंसकर बातें करते, उदार प्रपंचों से दूर उनकी अंगुली भारतीय समाज में गहरे तक रची-बसी जात प्रथा की विसंगतियों पर थी। उनकी निगाहों में मानवीयता का व्यवहार ही सबसे महत्वपूर्ण कार्य था।
  • महिलाओं की स्थिति  खराब थी, अपने ही घर में दूसरे दर्जे पर। घर-घर में अनगिनत देवता थे। जिनकी भोग की साधन थी। औरतें विराट संस्कृति में सबसे नीचे के पायदान पर थी।- पृष्ठ 27
  • बौद्ध धर्म के अनुयाई समाज परिवर्तन के मुखापेक्षी थे। सामाजिक न्याय के लिए घूमते बौद्ध भिक्षु जन चेतना के वाहक बन परिवर्तन के सूचक एवं क्रांति के सूत्रधार बन रहे थे।
  • पढ़ने का अधिकार उच्च वर्गों को था। दलितों का काम पढ़ना नहीं।
  • दो बौद्ध भिक्षु झलकारी के घर भोजन ग्रहण करते है। उनका वर्णन –“ वे बिल्कुल सीधे साधे थे। उनके भीतर कोई दुराव-छुपाव नहीं था। वे सुविधा भोगी थे और कुंठित। उनके  ह्रदय विराट थे। वे मानवीय संस्कृति के उद्घोषक थे। जन-जन में मानवीयता की खुशबू फैलाने वाले बुद्ध के अनुयायी थे। किसी भी जाति के व्यक्ति को अपने सीने से लगाने वाले थे। उनके लिए राजा और रंक में कोई अंतर था। वे राजाओं की चिरौरी नहीं करते थे। औरत उनके लिए सम्मान का प्रतीक थी। वे उनकी इज्जत करते थे। वे रंगशाला में जाने के भी शौकीन नहीं थे। अगर उन्हें कोई लगाव था, तो मनुष्य और मनुष्यता से। वे सदैव विचार प्रवाह के हिमायती थे और रूढ़ियों,परंपराओं, जातियों के विरोधी थे। उनके भीतर स्पंदन था। ठहरे हुए पानी की तरह ठहराव नहीं।“- पृष्ठ 28
  • भारतीय समाज विवाह की उम्र को वरीयता देता है, विवाह की योग्यता को नहीं। अतः कम उम्रवाले, बाल विवाह प्रचलित थे। गर्भ में पल रहे बच्चों का विवाह भी आम बात थी।
  • जातियों के बीच महत्वपूर्ण संपर्क सूत्र थे- जन्म, मरण, विवाह, व्यवसाय।
  • राजा गंगाधर राव ने सिंहासन पर अधिकार किसी बलिदान से नहीं, अंग्रेज प्रतिनिधियों के चरण पकड़ कर पाया था। इस राज को भोगना ही उनका उद्देश्य था। आमोद-प्रमोद में डूबे महाराजा कभी स्त्रियों की वेशभूषा ओढ-पहन,  आभूषन-अलंकार पहन, स्वयं को कभी स्त्री समझ वैसे ही हरकतें करते। उनके लिए नाट्यशाला ही उनका संसार था। राजा का तालियां बजाना, ठुमके लगाकर नाचना देख नगर की जनता के मन में राजा के प्रति उदासीनता आ चुकी थी। सैन्य में भी अनुशासन न था। अंग्रेजों के हाथ बागडोर आ जाने पर जनता की सुनने वाला कोई नहीं रहा था।
  • मछरिया और नारायण शास्त्री अर्थात भंगी और ब्राम्हण में अंतर्जातिय विवाह शायद पहली घटना थी, जिसके कारण झांसी के सवर्ण रूढ़ीवादी अवसर की तलाश में रहते कि कैसे उन्हें नीचा दिखाए। वही वर्ण व्यवस्था में बंधा राजा भी श्रेष्ठ ब्राह्मण को दंड देने में असमर्थ था। - पृष्ठ 36
  • जनेऊ  प्रसंग ने हिंदू धर्म के मान-सम्मान पर सवाल उठाया। सवर्णों के लिए जनेऊ पहनना सामाजिक श्रेष्ठता का प्रतीक था। पिछड़ी जाति के लोगों ने जब खुल्लम-खुल्ला सार्वजनिक तौर पर जनेऊ पहनने की शुरुआत की, तो राजा रुढीवादियों के साथ हो गया। जनेऊ पहनने वाले शुद्र थे, परंतु  अछूत नहीं। किंतु वर्ण व्यवस्था की रेखा चाह कर भी वे पार नहीं कर पाए। राजा के आदेश पर  शूद्रों के जनेऊ तोड़े गए, तांबे और लोहे के जनेऊ आग में लाल कर उन्हें पहनाए गए, मारपीट कर सार्वजनिक स्थानों पर उन्हें बेइज्जत किया गया। - पृष्ठ 38
  • झांसी में ऐसे भी लोग थे, जिन्हें देश-समाज से कुछ लेना-देना नहीं था। वे सुविधा भोग की लालसा में अपना ज़मीर भी बेचते थे। झांसी में सब कुछ हो कर भी झांसी पराधीन थी। स्वराज्य की कल्पना राजा में थी, प्रजा में। राजा स्वयं पुरातन पंथी, स्त्री स्वाधीनता को नकाराने वाला था।
  • जिस नारायण शास्त्री को भंगी पत्नी रखने के लिए समाज उलाहना देता था, उसी मछरिया को देख जनेऊ धारियों से लेकर तिलक धारियों की लार टपकती। उसके सामने जनेऊ निकाल फेंकने वे तत्पर होते। औरत के शरीर के आगे जनेऊ मात्र धागे का टुकड़ा बन गौण हो जाता और ब्राह्मणत्व के स्थान पर लंपटता हावी हो जाती। -  पृष्ठ 39
  • मछरिया के शब्दों में –“ सात आठ वर्ष की थी, तब से लोग उसे औरत बनाने पर तुल गए थे।“ - पृष्ठ 41
  • जहां-जहां दलित और पिछड़े समाज के लोग रहते, उन्हें सवाल-दर-सवालों का सामना करना पड़ता। जैसे वे केवल जवाब देने के लिए पैदा हुए हो। पूरन और झलकारी की यही स्थिति थी।
  • नवचेतना के चलते कोरी समाज के कुछ युवकों ने जनेऊ पहनने की हिम्मत की, कुछ युवक अखाड़े में कसरत करते, मुगदर भी घुमाते। बड़े बूढ़ों के समान झुकना इन्होंने नहीं सीखा था। इनका आत्म सम्मान जाग रहा था। इतना ही नहीं राजा की सेना में दलित-पिछड़ी जातियों के भी सैनिक थे और कोरी समाज के भी।– पृष्ठ 42
  • झांसी शहर हिंदू परंपरा तथा रीति-रिवाजों के बीच था। अतः दलित अस्मिता की ना तो किसी को चिंता थी ना पहचान। - पृष्ठ 42
  • अंतरजातीय विवाह का चलन नहीं था। पर आगरा और नजदीकी भागों में ऐसे विवाह हो रहे थे। बंगाल में इस विषय पर बहस हो रही थी; तो दक्षिण भारत, महाराष्ट्र में आंदोलन के स्वर उभर रहे थे।
  • रानी लक्ष्मीबाई रूढियों-परंपराओं में बड़ी होने के बावजूद उदार स्वभाव की थी। समय को देख चल रही थी। रानी की स्वतंत्रता राजा के लिए भी चुनौती थी। झांसी की विराट संस्कृति में रानी सबको हिस्सेदार बना रही थी। वह पहली रानी थी, जिसने महल के बाहर भी खोज-खबर लेने की कोशिश की। झांसी की बस्तियां आम- खास औरतों की वह खबर रखती थी। वो झांसी की एक-एक स्त्री को समझना चाहती थी। रानी होकर वह प्रजा के सुख दुख में हिस्सेदार होना चाहती थी।
  • घोड़े की सवारी करना, हथियार चलाना, तेज दौड़ कर पहाड़ पर चढ़ना, भाला फेंकना, दीवार फांदना जैसे काम स्त्री होकर भी वे सहजता से करती। संस्कृति की धरोहर बन पर्दे में रहकर परिवार की इज्जत-अस्मिता का आभूषण वह बनना नहीं चाहती थी।
  • गौर पूजन के अवसर पर किले में जाने की सब जातियों को आजादी थी। पर जहां अपने कक्ष में रानी ने गौरी को स्थापित किया, वहां दलित जातियों की स्त्रीया नहीं जा सकती थी, उन्हें मनाई थी। गौरी पूजन देखना भी उनके लिए अशुभ था।
  • राजा सब कुछ सहन कर सकते थे, पर रानी महल में पूजा गृह में सभी जाति की स्त्रियों को बुलाए, यह उन्हें सहन था
  • निम्न वर्ग की व्यक्ति का नाम अच्छा होने के बावजूद पूरा नहीं लिया जाता था। कभी-कभी तो जाति के नाम ही से वह जलील होते। सवर्ण तो कभी इससे भी गए बीते शब्दों का प्रयोग करते। जिसके पीछे केवल यहीं उद्देश्य था - दलितों की जातीय अस्मिता और पहचान पर चोट करना उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाना।
  • दलितों को मुख्य मार्ग पर चलने की मनाई थी। इसलिए उबड़-खाबड़ कच्ची सड़कों पर चलना उनकी मजबूरी बन गई थी। श्रेष्ठ जाति के लोग उनकी परछाई से भी दूर रहते। उन्हें देखना भी अपशकुन माना जाता। दलितों का बोलना भी सहन नहीं होता था। बोलने पर उन्हें दंड सहना पड़ता था। केवल सुनना उनके भाग्य में था। प्रतिक्रिया व्यक्त करने पर जीभ काट ली जाती थी।
  • झांसी की रियासत रजवाड़ों में छुआछूत थी। मुस्लिम बस्तियां झांसी परकोटे के भीतर, तो दलित जातियां परकोटे के बाहर थी, अधिकतर वहां जहां कूड़ा पड़ा रहता। नगर में जातियों के आधार पर पडाव थे।
  • दलित युवा भी सेना में भर्ती हो रहे थे, जिसके कारण दलितों में आत्मविश्वास जाग रहा था। गांव के सेना में भर्ती दो दलित लड़के लौटकर गांव के सरपंच की आंखों में आंखें डाल कर बातें करते हैं। अन्यथा दलितों के भाग्य में ठाकुर की मार पर बिलबिलाना था।
  • गांव में सरपंच की मरी भैंस को उठाने में चमारों के विरोध को देख मजबूरी में सरपंच दूसरे गांव के लोग बुलाता है। इस घटना से दलितों को अपनी ताकत का एहसास हुआ, साथ ही सदियों की गुलामी का भी।
  • दलितों पर एक-सा शोषण हो रहा था, पर उनमें एकत्व की भावना कम थी। किंतु अब सम्मानजनक जीवन जीने के लिए वह भी गांव छोड़ने को तैयार थे। सेना में भर्ती होने से एक आत्मविश्वास उनमें समा रहा था।
  • 19 वीं शताब्दी का भारत संकीर्णता के साथ जी रहा था। ऐसे में एक लड़ाई सामाजिक अत्याचार के विरुद्ध तो दूसरी अंग्रेजों के विरुद्ध चल रही थी। जनता की भागीदारी दोनों में थी। पर जमीदार, पुरोहित वर्गों को इससे लेना-देना नहीं था। हिंदू धर्म के कुसंस्कारों, कुप्रथाओं के विरुद्ध चल रहे सामाजिक प्रयासों में भी रूढ़िवादीयों द्वारा बाधा पहुंचाई जाती।
  • जनता कई जाति, धर्म, गोत्र, कुलों में विभाजित थी। शिक्षा विशेष परिवारों तक सीमित थी।
  • बेगार का प्रचलन आम था। न्याय भी सुलभ था।
  • झांसी में राजा नाम मात्र का था। सत्ता अंग्रेजों के हाथ थी। बाहर से होने वाली लूटपाट, अराजकता की मार  जनता झेल रही थी।
  • झांसी में सैनिक और असैनिक कुल मिलाकर 80 अंग्रेज थे, जबकि हजारों देसी सैनिक थे, फिर भी देश प्रेम की भावना नहीं थी
  • झांसी में जब नया कसाईखाना खुलता है, पशुओं के खून से सना चमड़ा राजपथ से ले जाया जाता है। ऐसे में धर्म, आस्था ,संस्कार, परंपराओं की विरासत का अपमान हिंदू खुली आंखों से देखते हुए भी चुप थे।- पृष्ठ 58
  • झांसी को बचाने के लिए रानी सभी वर्गों को सेना में शामिल कराने की सोचती है। रानी के खुले केश और बिना पल्लू का सिर देख कुछ पुरुषों का दंभ जागृत होता है। पर रानी  के शब्दों में राजा अब नहीं रहे, तो राजा भी मैं ही हूं। बिल्कुल ऐसे जैसे किसी परिवार में पति की मृत्यु के बाद पत्नी की स्थिति होती है। वह पत्नी भी होती है और पति भी। मां के साथ पिता की जिम्मेदारी भी उसे पूरी करनी पड़ती है।“ -  पृष्ठ 16
  • पर सामाजिक नियमों के बाहर कुछ मर्दानगी का काम करने वाली झलकारी जैसी औरत से ईर्ष्या वश बदला लेने उसे गौ हत्या का आरोपी किया जाता है और पंचायत बिठाई जाती है; ताकि फिर कोई औरत ऐसा करें
  • एक और रानी देश के लिए बंदूक, तलवार उठाने कहती है; तो दूसरी और बहू का घूंघट खोल कर डांग में फिरना, बंदूक चलाना जाति धर्म के खिलाफ माना जाता है।
  • सामाजिक अन्याय का प्रतीक- झूठ था। वह भी ऐसी नारी के विरुद्ध जो दलित होकर भी कुछ करना चाहती है। जिसे ब्राह्मण के द्वारा झूठ बोलने से अधिक बुरा माना गया। झांसी जैसे हिंदू राज्य में ब्राह्मण को दंड नहीं मिलता क्योंकि ब्राह्मण अब तक सब दंड से ऊपर था।
  • रानी ब्राह्मण को दंड दे कोई आफत मोल लेना नहीं चाहती थी। ब्राह्मण को दंड देने की बात सार्वजनिक रूप से कह कर उन्होंने गलती की। यह फैसला वापस लेना उनकी ऐतिहासिक भूल थी। एक ब्राह्मण को नाराज करने का अर्थ नगर तथा आसपास के समूचे ब्राह्मण समाज को नाराज करना था। जाति आधार पर बनाए गए यह नियम मानवता से ऊपर थे।
  • बिना जाति वर्ग विशेष के रानी सब का सम्मान करती थी। सभी को बराबर मान देती थी। हल्दी-कुमकुम के अवसर को रानी ने एकता समन्वय का प्रतीक बना दिया था।
  • झांसी का एक वर्ग ऐसा भी था जिन्हें देसी या अंग्रेजी राज से कोई लेना-देना नहीं था। उनकी बहिया और तिजोरीया एक साथ भरते रहते थे। समय देख चतुरता, चालाकी से वे सत्ताधीश के कभी आगे झुकते, तो कभी अंग्रेजो को भी कर्जा देते। यह अव्वल दर्जे के केवल व्यापारी थे।
  • सभी पुरुष अपनी पत्नियों को अंकशाइनी बनाना चाहते थे, जांबाज नहीं।- पृष्ठ 86
  • दलित और पिछड़े समाज के लोगों के बीच सेना में भर्ती होने की होड़-सी थी। सेना में भर्ती होना उनके लिए सम्मान का प्रतीक बन चुका था।
  • भारत में ही कुछ के लिए अंग्रेज शत्रु थे तो कुछ के लिए मित्र। कंपनी के 100 वर्ष तक समाज में बिचौलियों का तीसरा वर्ग का बन चुका था, जिसे देश-समाज से कुछ लेना-देना नहीं था।
  • झांसी के युद्ध में औरतों ने स्वयं अपनी चूड़ियां तोड़ी थी। जौहर करने वाली औरतें नदी-नालों और कुएं में कूदकर जान देती थी। पर इस परंपरा को झलकारी ने उलट दिया था। पीठ दिखाकर मरने से अधिक युद्ध में वीरत्व पाना उसका उद्देश्य था।
  • ह्यूरोज द्वारा जीवंत  छोड़े जाने के बाद भी झलकारी का एक मात्र लक्ष्य झांसी को अंग्रेजों के हाथों आजादी दिलवाना था। अतः वह पुनः बिखरे लोगों, औरतों को इकट्ठा कर सेना का निर्माण करती है; ताकि झांसी स्वतंत्र हो।


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