प्रस्तुत कविता पुष्प के माध्यम से उन भावनाओं की प्रस्तुति है, जिनमें राष्ट्र के प्रति समर्पण भाव और आत्म त्याग की वृत्ति को अभिव्यक्त किया गया है।कविता में पुष्प का मानवीकरण किया गया है। पुष्प पर मानवीय भावनाओं का आरोप लगाते हुए राष्ट्र के प्रति बलिदान की भावनाओं को सर्वोपरि मानते हुए राष्ट्र समर्पण का आवाहन किया गया है। कवि पुष्प के माध्यम से उन आकांक्षाओं, अभिलाषा ओं को व्यक्त करता है, जो इस भारत के नागरिक होने के नाते हम सभी में होनी चाहिए। एक सामान्य पुष्प देश के लिए जिस समर्पण भावना को प्रकट करता है, वह मनुष्य होने के नाते राष्ट्र पर प्राण न्यौछावर करने के लिए हमें भी उद्युक्त करती है।
पुष्प की अभिलाषा
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक
पुष्प कहता है उसकी कोई इच्छा नहीं है कि किसी देवांगना के गहनों में गूंथ करवह उसके सौंदर्य में वृद्धि करें। आमतौर पर पुष्प आदि का प्रयोग स्त्री सौंदर्य को बढ़ाने के, प्रसाधन के रूप में सदियों से किया जाता है। अतः सौंदर्य उपासक पुष्प की सार्थक सौंदर्य वृद्धिकारक के रूप में ही मानते है। पर यह सौंदर्य, जो ऐहिक है, चिरंतन नहीं है, बल्कि क्षणिक है, नश्वर है। अतः ऐसी नश्वरता के प्रलोभन में पुष्प पडना नहीं चाहता। न केवल सौंदर्य प्रसाधन के रूप में अपने अस्तित्व इति चाहता है।
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